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क्या पश्चिम एशिया में सिर्फ़ इतिहास दोहराया जा रहा है या वह बदलेगा भी?

हमें इज़रायल की उन चालों को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए जो वह खुद को मज़बूत करने के नाम पर कर रहा है। 1948 में उसे जो ज़मीन दी गई थी, वह मौजूदा इज़रायल का एक तिहाई भी नहीं थी। लेकिन अपनी विस्तारवादी और युद्ध नीतियों के बल पर उसने फ़लिस्तीनियों के लिए ग़ाज़ा पट्टी और वेस्ट बैंक में एक छोटा सा टुकड़ा छोड़ा है। उस पर भी उसकी नज़रें लगी हुई हैं।
मुकेश कुमार

जो लोग फ़लिस्तीनियों के स्वतंत्र राष्ट्र के संघर्ष में दिलचस्पी रखते हैं और उस पर नज़र रखे हुए हैं, उन्हें लग रहा होगा कि जैसे पश्चिम एशिया में एक बार फिर से इतिहास दोहराया जा रहा है। एक बार फिर इज़रायलियों द्वारा फ़लिस्तीनियों से उनकी ज़मीन, उनका हक़ छीनने की कोशिशें हो रही हैं, विरोध करने पर उन पर ज़ुल्म ढाए जा रहे हैं, चरमपंथी संगठन हमास हिंसा से उसका जवाब देने की कोशिश कर रहा है और उसे कुचलने के लिए इज़रायल अपनी सैन्य ताक़त का इस्तेमाल कर रहा है। 

केवल यही नहीं, और भी चीज़ों का दोहराव देखा जा सकता है। इसमें सबसे प्रमुख है अंतरराष्ट्रीय बिरादरी का उदासीन रवैया, जिसमें इज़रायल की पीठ पर हाथ रखने वाले अमेरिका और पिछलग्गू देश भी हैं और अरब तथा इसलामी देश भी। 

अरब मुल्कों का रवैया पिछले कुछ वर्षों में तो काफी बदल चुका है। फ़लिस्तीनी ही कहते हैं कि उन्होंने धोखा दिया है, पीठ पर छुरा घोंप दिया है। अरब लीग और ओआईसी जो कोशिशें कर रहे हैं, वे मदद करने के बजाय अपनी इज्ज़त बचाने का उपक्रम ज़्यादा हैं।

संयुक्त राष्ट्र की भूमिका पर सवाल

जहाँ तक संयुक्त राष्ट्र की बात है तो वह एक असहाय संस्था है। वह केवल निंदा-भर्त्सना के प्रस्ताव पारित करती है, इससे आगे जाकर कुछ करने की हैसियत उसकी नहीं रह गई है। उसके पुराने प्रस्ताव ही धूल खा रहे हैं, इसलिए अगर वह कोई प्रस्ताव पारित भी कर दे तो उससे कुछ नहीं होने वाला। 

इज़रायल को सबक सिखाने के लिए जिस संकल्प की ज़रूरत है, वह साम्राज्यवादी ताक़तों के आर्थिक स्वार्थों और यहूदी लॉबी के सामने कभी आकार ही नहीं ले पाता। इस बार भी ऐसा होता दिख रहा है।

कुछ चीज़ें बदली भी हैं। समाजवादी देशों के पतन और गुट निरपेक्ष आंदोलन के प्रभावहीन होने के बाद जिस अंतरराष्ट्रीय राजनीति ने आकार लिया है, उसने फ़लिस्तीन का मुद्दा और भी कमजोर कर दिया है। संकुचित राष्ट्रीय स्वार्थों की दलीलों से उन देशों ने भी फ़लिस्तीनी संघर्ष से मुँह मोड़ लिया है जो उसके पैरोकार बनते थे। 

यहाँ तक कि इंसानियत और इंसाफ़ के नाम पर दिखाई जाने वाली सामान्य हमदर्दी भी गायब हो गई है। वे सब इज़रायल के साथ संबंध बनाने में जुटे हुए हैं। इनमें भारत जैसे देश भी हैं, जहाँ दक्षिणपंथी, मुसलिम विरोधी राजनीति प्रबल हुई है और उसने विदेश नीति को ही उलटकर रख दिया है। उसके लिए ये सुखद है कि फ़लिस्तीनियों पर अत्याचार किए जाएं और वे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए उसका लाभ उठाएं।

