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गाँधी-150: स्वराज का मंत्र देने वाले ऋषि महात्मा गाँधी

गाँधी, जो एक आम व्यक्ति की ही तरह पैदा हुए और महात्मा बनकर हमारे बीच से गए। अपने जीवनकाल में उन्होंने अपने व्यक्तित्व का इस कदर विकास किया, अपने विचारों का प्रभाव इस कदर छोड़ा कि उन्हें विश्वव्यापी महापुरुष माना गया। आख़िर क्या था उस शख़्सियत में ऐसा?

गाँधी प्राचीन भारतीय ऋषि परम्परा के अभी तक के संभवतः अंतिम अवतार थे। ऋषि अर्थात मंत्रदृष्टा, जो अपने आसपास के समाज की स्थिति की कमियों का सम्यक आकलन कर विधायी और व्यावहारिक सुधार सुझाता हो। गाँधी ने भी अपनी जन्मस्थली गुजरात, अपनी व्यावसायिक भूमि ब्रिटेन तथा अपनी प्रयोगशाला दक्षिण अफ़्रीका के तत्कालीन समाज की समस्याओं का ठीक-ठीक आकलन कर अपनी मातृभूमि को ग़ुलामी की तत्कालीन समस्या से निजात पाने का सर्वाधिक कारगर उपाय भी बताया, ख़ुद भी उस उपाय पर चले और इन दोनों के कारण उत्पन्न नैतिक बल के चलते अन्य समानधर्मी महापुरुषों से अधिक लोकप्रिय भी हुए और अधिक सफल भी।  

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तो वह कौन सा मंत्र था जो गाँधी ने भारत को दिया? अपने दक्षिण अफ़्रीकी प्रवास में गाँधी ने ट्रांसवाल में जो टॉल्सटॉय फ़ॉर्म खोला उसमें उन्होंने सामूहिक जीवन के प्रयोग में पाया कि छोटी-छोटी  स्वशासित सहभागी इकाइयां स्वयमेव उच्चतर नैतिक आभा को प्राप्त हो जाती हैं, उनमें अदम्य साहस आ जाता है तथा वे कठिन से कठिन कार्यों को साधने में भी सक्षम बन जाती हैं। 

इसी सामूहिक शक्ति को गाँधी ने सत्याग्रह का रूप दिया क्योंकि युद्ध में विजय उसी की होती है जो अंत तक टिका रहे। अपनी पुस्तक हिन्द स्वराज में गाँधीजी ने उस मंत्र का नाम दिया ‘एन इंडिया ऑफ़ 7 लाख विलेज रिपब्लिक्स।’ व्यक्ति, परिवार, गाँव/मोहल्ला, क्षेत्र, राज्य, राष्ट्र, विश्व-सप्त सोपान, जिसमें हर इकाई को अपने व्याप्ति में निर्णय लेने की सम्पूर्ण इकाईगत स्वतंत्रता रहे। संक्षिप्त में स्वराज ही ऋषि गाँधी का दिया हुआ मंत्र है।

संयोगवश, दुर्भाग्यवश स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद गोडसे नामक मूर्ख व्यक्ति ने गाँधी नामक व्यक्ति के शरीर की हत्या कर दी। अवसरवादी राजनेताओं ने अपने फायदे के लिए गाँधी की एक अपूर्ण छवि समाज में फैला दी कि गाँधी के कारण ही देश अंग्रेजों की ग़ुलामी से आज़ाद हुआ। जबकि सत्य यह है कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वैश्विक स्थिति उपनिवेशवाद के अनुकूल नहीं रही। पड़ोसी श्रीलंका, इंडोनेशिया, चीन, अफ़ग़ानिस्तान आदि में कोई गाँधी नहीं हुआ, फिर भी ये देश 1940 के दशक में आज़ाद हो गए। 

दूसरी ध्यान देने लायक बात यह है कि 1857 से 1947 तक 13500 शहीदों ने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए अपनी कुर्बानी दी, इनके अलावा लाखों लोगों ने अलग-अलग तरीक़ों से संग्राम किया, जिनका स्वतंत्रता प्राप्ति की दिशा में अप्रतिम योगदान रहा। अर्थात केवल गाँधी को देश को आजादी दिलाने वाला महापुरुष वाला लेबल भ्रामक तो है ही तत्कालीन राजनेताओं की अपनी ब्रांड वैल्यू बढ़ाने की सोची-समझी लाभांश प्रदायिनी रणनीति भी।

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गाँधी के बारे में दूसरी भ्रान्ति अनजाने में उन लोगों ने फैलाई जो स्वतंत्रता के बाद भारत में राजनेता तो नहीं बने पर सामाजिक कार्यकर्ता बने रहे। इस समूह ने जनमानस में अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा बनाये रखने हेतु गाँधी को शांतिदूत, अहिंसा के प्रणेता, सादगी की प्रतिमूर्ति के रूप में प्रस्तुत किया। 

