बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार फिर ग़ुस्से में हैं। पटना में इस समय जो राजनीतिक लामबंदी चल रही है उससे साफ़ संकेत मिल रहा है कि नीतीश एक बार फिर बी जे पी के साथ जा सकते हैं। कहा ये जा रहा है कि इंडिया गठबंधन का संयोजक नहीं बनाए जाने से नीतीश आहत हैं। इस बार नीतीश ने ही बी जे पी के ख़िलाफ़ गठबंधन बनाने की पहल की थी। उन्हें पहला धक्का तब लगा जब उनकी उपेक्षा करके कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को गठबंधन का अध्यक्ष (चेयर पर्सन) बना दिया गया।उन्हें संयोजक बनाने की बारी आयी तो बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल सामने आ गए।
बिहार में नीतीश के प्रमुख सहयोगी आर जे डी और कांग्रेस की राज्य इकाई तो नीतीश के क़दमों में झुकी हुई है, फिर भी नीतीश उनसे पीछा क्यों छुड़ाना चाहते हैं? यह एक बड़ा सवाल है। तो क्या नीतीश को 2024 के लोकसभा और 2025 के विधान सभा चुनाव को लेकर कोई आशंका होने लगी है।नीतीश हमेशा ही चुनाव में जीत और मुख्यमंत्री पद को पहले स्थान पर रखते हैं।राष्ट्रीय राजनीति में उनकी दिलचस्पी महज़ इतनी सी दिखाई देती है कि अगर कभी बी जे पी विरोधी गठबंधन का प्रधानमंत्री बनाने का मौक़ा आ जाए तो वो भी दावेदार बने रहें।
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लोकसभा 24 का दांव
बिहार में राजनीतिक दलों का समीकरण 2019 के चुनावों से अलग है। 2019 में बी जे पी, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी जे डी यू और पूर्व केंद्रीय मंत्री राम बिलास पासवान की पार्टी एल जे पी ने मिलकर चुनाव लड़ा था। तब राज्य की 40 सीटों में से 17 बी जे पी को,16 जे डी यू को और 6 एल जे पी को यानी एन डी ए गठबंधन को कुल 39 सीटें मिली थी। दूसरी तरफ़ महा गठबंधन में शामिल कांग्रेस को सिर्फ़ 1 सीट मिली। मुख्य विपक्षी दल आर जे डी का सफ़ाया हो गया था। 2020 के विधान सभा चुनाव में आर जे डी सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी लेकिन बी जे पी और जे डी यू को बहुमत मिल गया। इस चुनाव में नीतीश की पार्टी की सीटें घट गयीं , लेकिन नीतीश फिर मुख्यमंत्री बनाने में कामयाब हो गए। नए समीकरण में जे डी यू , आर जे डी और कांग्रेस साथ बने रहते हैं तो नतीजे बी जे पी के ख़िलाफ़ जा सकते हैं। राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि सिर्फ़ राम मंदिर और लाभार्थी के बूते पर बी जे पी गठबंधन को बड़ी जीत हासिल नहीं हो सकती है । इसलिए बी जे पी की नज़र अति पिछड़े और अति दलित मतदाताओं पर टिकी है।यादव बनाम अति पिछड़ेः बिहार की राजनीति पर 1990 के बाद से ही पिछड़ों का दबदबा है। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव ने पिछड़ों के दम पर ही क़रीब 15 वर्षों तक राज किया।कुछ समय तक नीतीश कुमार भी उनके साथ थे। बाद में नीतीश ने अलग रास्ता पकड़ा और अति पिछड़ों तथा अति दलितों के साथ कुछ सवर्ण जातियों को बटोर कर एक नया समीकरण खड़ा कर दिया। इसे पिछड़ों की सबसे बड़ी और मज़बूत जाति, यादव के ख़िलाफ़ विद्रोह माना गया। नए समीकरण के साथ नीतीश कुमार लगभग 20 सालों से सत्ता में हैं। इस बीच वो बी जे पी और जे डी यू के साथ कई बार आते जाते रहे हैं। नीतीश विधान सभा का पिछला चुनाव बी जे पी के साथ जीत कर आए लेकिन महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की सरकार गिरने के बाद बी जे पी से उनका भरोसा टूट गया। उन्होंने बी जे पी के साथ अपनी ही सरकार गिरा कर जे डी यू के साथ फिर सरकार बना ली। पिछले दस सालों में बी जे पी ने भी पिछड़ों और अति पिछड़ों में अपनी पैठ बनाने की कोशिश की है। इसके अलावा जीतन राम माँझी जैसे अति दलित और उपेन्द्र कुसवाहा जैसे अति पिछड़े नेताओं को अपने पाले में कर रखा है। राम बिलास पासवान की मृत्यु के बाद एल जे पी दो टुकड़ों में बंट चुकी है लेकिन दोनों धड़े अब तक बी जे पी के साथ हैं। राजनीतिक विश्लेशकों का मानना है कि इस सब के वावजूद जे डी यू , आर जे डी और कांग्रेस गठबंधन का मुक़ाबला करना बी जे पी के लिए आसान नहीं है।