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भारत की प्रतिक्रिया 

वर्तमान संघर्ष पर भारतीय विदेश मंत्रालय की प्रतिक्रिया में इसे पढ़ा जा सकता है। इसमें कहा गया है कि वह हिंसा के ख़िलाफ़ है मगर हमास द्वारा दागे जा रहे रॉकेटों के ज़्यादा ख़िलाफ़ है। ये बहुत ही बेतुका बयान है क्योंकि हम जानते हैं कि हमास और इज़रायल की ताक़त में क्या अंतर है और हमास अगर एक कंकड़ फेंकता है तो इज़रायल लड़ाकू विमानों से बमबारी शुरू कर देता है। 

इज़रायल का रवैया 

मौजूदा हिंसा में भी फ़लिस्तीनियों के मुक़ाबले पाँच फ़ीसदी इज़रायली भी नहीं मारे गए हैं। यानी ये लड़ाई एकतरफा है। इसमें संदेह नहीं कि हमास की हिंसक गतिविधि फ़लिस्तीनियों के संघर्ष पर उलटी पड़ती हैं, मगर यदि वास्तव में देखा जाए तो अपने रवैये की वज़ह से इज़रायल भी आतंकवादी देश ही है। उसे न संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों की चिंता रहती है, न ही वह अंतरराष्ट्रीय बिरादरी की कोई परवाह करता है। 

Israel palestine conflict 2021 in west asia - Satya Hindi
हमेशा की तरह एक बार फिर से इतिहास को तोड़-मरोड़कर या अधूरे तथ्यों के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है। अधिकांश लोग 1948 में इज़रायल बनाए जाने और उसे अरब मुल्कों द्वारा स्वीकार न किए जाने के बाद से देखते हैं। वे इससे आँखें मूँद लेते हैं कि अमेरिका और ब्रिटेन जैसी औपनिवेशिक शक्तियों ने मनमाने ढंग से फ़लिस्तीनी ज़मीन पर इज़रायल को जन्म दिया था। इसमें यूरोप का वह अपराधबोध भी शामिल था, जो हिटलर के जर्मनी द्वारा यहूदियों पर ढाए गए अत्याचारों की वज़ह से पैदा हुआ था। 
हिटलर के हाथों यहूदियों ने जो कुछ भुगता उसकी वज़ह से विश्व समुदाय की भी उनके प्रति हमदर्दी थी। मगर इसकी क्षतिपूर्ति के लिए फ़लिस्तीन का बँटवारा करना कहाँ तक तर्कसंगत था?

मूल निवासी होने का तर्क

ये तर्क सुनने में तो सही लगता है कि यहूदी येरूशलम और उसके आसपास के मूल निवासी थे, वहां उनका सबसे प्रमुख धर्मस्थल है इसलिए उनका मुल्क वहाँ होना चाहिए था। लेकिन अगर इस तर्क से चलेंगे तो इतिहास को सुधारने के लिए पता नहीं कितने परिवर्तन करने पड़ेंगे। हज़ारों ऐसे जातीय समूह होंगे जो विभिन्न वज़हों से अपने मूल स्थानों से विस्थापित हुए हैं तो क्या सबको फिर से वहीं ले जाकर बसाया जाएगा? मसलन, क्या भारत से अलग करके एक बौद्धिस्तान बनाया जाना चाहिए, क्योंकि वे भी यहाँ से खदेड़कर भगाए गए थे?

हक़ीक़त तो ये है कि दुनिया भर से यहूदी पलायन करके फ़लिस्तीन में आकर रह रहे थे। जर्मनी में अत्याचार के बाद बड़ी तादाद में यहूदियों ने वहाँ शरण ली थी और इसका विरोध भी नहीं हुआ था। एक सामान्य प्रक्रिया में वे फ़लिस्तीनियों के साथ रह सकते थे। मगर औपनिवेशिक ताक़तों को पेट्रोलियम और रणनीतिक कारणों से मध्य-पूर्व को अपने नियंत्रण में रखना था इसलिए भी फ़लिस्तीन के बँटवारे का खेल खेला गया। इस खेल ने दुनिया के जिस्म पर एक नासूर पैदा कर दिया जो लगातार रिसे जा रहा है। 