पहली बात यह कि गाँधी से बहुत पहले अहिंसा और सादगी पर सर्वप्रथम मौलिक विचार तथा तदनुरूप आचार 2500 वर्ष पूर्व भगवान महावीर दे चुके हैं। दूसरा यह कि अहिंसा की राह पर चलकर ईसा मसीह 2000 वर्ष पूर्व प्राण त्याग चुके हैं तथा सबसे मुख्य बात यह कि गाँधी की अहिंसा महावीर या ईसा की तरह विधायी न होकर एक आततायी शासन व्यवस्था से लड़ने का प्रासंगिक अचूक अस्त्र मात्र थी।

गाँधीजी ने बहुत पहले यह समझ लिया था कि लोकतंत्र के भी दो प्रकार होते हैं - सहभागी तथा प्रतिनिधि। पाश्चात्य देशों ने औद्योगिक क्रान्ति तथा रेनेसाँ के फलस्वरूप हुए मानव विस्थापन तथा आर्थिक ख़ुशहाली को पचाने हेतु लोकतांत्रिक जीवन शैली अपनायी। इन लोकतांत्रिक जीवन पद्धति वाले देशों में सहभागी लोकतंत्र स्थापित हुआ, जहां नागरिक दैनिक शासन में भागीदार बनता है, सत्ता विकेन्द्रित होती है, तानाशाही नहीं होती, न ही शासन के ओवरलोड के चलते अव्यवस्था। 

गाँधीजी का विकेन्द्रीकृत मॉडल

गाँधीजी ने ऐसा ही विकेन्द्रीकृत मॉडल सुझाया था, पर भारत समेत अधिकाँश पड़ोसी देश चूंकि गुलामी के चलते रेनेसाँ और औद्योगिक क्रान्ति से वंचित रहे, तो 20वीं सदी के उत्तरार्ध में यहां लोकतांत्रिक जीवन पद्धति के स्थान पर लोकतांत्रिक शासन पद्धति स्थापित हुई। इन देशों में प्रतिनिधि लोकतंत्र आया, जहां नागरिक केवल अपने अधिकारों को हस्तांतरित करता है, सत्ता केंद्रीकृत होती है, तानाशाही को खुला निमंत्रण रहता है, शासन के ओवरलोडिंग के चलते अराजकता अधिक होती है।  

यह भारत का दुर्भाग्य है कि गाँधीजी की मौलिक देन, जिसे उन्होंने लम्बे सफल प्रयोग के बाद तैयार किया, जो स्वतंत्र भारत का ब्लूप्रिंट उन्होंने दिया, उसको गाँधीजी के समकालीनों ने पूर्णतः ओझल कर दिया।
स्वराज कहिये या विकेन्द्रित व्यवस्था मानिये, ये गाँधीजी की आज़ाद भारत को वह देन थी, सहभागी लोकतंत्र की एक ऐसी व्यवस्था थी, जिसपर चलकर आज कई यूरोपीय देश विश्व के सबसे खुशहाल देश बन गए हैं। स्विट्जरलैंड के छोटे-छोटे कैंटोन राष्ट्रीय सरकार से अधिक शक्तिशाली हैं। स्केंडिनेविया के कई देशों में सहभागी लोकतंत्र इस कदर घर कर चुका है कि ये सब देश हर पैमानों पर विश्व के समृद्धतम मुल्कों में शुमार हैं।
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संक्षिप्त में, गाँधी न तो केवल स्वतंत्रता सेनानी थे, न महज अहिंसा और सादगी की प्रतिमूर्ति। गाँधीजी अर्वाचीन भारत के उच्च कोटि के एक ऐसे ऋषि थे जिन्होंने सम्पूर्ण समाज को एक नायाब व्यवस्था का मॉडल दिया, जिसमें हर व्यक्ति ताक़त और मजबूती में फर्क जान ले, कि ताक़त से शोषण पैदा होता है और मजबूती से स्वराज। 

आज 150 वर्ष बाद यदि भारत उस खोये हुए गाँधी को प्राप्त कर लेता है, सहभागी लोकतंत्र व्यवस्था की ओर मुड़ने का प्रयास करता है, तो स्वयं भारत का ही नहीं, अपितु विश्व का भी भला होगा, भारत स्वयमेव विश्वगुरु भी कहलायेगा। बाक़ी हम श्रद्धांजलि दें या न दें, गाँधीजी जैसे ऋषि तो अपनी  मौलिक कृति के चलते अपने जीवनकाल में ही मुक्ति प्राप्त कर चुके हैं।

(लेखक सिद्धार्थ शर्मा सम्प्रति गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान के सदस्य हैं तथा पूर्व में संस्था के सचिव भी रह चुके हैं।)

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