फ्रांस को लेकर दुनिया भर में जो कुछ हो रहा है, उसे कम से कम दो अलग वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। इसलामोफ़ोबिया से शुरू होकर सभ्यताओं के टकराव तक एक धारा जाती है। दूसरे, धर्मनिरपेक्षता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और धार्मिक भावनाओं के सिद्धांत और उनके अंतर्विरोध हैं। दोनों मसले घूम-फिरकर एक जगह पर मिलते भी हैं। इनकी वजह से जो सामाजिक ध्रुवीकरण हो रहा है, वह दुनिया को अपने बुनियादी मसलों से दूर ले जा रहा है।
तुर्की के राष्ट्रपति रजब तैय्यप अर्दोवान, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान और मलेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री महातिर मुहम्मद ने फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों पर मुसलमानों के दमन का आरोप लगाया है। दुनिया के मुसलमानों के मन में पहले से नाराज़गी भरी है, जो इन तीन महत्वपूर्ण राजनेताओं के बयानों के बाद फूट पड़ी है।
यह सब ऐसे दौर में हो रहा है, जब दुनिया के सामने महामारी का ख़तरा है। इसका मुक़ाबला करने की ज़िम्मेदारी विज्ञान ने ली है, धर्मों ने नहीं।
नया विमर्श
बहरहाल, 21वीं सदी के दूसरे दशक का विमर्श जिस मुकाम पर है, उसे लेकर हैरत होती है।
क्या मैक्रों वास्तव में मुसलमानों को घेरने, छेड़ने, सताने या उनका मजाक बनाने की साज़िश रच रहे है? या देश के बिगड़ते अंदरूनी हालात से बचने का रास्ता खोज रहे हैं या वह यह साबित करना चाहते हैं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बुनियादी तौर पर ज़रूरी है?
बेअदब आलोचना
सवाल यह भी है कि यह अभिव्यक्ति क्या कुरूप, विद्रूप और अभद्र होनी चाहिए? जवाब है कि कार्टून तो तसवीर का विरूपण ही होता है। उसका लक्ष्य ही भक्ति-भाव को ठेस पहुँचाने का होता है। सायास बेअदबी। बहरहाल इस विमर्श में भागीदारी मुसलमानों की भी होनी चाहिए। और यह काम मुसलिम देशों के भीतर होना चाहिए। कौन बाँधेगा घंटी?
मैक्रों ने कहा है कि फ़्रांस के अनुमानित 60 लाख मुसलमानों के एक छोटे तबक़े से ‘काउंटर-सोसाइटी’ पैदा होने का ख़तरा है। यानी ऐसा तबक़ा जो देश की मूल संस्कृति से अलग हो। बहरहाल सितंबर 2005 में डेनमार्क की एक पत्रिका ने जब कार्टूनों के प्रकाशन की घोषणा की थी, तभी समझ में आ गया था कि यह सोच-समझकर बर्र के छत्ते में हाथ डालने वाला काम है। अभी वह बहस शुरू नहीं हुई है, जिसका यह ट्रिगर पॉइंट है।
मैक्रों इसलाम को समझते हैं?
सबसे पहले इस सवाल का जवाब खोजें की मैक्रों क्या मुसलमानों का दमन चाहते हैं? मुसलमानों की संवेदनशीलता की क्या उन्हें समझ नहीं है? जैसा कि इमरान खान ने कहा है कि पश्चिमी देश इसलाम, पैग़ंबर और मुसलमानों के संबंध को नहीं समझ सकते। उनके पास वे किताबें नहीं हैं, जो हमारे पास हैं।
सब क्यों बदल रहा है?
पर इमरान ख़ान क्या उसी इसलाम की बात कर रहे हैं, जिसकी पहचान इल्म, इंसान-परस्ती और इंसाफ से होती है? क्या वे फ्रांस की संस्कृति को समझते हैं, करीब 60 लाख मुसलमान जहाँ के निवासी हैं?
