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नेहरू से नरेंद्र तक प्रगति की बधाई!

आज कोरी गप्प नहीं लिख रहा। आँकड़े दे रहा हूँ। जिससे आप जान सकें कि भारत बैलगाड़ी युग से कहाँ तक आ गया है। पहले आम चुनाव में पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को चुनाव प्रचार के लिए 1612 किमी रेल से, 5682 किमी कार से 18348 किमी हवाई जहाज से और 90 किमी की यात्रा नाव से करना पड़ी थी। उस जमाने में नेहरू के भारत में इतना पैसा नहीं था कि इसरो के रॉकेट ढोने के लिए किसी ट्रक का इंतजाम किया जा सके, बेचारे वैज्ञानिक बैलगाड़ियों पर रॉकेट लांचर लादकर चलते थे। ये सब नेहरू की ग़लत नीतियों की वजह से हुआ, लेकिन आज परिदृश्य बदल चुका है। आज भारत के पास सब कुछ है।

चुनाव प्रचार के लिए प्रधानमंत्री को सेना का विमान किराये से नहीं लेना पड़ता। सीएजी उनके विमान खर्च का हिसाब नहीं ले सकता। भारत की असली प्रगति दरअसल 2014 से शुरू हुई। आज़ाद भारत के पहले प्रधानमंत्री ने अपनी आर्थिक नीतियों से भारत को इतना मजबूत बनाया कि हम अपने प्रधानमंत्री के लिए 8400 करोड़ रुपये का विमान खरीदने के लायक हो गए। नेहरू के पास ये सब कहाँ था?  भारत में बीते 76 साल में कांग्रेस के 8, भाजपा के 2, और जनता पार्टी, समाजवादी जनता पार्टी और इंडियन नेशनल कांग्रेस [आर] के एक-एक प्रधानमंत्री हुए लेकिन नरेंद्र मोदी को छोड़ किसी की हिम्मत नहीं हुई जो 8400 करोड़ रुपये का विमान प्रधानमंत्री के लिए खरीद सके।

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ये आलोचना का विषय नहीं है। ये प्रतिष्ठा का विषय है। हमें पीएम मोदी का अहसान मानना चाहिए कि उन्होंने अमृतकाल में सबसे महंगा विमान खरीदकर देश का मान बढ़ाया। मोदी के आलोचकों से मुझे बहुत चिढ़ है। वे खामखा पीएम मोदी से चिढ़ते हैं। कांग्रेस ने यानी इंदिरा गांधी ने भारत से गरीबी हटाओ का नारा दिया लेकिन गरीबी हटी नहीं बल्कि गरीबी बढ़ गयी। इंदिरा गांधी का बोया अब पीएम मोदी को काटना पड़ रहा है। गरीबी तो वे भी नहीं हटा पाए लेकिन बन्दा 80 करोड़ गरीबों को पांच किलो मुफ्त का अन्न देने की क्षमता तो रखता है। इतनी बड़ी चुनौती का सामना करते हुए अपने लिए 8400 करोड़ का विमान खरीदना और चंद्रयान -3 के लिए इसरो को 615 करोड़ रुपये देना कोई आसान काम नहीं है। मैं पूरे यक़ीन से कह सकता हूं कि यदि पीएम मोदी न होते तो इसरो को आज भी अपना चंद्रयान -3 चन्द्रमा तक पहुँचाने के लिए किसी बैलगाड़ी को किराये पर लेना पड़ता। कायदे से इस उपलब्धि के लिए पीएम मोदी को भारतरत्न देने की घोषणा हो जानी चाहिए।

नेहरू, गांधी तो बिना कुछ किये ही भारत रत्न का तमगा अपने गले में लटका चुके हैं। अटल बिहारी वाजपेयी को भी बहुत पापड़ बेलने पड़े थे भारतरत्न पाने के लिए। लेकिन पीएम मोदी ने सचमुच काम किया है। वे देश को 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनाने जा रहे हैं, लेकिन शर्त एक ही है कि देशवासी उन्हें तीसरी बार भी देश का प्रधानमंत्री बनाये। यदि देश ने किसी पदयात्री को ये मौक़ा दिया तो तय मानिये कि देश की अर्थव्यवस्था का भट्टा बैठ जाएगा। इस देश ने पहले भी तो नेहरू और इंदिरा गाँधी को तीन बार प्रधानमंत्री बनाने की गलती की है। एक बार एक गलती और सही। क्या फर्क पड़ता है किसी उत्साही को आजमाने में?

देश के तमाम प्रधानमंत्री ऐसे थे जिन्होंने दूसरे और तीसरे टर्म के लिए कोशिश ही नहीं की। या उन्हें मौक़ा नहीं मिला। लाल बहादुर शास्त्री हों, मोरारजी भाई देसाई हों, चौधरी चरण सिंह हों, राजीव गांधी, विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर, पीवी नरसिम्हा राव, देवगौड़ा, इंद्र कुमार गुजराल ऐसे ही प्रधानमंत्री थे। ये अपने लिए महंगा विमान कैसे खरीदते। अटल जी तीन बार और डॉ. मनमोहन सिंह दो बार प्रधानमंत्री बने भी तो इतना महंगा विमान खरीदने की हिम्मत नहीं जुटा पाए।
जिस देश में आधी आबादी मुफ्त के अन्न पर गुजर-बसर करती हो उस देश में 8400 करोड़ रुपये का विमान खरीदने की हिम्मत जुटाना कोई हंसी-खेल है?

