‘अगर मदरसे के युवा भी ग्रेजुएट होकर नौकरी के क़ाबिल हो जाएँ तो इसमें क्या ऐतराज़ है?’ यह कितनी व्यावहारिक बुद्धि की बात है! मदरसा शिक्षा का आधुनिकीकरण कर उसमें पढ़ने वाले बच्चों को नौकरी पाने लायक बनाने की कोशिश जब 2007 में शुरू हुई तो मुसलमानों के बीच के ही कुछ लोगों ने उसका विरोध किया था। उसमें प्रमुख थे मौलाना असद मदनी, उनका ख़ानदान और ऑल इण्डिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड में क़ौम की इजारेदारी कर रहे उनके सहयोगी। उनका मानना था कि यह 'मदाख़लत फिद्दीन' यानी दीन (धर्म) में हस्तक्षेप है।
मोदी का असर, मदरसों के आधुनिकीकरण के लिये देवबंद तैयार
- विचार
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- 17 Sep, 2019

ख़बर पढ़ी कि जमीअत उलेमा ए हिंद के दोनों मौलाना मदनी मान गए हैं कि मदरसों की शिक्षा में आधुनिकीकरण होना चाहिए और इसके लिए एक कमेटी भी बना ली गयी है। पहले मदनी ख़ानदान और ऑल इण्डिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने न सिर्फ़ 'असरी-उलूम' का विरोध किया बल्कि सेंट्रल मदरसा बोर्ड भी बनने नहीं दिया। ज़िद से ज़िल्लत तक का ये सफ़र मासूम नौजवानों के मुस्तक़बिल की क़ीमत पर तय हुआ है।
उस वक़्त अर्जुन सिंह मानव संसाधन विकास मंत्री थे जो इन मदरसा ग्रेजुएट को मान्यता देने के लिए राज़ी हो गए थे और इस मुहिम को शुरू करने वाले जस्टिस एम. ए. एस. सिद्दीक़ी नए-नए बने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शिक्षा आयोग के चेयरमैन थे जो कि मुसलिम शिक्षा के केंद्रों में मुख्यधारा की तालीम को भी स्थान दिलाना चाहते थे। जस्टिस एम. ए. एस. सिद्दीक़ी की सलाह थी कि क्रिश्चियन धार्मिक संस्थानों की तरह मुसलमान भी तय कर लें कि मस्जिदों की संख्या के आधार पर उन्हें कितने इमाम, मुतवल्ली, मौलवी आदि चाहिए, इसके बाद बाक़ी के छात्रों को असरी-उलूम यानी मॉडर्न सब्जेक्ट में भी पढ़ाई करवा कर उन्हें नौकरी के बाजार के लायक बनाया जाना चाहिए। इसी के साथ लड़कियों की तालीम पर तवज्जो दें और मुसलमान समाज के संसाधन लड़कियों की तालीम पर भी खर्च हों।
लेखिका भारत सरकार के मॉडर्नाइजेशन ऑफ़ मदरसा एजुकेशन प्रोग्राम 2000 से को-ऑर्डिनेटर के तौर पर औपचारिक रूप से जुड़ी रही हैं और इस विषय पर उन्होंने लगातार लिख-बोल कर मुहिम चलाई है।