कर्पूरी ठाकुर के बहाने
बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी नेता कर्पूरी ठाकुर को अचानक " भारत रत्न" से नवाजने का फ़ैसला अनायास नहीं है। कर्पूरी ठाकुर निश्चित तौर पर एक बड़े स्वतंत्रता सेनानी थे और आज़ादी के बाद बिहार के सामंती समाज में पिछड़ों और ग़रीबों के अधिकारों के संघर्ष में उनका ज़बरदस्त योगदान था। इसलिए उन्हें "भारत रत्न" देकर केंद्र सरकार ने एक अच्छी पहल की है। लेकिन इसके पीछे छिपी राजनीतिक महत्वकांक्षा को नकारा नहीं जा सकता है। कर्पूरी ठाकुर अति पिछड़ा वर्ग के नाई समुदाय से थे। अति पिछड़ों और पिछड़ों पर उनका काफ़ी प्रभाव था। 1977 में मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने ही सबसे पहले पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण की व्यवस्था की थी। कक्षा 8 तक शिक्षा को मुफ़्त और खेती पर लिया जाने वाला टैक्स (मालगुज़ारी)माफ़ कर दिया था।बिहार में इस समय अति पिछड़ा और पिछड़ा वर्ग को लुभाने के लिए ज़बरदस्त संघर्ष चल रहा है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कुछ महीनों पहले जातीय जनगणना करा कर पिछड़ों को लुभाने के लिए पहली चाल चली। इसके बाद पिछड़ों के लिए आरक्षण को बढ़ा दिया गया। जातीय जनगणना की रिपोर्ट के मुताबिक़ बिहार में सबसे बड़ी आबादी 36 प्रतिशत अति पिछड़े वर्ग की और 27 प्रतिशत पिछड़े वर्ग की है। ज़ाहिर है कुल 63 प्रतिशत पिछड़े और अति पिछड़े मतदाता ही अगले चुनावों का भविष्य तय करेंगे। 22 जनवरी को एक साथ दो घटनाएँ हुईं। एक तरफ़ अयोध्या में राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा का भव्य समारोह हुआ तो दूसरी तरफ़ नीतीश कुमार ने बिहार में कर्पूरी ठाकुर के जन्म शताब्दी के अवसर पर भव्य समारोह का आयोजन किया। इस समारोह में नीतीश ने राजनीति में परिवार वाद का मुद्दा उठाया। माना ये गया कि नीतीश ने लालू और तेजस्वी यादव के परिवार पर अप्रत्यक्ष रूप से हमला किया। इसी समारोह के बाद चर्चा शुरू हुई कि नीतीश एक बार फिर बी जे पी के साथ जाने की तैयारी कर रहे हैं।
लाभार्थी पर कितना भरोसा
अयोध्या राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा के अलावे बी जे पी को बड़ा भरोसा केंद्र सरकार की विभिन्न योजनाओं के लाभार्थी वर्ग से है। पाँच किलो मुफ़्त राशन, किसानों को साल में छह हज़ार रुपए, मुफ़्त मकान और शौचालय जैसी योजनाओं के सबसे बड़े लाभार्थी पिछड़े, अति पिछड़े और दलित वर्ग से हैं। इन योजनाओं के चलते बी जे पी के समर्थक बढ़ने लगे थे लेकिन जाति जनगणना और आरक्षण बढ़ा कर नीतीश ने एक बड़ा दांव खेल दिया। इसकी काट निकालने के लिए बी जे पी परेशान थी। 2019 में पूर्व राष्ट्रपति और कांग्रेसी सरकार में मंत्री रहे प्रणव मुखर्जी को " भारत रत्न" देकर बी जे पी ने बंगाली मतदाताओं को लुभाने की कोशिश की थी। इसने बंगाल में बी जे पी को दूसरे नंबर की पार्टी बनाने में मदद की। कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न दे कर बी जे पी यही प्रयोग दोहराना चाहती हो तो कोई अचरज की बात नहीं होगी।
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