क्या वजह है कि क़रीब 100 साल बाद अतातुर्क कमाल पाशा के तुर्की का रूपांतरण हो गया है? कट्टरपंथ ईसाईयत में भी है, पर यूरोप को इस बात का श्रेय जाता है कि उसने वैज्ञानिक क्रांति को होने दिया।
क्या फ्रांस में इसलामोफ़ोबिया उबाल पर है? देखें सत्य हिन्दी का यह संवाद।
फ़्रांसीसी संस्कृति
फ्रांसीसी मूल संस्कृति की अपनी कुछ विशेषताएं हैं। कई मायनों में यह देश यूरोप के बाकी देशों से भी कुछ हटकर है। धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था चीन में भी है। पर चीनी धर्मनिरपेक्षता के साथ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नत्थी नहीं है।
फ्रांस सरकार धर्मनिरपेक्षता से जुड़े कुछ क़ानूनी बदलाव करने जा रही है। इसके तहत बच्चों को स्कूल भेजने और संदेहास्पद धर्मस्थलों को बंद करने का विचार है। जाहिर है कि यह सब एकतरफा नहीं होगा। इसमें सामुदायिक भागीदारी की ज़रूरत भी होगी। फ्रांस में सन 1958 से लागू वर्तमान संविधान के अनुसार, “फ्रांस अविभाज्य, सेक्युलर, लोकतांत्रिक और सामाजिक गणतंत्र है, जो अपने नागरिकों को क़ानून के सामने बराबर मानता है, भले ही वे किसी भी नस्ल या धर्म से वास्ता रखते हों, और सभी धार्मिक मान्यताओं का सम्मान करता है।”
देश में 1905 में चर्च और राज्य को अलग करने का क़ानून लागू हुआ, जो धर्म को राज्य का विषय नहीं मानता। यानी सार्वजनिक रूप से राज्य धर्मनिरपेक्ष है। सेक्युलर सिद्धांतों को लागू करने की दिशा में 15 मार्च 2004 को एक और क़ानून पास किया गया, जिसके तहत स्कूलों में ऐसे परिधान नहीं पहने जा सकते, जिनसे किसी धर्म का प्रदर्शन होता हो।
संस्कृति पर हमला
फ्रांस का सांस्कृतिक महत्व है। जनवरी और नवंबर 2015 में वहाँ दो बड़े हत्याकांड हुए थे, तब ठीकरा इसलामिक स्टेट के सिर फूटा था। मुसलिम विद्वानों ने इसलामिक स्टेट के हमले को इसलाम विरोधी बताया। पर आज गर्दन काटने से ज़्यादा बातें धार्मिक अपमान पर केंद्रित हैं। नवंबर 2015 में हमलावरों ने उन जगहों को निशाना बनाया था, जहां सप्ताहांत में युवा जाते हैं। हमलावरों ने बाद में घोषणा भी की कि हमें इस ग़लीज संस्कृति से ही नफ़रत है।
पेरिसवासी कैफे, रेस्त्रांओं और बारों में जाकर खाने-पीने और गीत-संगीत के शौकीन हैं। पेरिस हत्याकांड में आतंकवादियों ने ख़ास तौर से ऐसी जगहों को निशाना बनाया था। मरने वालों में ज़्यादातर या तो खा-पी रहे थे या संगीत का आनन्द ले रहे थे।
जे सुई एंतेरेसे!
तीन दिन का शोक पूरा होने के बाद पेरिसवासियों ने ऐसी जगहों पर बड़ी संख्या में एकत्र होकर अपने प्रतिरोध को व्यक्त किया। वह भी आंदोलन था, ‘जे सुई एंतेरेसे’ (‘आय एम ऑन द कैफे टैरेस’)। उनका कहना था, आज हम टैरेस पर नहीं बैठेंगे तो कभी नहीं बैठ पाएंगे। यह हमारी जीवनशैली पर हमला है। हम जीना बंद नहीं करेंगे। मशहूर पेरिस ऑपेरा इस हमले के बाद बंद कर दिया गया था। वह भी खोल दिया गया।
‘शार्ली एब्दो’ पर हुए हमले के बाद आतंकवाद की निंदा करने के अलावा कुछ लोगों ने यह सवाल भी उठाया था कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमा क्या हो? क्या किसी की धार्मिक मान्यताओं को ठेस पहुँचाई जानी चाहिए? फ्री स्पीच के मायने क्या कुछ भी बोलने की स्वतंत्रता है? कार्टून और व्यंग्य को लेकर खासतौर से यह सवाल है।
अभिव्यक्ति की सीमा
यदि अभिव्यक्ति एबसल्यूट नहीं है, तो क्या आस्था असीमित है? धर्म-विरोधी विचारों को सामने आने का हक़ क्यों नहीं है? पेरिस की कार्टून पत्रिका ‘शार्ली एब्दो’ केवल इसलाम पर ही व्यंग्य नहीं करती है। उसके निशाने पर सभी धर्म हैं। उसका अंदाज़ बेहद तीखा है, पर सवाल दूसरा है।
धर्मों को व्यंग्य का विषय क्यों नहीं बनाया जा सकता? कार्टून का जवाब कार्टून है, पर चूंकि हम कार्टून नहीं बना सकते, इसलिए जवाब उस औज़ार से देंगे जिसका इस्तेमाल हम जानते हैं।
फ़िल्म निर्देशक की हत्या
हत्याएं कार्टूनकारों की ही नहीं हुईं हैं। लेखकों, कलाकारों की भी हुई हैं। साल 2004 में फिल्म निर्देशक थियो वैनगॉफ़ की हत्या की गई। उन्होंने सोमालिया में जन्मी लेखिका अयान हिर्सी अली के साथ मिलकर फिल्म ‘सब्मिशन’ बनाई थी। वे इसलामी दुनिया में स्त्रियों के प्रति किए जा रहे व्यवहार को लेकर आवाज़ उठा रहे थे। उनपर भी यही आरोप था कि वे मुसलमानों को उकसा रहे थे।
अभिव्यक्ति पर बंदिश लगाने वाले सामाजिक जीवन की समरसता तोड़ने और ध्रुवीकरण बढ़ाने में कामयाब होते हैं। वे मानते हैं कि धार्मिक मसलों पर किसी को कुछ भी कहने का अधिकार नहीं है। इससे वे एक की भावनाओं को भड़काते हैं और दूसरे को अपने से अलग साबित करते हैं। जब पूरा समुदाय कुंठित महसूस करता है, तब टकराव पैदा होता है। क्रिया की प्रतिक्रिया होती है।
कितनी स्वतंत्रता?
