बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में असदउद्दीन ओवैसी की अध्यक्षता वाली पार्टी ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तिहादुल मुसलिमीन (एआईएमआईएम) के पांच सीट जीतने के बाद कई तरह की बहस जोर पकड़ने लगी हैं। दूसरी ओर, कांग्रेस पार्टी है जो उसे हुए वोटों के नुक़सान के लिए एआईएमआईएम को जिम्मेदार मानती है और ओवैसी को मिले वोट को वह रैडिकलाइजेशन के रूप में प्रस्तुत कर रही है।

ओवैसी की पार्टी पर वैसे हिन्दू विद्वान भी चिंता व्यक्त कर रहे हैं जो हिन्दुत्ववादी राजनीति के मोटे तौर पर आलोचक रहे हैं। वे इस बात को मानते हैं कि ओवैसी संविधान की बात करते हैं, कानून के राज की बात करते हैं लेकिन उनकी पार्टी ‘मुसलमानों की, मुसलमानों के लिए और मुसलमानों की राजनीति’ करती है, इसलिए वह साम्प्रदायिक है। लेकिन क्या किसी समुदाय की बात करना किसी पार्टी को साम्प्रदायिक बनाता है?
दूसरी तरफ मुसलमानों का एक ऐसा बुद्धिजीवी वर्ग है जो यह समझता है कि ओवैसी की राजनीति मुसलमानों के लिए घातक है। तीसरा वर्ग उन हिन्दू बुद्धिजीवियों का है, जो साम्प्रदायिकता के ख़िलाफ़ हैं और उन्हें लगता है कि ओवैसी की राजनीति से हिन्दुत्व को बढ़ावा मिलेगा।