मैं अपने प्रधानमंत्री की हिम्मत की हमेशा दाद देता हूँ। वे कम से कम इतनी हिम्मत तो रखते हैं कि ब्रिक्स सम्मेलन में जाएँ और यदि उनका स्वागत करने राष्ट्रपति न आये तो वे अपने महंगे विमान से नीचे नहीं उतरे। कम से कम दक्षिण अफ्रीका को महंगे विमान की इज्जत का तो ख्याल रखना चाहिए था। ये तो हमारे प्रधानमंत्री की दरियादिली है कि वे बाद में उपराष्ट्रपति से अपनी अगवानी कराने पर मान गए। दक्षिण अफ्रीका की हंसी न उड़े इसलिए उन्होंने दरियादिली दिखाई। अन्यथा दक्षिण अफ्रीका वाले तो शी जिनपिंग को भी परेशान करने से पीछे नहीं रहते। उन्होंने शी के अंग रक्षकों को रेड कार्पेट पर पांव नहीं रखने दिए। बेचारे शी के ऊपर क्या गुजरी होगी? उनके अंग बिना रक्षकों के कैसे सुरक्षित रहे होंगे?

हमारे प्रधानमंत्री जिस तरह राजनीति से ऊपर उठकर सबको साथ लेकर सबका विकास कर रहे हैं उसी तरह मान-अपमान से ऊपर उठकर विदेश यात्राएँ भी करते हैं। कभी कोई उनके पांव छूता है तो कभी कोई नहीं भी छूता। इससे क्या फर्क पड़ता है। प्रधान जी की दरियादिली के एक ढूंढो तो सौ उदाहरण मिल सकते हैं। प्रधानमंत्री की दरियादिली है कि जिस अमेरिका ने प्रधानमंत्री बनने से पहले उन्हें अमेरिका जाने के लिए वीजा तक नहीं दिया था उसी अमेरिका के उम्रदराज राष्ट्रपति के भारत दौरे के समय वे दिल्ली को चार दिन की छुट्टी पर भेज रहे हैं। अमेरिका ने तो कभी भारत के प्रधानमंत्री के लिए वाशिंगटन में चार दिन की तो छोड़िये एक दिन की भी छुट्टी घोषित नहीं की!

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मैं मानता हूँ तो आप भी मानें ये ज़रूरी नहीं। हमारे प्रधानमंत्री पक्के कर्मयोगी हैं। वीतरागी हैं। आपने देखा वे 24 में से 18 घंटे काम करते हैं। लगातार चुनाव प्रचार करते हैं। उद्घाटन, शिलान्यास करते हैं। ये सब विकास के लिए ही तो किया जाता है। आपने देखा हमारा मणिपुर तीन महीने से ज्यादा समय तक जला, (आज भी जल रहा है)  लेकिन प्रधानमंत्री जी एक दिन भी विचलित हुए! उन्होंने किसी से कुछ कहा? संसद में हंगामा होता रहा लेकिन उन्होंने अपनी मौन साधना भंग नहीं होने दी। वे बोले, लेकिन तब बोले जब उनका मन हुआ। वे अपने मन की सुनते हैं।

इस समय देश से ज़्यादा देश का विपक्ष प्रधानमंत्री से डरा हुआ है। विपक्ष को आशंका है कि प्रधानमंत्री कहीं आने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में चंद्रयान-3 की कामयाबी को उसी तरह न भुना लें जैसे वे पुलवामा को भुना चुके हैं। सवाल ये है कि प्रधानमंत्री को ऐसा क्यों नहीं करना चाहिए? उन्हें पूरा हक बनता है कि वे चंद्रयान-3 की कामयाबी को चुनावों में जितना चाहें भुनाएँ। वे आखिर देश के प्रधानमंत्री हैं। उन्हें यदि किसी भी घटना-दुर्घटना को भुनाना आता है तो किसी को आपत्ति क्यों? मुझे तो बिलकुल नहीं है। मैं तो चाहता हूँ कि चंद्रयान-3 की कामयाबी के बदले जितने ज्यादा से ज्यादा वोट प्रधानमंत्री को और उनकी पार्टी को मिल सकते हैं, ज़रूर मिलें। विपक्ष को इसका कोई हक नहीं है कि वो प्रधानमंत्री को चंद्रयान-3 की कामयाबी को भुनाने से रोके। विपक्ष का काम है सड़कें नापना सो शौक से नापे, किसी ने रोका है क्या? बहरहाल, प्रधानमंत्री को बहुत-बहुत बधाइयां ,शुभकामनाएं। 

(राकेश अचल के फ़ेसबुक पेज से)

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राकेश अचल
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