‘शार्ली एब्दो’ जैसी स्वतंत्रता क्या हम अपने कार्टूनिस्टों को दे सकते हैं? मक़बूल फ़िदा हुसैन को निर्वासन के लिए किसने मज़बूर किया? ‘शार्ली एब्दो’ के एक कार्टूनिस्ट जॉर्जेसवोलिंस्की यहूदी थे। इसरायली अखबार 'हारेट्ज़' में प्रकाशित लेख में वहाँ के कलाकार इदो अमीन ने लिखा कि ‘शार्ली एब्दो’ का प्रकाशन इज़रायल में सम्भव नहीं है, क्योंकि वहाँ के क़ानून धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने के ख़िलाफ़ हैं।
फ्रांस के क़ानून व्यक्तिगत रूप से लोगों को ‘हेट स्पीच’ के विरुद्ध संरक्षण देते हैं, पर वहाँ ईशनिंदा अपराध नहीं है। फ्रांस ने 1791 में इसे अपराध के दायरे से बाहर कर दिया था।
यूरोप का मानवाधिकार न्यायालय भी जिन मामलों पर सज़ा देता है, उन्हें भी फ्रांस में सज़ा नहीं दी जा सकती। फ्रांस की अदालत ने ‘शार्ली एब्दो’ को दोषी नहीं माना।
इसलाम की आलोचना
इस साल फरवरी में मिला नाम की एक लड़की का मामला सामने आया था, जिसने सोशल मीडिया पर एक लाइव वीडियो जारी करके इसलाम की आलोचना की थी। उसे जान से मारने की धमकियाँ मिलीं। राष्ट्रपति मैक्रों ने कहा कि हमारे यहाँ व्यक्ति को ईशनिंदा का अधिकार प्राप्त है।
वहाँ धर्म की आलोचना की जा सकती है, पर किसी व्यक्ति या समुदाय के प्रति नफ़रत फैलाने का अधिकार नहीं है। यानी कि वहाँ यह कहा जा सकता है कि ईसाईयत ख़राब है, पर यह नहीं कि ईसाई लोग ख़राब हैं। यह सैद्धांतिक बात है। व्यावहारिक सच यह है कि फ्रांस में भी यूरोप के दूसरे देशों की तरह नस्लीय भावनाएं हैं।
नॉर्वे का उदाहरण
साल 2011 में नॉर्वे के 32 वर्षीय नौजवान का एंडर्स बेहरिंग ब्रीविक ने एक सैरगाह में यूथ कैम्प पर गोलियाँ चलाकर तक़रीबन 80 लोगों की जान ले ली थी। नॉर्वे जैसे शांत देश में वह हिंसा हुई। पिछले साल मार्च में न्यूज़ीलैंड के क्राइस्टचर्च में एक हत्यारे ने दो मसजिदों पर हमला करके 50 से ज़्यादा लोगों की हत्या कर दी। ऐसी घटनाओं की प्रतिक्रिया होती है।
जो केवल कलम का इस्तेमाल करता है या ब्रश से अपनी बात कहता है उसका जवाब क्या बंदूक से दिया जाना चाहिए? यह बात केवल इसलामी कट्टरता से नहीं जुड़ी है। हर रंग की कट्टरता से जुड़ी है। ईसाई आतंकवादी भी दुनिया में हैं।
नव-नाज़ी भी हैं। क्या कट्टरपंथी हिन्दुत्व भी हिंसक नहीं है? क्या यह मध्य युग की वापसी है जब धार्मिक विचारों को लेकर बड़े-बड़े हत्याकांड हो रहे थे?
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प्रमोद जोशी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और समसामयिक विषयों पर लिखते रहते हैं। और पढ़ें »
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