पिछले दिनों जब मैंने दंगा प्रभावित इलाक़ों का दौरा किया तो मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मैं किसी युद्ध क्षेत्र में आ गया हूँ। दुकान और मकान जले हुए थे और इलाक़े की हर गली का यही हाल था। यह भयावह था। संपत्ति को नये सिरे से खड़ा किया जा सकता है लेकिन क्या ज़िंदगी भी फिर से सँवारी जा सकती है? इन दंगों में 50 से ज़्यादा लोग मारे गए। इनका कोई कसूर नहीं था। इनको नफ़रत ने लील लिया। माता-पिता की सोच से बच्चे ताउम्र के लिए मानसिक पीड़ा से परेशान रहेंगे। यह न्याय है या अन्याय? क्या आर्थिक मदद इन माता-पिता और बच्चों की तकलीफ और पीड़ा को दूर कर पाएगी? और क्या इन्हें सिर्फ़ इतना ही दिया जा सकता है? जब मैं शिव विहार और दूसरे इलाक़ों से गुज़र रहा था तब यही सवाल मेरे दिमाग़ में गूँज रहे थे।
दिल्ली दंगा- 4 हफ़्ते में एफ़आईआर, क्या यह न्याय है: जस्टिस लोकुर
- विचार
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- 7 Mar, 2020

दिल्ली में ताक़तवर लोगों द्वारा भड़काऊ भाषण और नारे, जो हो सकता है कि राजद्रोह की श्रेणी में न आए, लेकिन उन्हें निश्चित तौर पर नफ़रती बयान कहा जा सकता है और ऐसे मामलों में पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। जबकि दूसरी तरफ़ कमज़ोर लोगों पर राजद्रोह का आरोप लगाकर उनको सलाखों के पीछे कर दिया गया। जिनको राजद्रोही बताया गया वे दरअसल पानी के बुलबुले से ज़्यादा कुछ नहीं थे।
ईदगाह की बर्बादी को देखकर मन अवसाद से भर गया। ईदगाह में राहत शिविर लगे हुए थे और मुझे बताया गया कि वहाँ लगभग हज़ार लोग रह रहे थे। भले इंसानों ने और संगठनों ने इन पीड़ितों को कंबल, खाना, दरी, दवा और जो कुछ भी मदद हो सकती थी वो देने का प्रयास किया। वहाँ एक मीडिया सेक्शन भी था जहाँ दंगा पीड़ित अपनी कहानी बयाँ कर रहे थे। उम्मीद करता हूँ कि जब प्रशासन अपने आप को व्यवस्थित कर पाएगा तो उनकी आपबीती का इस्तेमाल जाँच में किया जा सकेगा। वहाँ मैंने एक चीज ग़ौर की कि जो कुछ भी राहत का काम चल रहा था उसे तमाम ग़ैर-सरकारी संगठन और आम नागरिक कर रहे थे। कल्याणकारी सरकार वहाँ नहीं थी।