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आरक्षण का समर्थन क्यों कर रहा है आरएसएस?

संघ की नीति में आरक्षण पर बदलाव स्थायी है या फिर बीजेपी की जीत के लिए एक राजनीतिक पहल, इसकी परख में अभी समय लगेगा क्योंकि संघ का सवर्ण नेतृत्व आसानी से इसे पचा नहीं पाएगा। सवर्णों का एक बड़ा वर्ग आरक्षण ख़त्म करने या फिर सिर्फ़ आर्थिक आधार पर आरक्षण देने का हिमायती है। 
शैलेश

क्या आरक्षण पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ यानी आरएसएस की नीति बदल रही है? संघ के संयुक्त महासचिव दत्तात्रेय होसबोले का ताज़ा बयान आरक्षण पर संघ के पुराने रुख में बदलाव का संकेत देता है। राजस्थान के पुष्कर में आयोजित संघ के अखिव भारतीय बैठक के बाद होसबोले ने प्रेस कॉन्फ़्रेंस में तीन महत्वपूर्ण बातें कहीं। पहला यह कि 'आरक्षण तब तक लागू रहना चाहिए जब तक इसके लाभार्थी महसूस करते हैं कि इसकी ज़रूरत है।' दूसरी बात इससे भी महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि संविधान में प्रदत्त आरक्षण का संघ पूरी तरह समर्थन करता है। होसबोले ने यह भी कहा कि 'हमारे समाज में सामाजिक और आर्थिक ग़ैर-बराबरी मौजूद है इसलिए आरक्षण की ज़रूरत है।' ये तीनों ही बातें संघ की अब तक घोषित नीति से बिल्कुल अलग हैं। 

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अभी अगस्त में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा था कि आरक्षण के समर्थकों और विरोधियों के बीच बातचीत होनी चाहिए। आरक्षण समर्थकों को आरक्षण विरोधियों के तर्कों और विरोधियों को समर्थकों के विचारों को ध्यान में रख कर बातचीत करनी चाहिए। संघ प्रमुख के इस बयान के बाद एक बार फिर चर्चा चल पड़ी की कि संघ आरक्षण को ख़त्म करना चाहता है। 

इसके पहले 2015 में संघ प्रमुख ने कहा था कि आरक्षण की समीक्षा होनी चाहिए। दलित और पिछड़े वर्गों के नेताओं ने इस बयान का जमकर विरोध किया था। इसके तुरंत बाद बिहार में विधानसभा के चुनाव हुए और आरक्षण भी एक बड़ी मुद्दा बना। नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव के गठबंधन ने बीजेपी को बुरी तरह पराजित कर दिया।

संघ प्रमुख के अगस्त के बयान के बाद चर्चा चल रही थी कि इसका असर महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड के चुनावों पर भी पड़ सकता है। आरक्षण समर्थक इसको मुद्दा बनाने की कोशिश में लगे हुए थे। अब संघ के संयुक्त महासचिव होसबोले का बयान संघ की पुरानी नीति में बदलाव का संकेत दे रहा है।

क्या आरक्षण पर संघ और बीजेपी की राय अलग?

पहले संघ का मानना था कि जब भी समाज के विभिन्न वर्गों के बीच सौहार्द्र की बात होती है तो आरक्षण को लेकर काफ़ी क्रिया-प्रतिक्रिया होती है। संघ प्रमुख भागवत इस मुद्दे को बार-बार उठाते रहे हैं। लेकिन चुनावी रणनीति के तहत बीजेपी आरक्षण का लगातार समर्थन करती आयी है। लोकसभा चुनावों के पहले आर्थिक आधार पर 10 फ़ीसदी आरक्षण की घोषणा करके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने सवर्ण ग़रीबों के ग़ुस्से को शांत कर दिया था। आरक्षण पर संघ और बीजेपी की राय हमेशा से अलग रही है। 

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बीजेपी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह का दबदबा बढ़ने के बाद से एक नया सोशल इंजीनियरिंग या सामाजिक समीकरण सामने आया। बीजेपी ने उत्तर प्रदेश, बिहार और हिंदी पट्टी के अन्य राज्यों में अति पिछड़ों और अति दलितों का एक नया समीकरण तैयार किया। इसके चलते पिछड़ों और दलितों के पारंपरिक नेतृत्व को कड़ी चुनौती मिली। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह-अखिलेश यादव के खेमे से अति पिछड़े ग़ायब होने लगे। इसी तरह मायावती का दलित आधार सिकुड़ गया। बिहार में नीतीश कुमार और लालू यादव के साथ आ जाने से 2015 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को झटका लगा, लेकिन 2019 के लोकसभा चुनावों में अति पिछड़ों के नेता नीतीश को फिर से अपने खेमे में लाकर बीजेपी ने लालू यादव-तेजस्वी यादव को हासिये पर पटक दिया। 

क्या जाति प्रथा का विरोधी है संघ?

दरअसल, आरक्षण दलितों और पिछड़ों के लिए जीवन-मृत्यु का सवाल बन चुका है। ऐसे में आरक्षण पर किसी भी तरह का तर्क-वितर्क बीजेपी को नुक़सान पहुँचा सकता है। संघ का सवर्ण नेतृत्व हमेशा ही आरक्षण विरोधी रहा है। हालाँकि संघ के नेता लगातार दावा करते रहे हैं कि संघ हिंदू समाज में व्याप्त छुआछूत और जाति प्रथा का विरोधी है। संघ सभी हिंदुओं के लिए बराबरी का दर्जा चाहता है। लेकिन संघ के नेता इस पर खुलकर नहीं बोलते। इसका कारण एक ही दिखायी देता है। संघ पर हावी सवर्ण इससे बिदकते हैं। हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड के विधानसभा चुनावों की रणनीति बनाने में जुटी ग़ैर-बीजेपी पार्टियाँ भी इसको लेकर सतर्क हैं। एक ख़बर यह है कि मायावती की बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस हरियाणा में मिलकर चुनाव लड़ सकती हैं। हरियाणा में आरक्षण को लेकर जाट पहले से नाराज़ चल रहे हैं। ऐसे में बीजेपी के सामने बड़ी चुनौती खड़ी हो सकती है।

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संघ की बैठक: आम्बेडकर की तसवीर क्यों?

पुष्कर में अखिल भारतीय स्वयं सेवक बैठक के दौरान नेताओं के कट-आउट में डॉ. आम्बेडकर को शामिल करके भी संघ ने संकेत देने की कोशिश की कि वह दलित हितों के साथ हैं। विवेकानंद, गुरुनानक हेडगेवार और गोलवलकर के साथ आम्बेडकर के कट-आउट शहर में दिखायी दिए। इस सम्मेलन में संघ के क़रीब 35 सहयोगी संगठनों के 200 प्रमुख नेता शामिल हुए। संघ की नीति में यह बदलाव स्थायी है या फिर बीजेपी की जीत के लिए एक राजनीतिक पहल, इसकी परख में अभी समय लगेगा क्योंकि संघ का सवर्ण नेतृत्व आसानी से इसे पचा नहीं पाएगा। सवर्णों का एक बड़ा वर्ग आरक्षण ख़त्म करने या फिर सिर्फ़ आर्थिक आधार पर आरक्षण देने का हिमायती है। संघ की बैठक में बीजेपी का पक्ष रखने के लिए कार्यकारी अध्यक्ष जे. पी. नड्डा मौजूद थे। होसबोले के बयान से बीजेपी को तात्कालिक राहत तो मिल ही गयी है।

नवोदय टाइम्स से साभार।
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