पिछले दिनों जब मैंने दंगा प्रभावित इलाक़ों का दौरा किया तो मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मैं किसी युद्ध क्षेत्र में आ गया हूँ। दुकान और मकान जले हुए थे और इलाक़े की हर गली का यही हाल था। यह भयावह था। संपत्ति को नये सिरे से खड़ा किया जा सकता है लेकिन क्या ज़िंदगी भी फिर से सँवारी जा सकती है? इन दंगों में 50 से ज़्यादा लोग मारे गए। इनका कोई कसूर नहीं था। इनको नफ़रत ने लील लिया। माता-पिता की सोच से बच्चे ताउम्र के लिए मानसिक पीड़ा से परेशान रहेंगे। यह न्याय है या अन्याय? क्या आर्थिक मदद इन माता-पिता और बच्चों की तकलीफ और पीड़ा को दूर कर पाएगी? और क्या इन्हें सिर्फ़ इतना ही दिया जा सकता है? जब मैं शिव विहार और दूसरे इलाक़ों से गुज़र रहा था तब यही सवाल मेरे दिमाग़ में गूँज रहे थे।