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इज़रायल की विस्तारवादी नीति

हमें इज़रायल की उन चालों को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए जो वह खुद को मज़बूत करने के नाम पर कर रहा है। 1948 में उसे जो ज़मीन दी गई थी, वह मौजूदा इज़रायल का एक तिहाई भी नहीं थी। लेकिन अपनी विस्तारवादी और युद्ध नीतियों के बल पर उसने फ़लिस्तीनियों के लिए ग़ाज़ा पट्टी और वेस्ट बैंक में एक छोटा सा टुकड़ा छोड़ा है। उस पर भी उसकी नज़रें लगी हुई हैं। वह वहाँ पर यहूदियों को बसाकर कब्ज़ा करने की फ़िराक़ में है। ध्यान रहे कि संयुक्त राष्ट्र ने उसके अवैध कब्ज़े को मान्यता नहीं दी है और न ही फ़लिस्तीनी इलाक़ों में यहूदियों को बसाने के कार्यक्रम को।  

अल अक़्सा मसजिद में झड़प

मौजूदा झगड़ा अल अक़्सा मसजिद में इज़रायली पुलिस की ज़्यादतियों, उसके जवाब में हुई पत्थरबाज़ी से शुरू हुआ था। हालाँकि इसकी जड़ में बड़ी वज़ह ये है कि यहूदियों ने वहाँ से फ़लिस्तीनियों को भगाने का अभियान चला रखा है। कई यहूदियों ने अदालतों मे वहाँ की कई संपत्तियों को लेकर झूठे-सच्चे मामले दायर कर रखे हैं, ताकि ज़माने से रह रहे फ़लिस्तीनियों को वहाँ से निकाला जा सके। 

एक तीसरी वज़ह ये मानी जाती है कि इज़रायल अपने धार्मिक स्थल टेंपल माउंट के लिए अल अक़्सा मस्जिद को ध्वस्त करना चाहता है। उसका मानना है कि मसजिद का निर्माण उसके धार्मिक स्थल को तोड़कर किया गया था। ये कमोबेश अयोध्या जैसा मामला है।

राजनीतिक वजह 

चौथी वज़ह राजनीतिक है। अतिराष्ट्रवादी बैंजामिन नेतान्याहू की सत्ता डाँवाडोल है। पिछले चार साल में वहाँ चार बार चुनाव हो चुके हैं, मगर उन्हें पूर्ण बहुमत नहीं मिल पा रहा है। इसे हासिल करने के लिए उन्होंने उग्र तेवर अपनाए हैं। अभी तक वे ऐसा करके ही अपनी कुर्सी बचाए रख पाए हैं। फिर उन पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप भी हैं, जिनकी वज़ह से वे मुश्किल में हैं और और इनसे वे लोगों का ध्यान हटाना चाहते हैं। 

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समझौतों की कोशिश नाकाम 

लेकिन इज़रायल का राजनीतिक संकट ये भी दिखाता है कि यहूदी बँटे हुए हैं, वे पूरी तरह से अँधराष्ट्रवादियों के साथ नहीं हैं और सुरक्षित वातावरण में अमन के साथ रहना चाहते हैं। वे समाधान चाहते हैं, लेकिन राजनीतिक गतिरोध उस ओर बढ़ने नहीं दे रहा। अतीत में कई बार समझौतों की स्थितियाँ बनीं, मगर कट्टरपंथियों ने उसे अंजाम तक नहीं पहुँचने दिया। बेशक़ इसमें फ़लिस्तीनियों के कट्टरपंथी धड़े की भूमिका रही है।

फ़लिस्तीनियों का चौथा इंतिफादा यानी चौथा विद्रोह स्थितियों को उलट देगा इसकी संभावना फिलहाल नहीं दिख रही है। हो सकता है कि अगले पचास-सौ-हज़ार वर्षों तक ये संभावना न बने। लेकिन फ़लिस्तीन लड़ रहे हैं उस अन्याय के विरुद्ध जो उनके साथ किया गया और उस अत्याचार के ख़िलाफ़ जो उन पर पिछले तिहत्तर साल से ढाए जा रहे हैं। लेकिन क्या पता भविष्य के किसी मोड़ पर परिस्थितियाँ उनके अनुकूल हों जाएं और उन्हें देश मिल जाए। आमीन।  

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