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नया संसद भवन : राष्ट्रपति का न होना ठीक, तो विपक्ष का बहिष्कार कैसे गलत?

बहस छिड़ी है। नये संसद भवन का उद्घाटन प्रधानमंत्री क्यों करे? प्रधानमंत्री नहीं तो कौन करे? राष्ट्रपति क्यों नहीं? कोई और भी उद्घाटन क्या कर सकते हैं? इन सवालों के आलोक में बहस का आधार पकड़ना जरूरी है। आधार संविधान देता है। संविधान में संसद का मतलब वर्णित है। संसद का मतलब राष्ट्रपति, दोनों सदन और सरकार होते हैं। 
निमंत्रण देने की भूमिका से हमने राष्ट्रपति को दूर रखा है। वे सम्मानित होते हैं और सम्मानित करते हैं। अगर नये संसद भवन के उद्घाटन समारोह का निमंत्रण देना हो तो कायदे से यह जिम्मेदारी किसकी होनी चाहिए? इस वक्त यह निमंत्रण लोकसभा के सेक्रेट्री जनरल की ओर से दिया जा रहा है जिनकी रिपोर्टिंग स्पीकर को होती है। 

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मेजबान क्यों बनें मेहमान?

नये लोकसभा भवन को बनाने का फैसला राजनीतिक नेतृत्व का फैसला था। मोदी सरकार ने यह फैसला लिया था। हजारों करोड़ रुपये का प्रबंधन भी सरकार ने किया था। ऐसे में मेजबान वास्तव में सरकार होती है। लिहाजा निमंत्रण देने का फैसला सरकार के मुखिया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का स्वयं होना चाहिए। 

जिन्हें मेजबान होना चाहिए, निमंत्रण देना चाहिए- वे मेहमान बन बैठे। अब वे नये संसद भवन का उद्घाटन करेंगे। इस फैसले का अंजाम यह हुआ कि राष्ट्रपति को निमंत्रण तक नहीं दिया जा सकेगा। प्रोटोकॉल इस निमंत्रण का विरोध करता है। राष्ट्रपति की मौजूदगी में प्रधानमंत्री नये संसद भवन का उद्घाटन कर ही नहीं सकते। यह प्रोटोकॉल स्वयं चीख-चीख कर कह रहा है कि नये संसद भवन का उद्घाटन प्रधानमंत्री से नहीं कराया जाना चाहिए।

प्रोटोकॉल क्या कहता हैः राष्ट्रपति को नये संसद भवन के समारोह से दूर रखने की असली वजह प्रोटोकॉल है। विपक्ष ने राष्ट्रपति के महिला होने या आदिवासी होने को इस समारोह के लिए उनकी पात्रता बताए, तो यह सिर्फ भावनात्मक बाते हैं। तार्किक नहीं है। राष्ट्रपति निमंत्रण नहीं देने के पीछे वजह उनका अपमान करना कतई नहीं है। मगर, अपमान तो हो रहा है!
संसद भवन सिर्फ ईंट-गारों की इमारत नहीं है। यह भारतीय लोकतंत्र की इमारत है जिसके अगुआ राष्ट्रपति हैं। राष्ट्रपति नियुक्त करते हैं प्रधानमंत्री को। भारतीय लोकतंत्र में चाहे जितना बड़ा जनादेश लेकर कोई पार्टी क्यों आ जाए, सरकार बनाने के लिए वे बाइ डिफॉल्ट योग्य नहीं होते। राष्ट्रपति जब कॉल लेते हैं तभी कोई पार्टी या पार्टी के सांसदों का निर्वाचित नेता प्रधानमंत्री की शपथ ले पाता है। पूरी मंत्रिपरिषद राष्ट्रपति की मर्जी से ही अस्तित्व में रहती है। यह संवैधानिक व्यवस्था है। ऐसे में नये संसद भवन के उद्घाटन समारोह से दूर रखना राष्ट्रपति का अपमान ही है। भले ही मोदी सरकार की ऐसी मंशा नहीं हो और यह प्रोटोकॉल की विवशता के कारण हो रहा हो।

निर्विवाद होना चाहिए था उद्घाटन

नये संसद भवन का उद्घाटन चाहे कोई भी व्यक्ति करें अगर सर्वसम्मति है, कोई विवाद नहीं है, कोई सवाल नहीं है- तो वह सही है। चूकि प्रधानमंत्री के हाथों नये संसद भवन के उद्घाटन का फैसला करते ही राष्ट्रपति समारोह से स्वत: बाहर हो जाते हैं इसलिए बाइ डिफॉल्ट यह फैसला गलत है। भारत का एक-एक नागरिक नये राष्ट्रपति भवन के उद्घाटन के लिए सर्वथा योग्य है। इस हिसाब से नरेंद्र मोदी भी योग्य हैं। मगर, प्रधानमंत्री होने की वजह से प्रोटोकॉल के कारण उन्हें उद्घाटन समारोह में राष्ट्रपति की मौजूदगी सुनिश्चित करने के लिए खुद को उद्घाटनकर्ता बनने से रोकना चाहिए था। 

राहुल ने उठाया था सबसे पहले मुद्दाः राहुल गांधी ने सबसे पहले आपत्ति रखी थी। राष्ट्रपति से नये संसद भवन के उद्घाटन का परामर्श रखा था। यह सर्वथा उचित सलाह थी। बाद में तृणमूल कांग्रेस और आम आदमी पार्टी भी इस विचार को आगे बढ़ाने लगी। अब 19 दलों ने फैसला किया है कि वह नये संसद भवन के उद्घाटन समारोह का बहिष्कार करेंगे। इस फैसले पर यह कहकर सवाल उठाए जा रहे हैं कि संसद भवन देश का है, सबका है। लिहाजा इसका बहिष्कार सही नहीं है। मगर, यही तर्क प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मांग भी रखता है कि वे उस संसद भवन के समारोह पर कब्जा न करें जो पूरे देश का है।

राष्ट्रपति अगर नये संसद भवन का उद्घाटन करतीं तो निश्चित रूप से समूचा देश एकजुट होकर इस समारोह में शरीक होता। विवाद की की गुंजाइश नहीं होती। प्रोटोकॉल के तहत प्रधानमंत्री को उनकी आवभगत में खड़ा रहना पड़ता। मगर, भागीदारी तो सुनिश्चित रहती। आज अगर देश के राष्ट्रपति ही जिस समारोह में उपस्थित नहीं हो सकते, वहां विपक्षी दल अनुपस्थित रहेंगे या उस समारोह का बहिष्कार करेंगे तो इसे गलत कैसे ठहराया जा सकता है?

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तर्क, व्यावहारिकता, नैतिकता, राजनीति हर आधार पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से नये संसद भवन का उद्घाटन कराया जाना चाहिए था। उनकी मौजूदगी के बगैर लोकतांत्रिक इतिहास का वह महत्वपूर्ण क्षण महत्वहीन होकर रह जाने वाला है। लोकतंत्र प्रेमियों के मन में यह काला दिन बनकर उनकी जेहन में उत्कीर्ण रहेगा। यह मसला सरकार का समर्थन और सरकार के विरोध का नहीं है। यह मसला सही और गलत का है। सही और गलत के साथ खड़े होने का है।

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क़मर वहीद नक़वी
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