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भारतीय संस्कृति का गौरवगान करने वालों को इसका कितना ज्ञान?

1.

हम भारत और भारतीय संस्कृति की गौरवगाथा की बात तो करते हैं। मगर भारतीय संस्कृति क्या है! परंपरा क्या है! इसकी क्या कोई एक धारा है या अनेक धाराएँ हैं, इसपर कभी गौर करते हैं!

2.

मुख्य रूप से भारतीय संस्कृति और परंपरा की तीन धाराएँ हैं: एक ब्राह्मण संस्कृति व परंपरा, दूसरी श्रमण संस्कृति व परंपरा और तीसरी लोकायत संस्कृति व परंपरा।

3.

इसे देखने की दो दृष्टि है: एक समन्वयवादी और दूसरी पृथकतावादी दृष्टि। वेद से लेकर आज तक के भारतीय साहित्य में इनमें टकराव और समन्वय देख सकते हैं। 

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पतंजलि की मानें तो ब्राह्मण और श्रमण संस्कृति में  विरोध मार्जार और मूषक जैसा है। यह और बात है कि श्रम के महत्व को लेकर दोनों में समानता भी नज़र आती है।

5.

ब्राह्मण संस्कृति का आधार है- श्रम। आश्रम व्यवस्था में श्रम की प्रतिष्ठा है। आश्रम का अर्थ है- जहाँ श्रम से व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास होता है। 

6.

डॉ. रामजी उपाध्याय की पुस्तक है- भारतस्य सांस्कृतिकनिधि: यह गाँधी विश्व परिषद, ढाना (सागर) 1958, पृ. 44 पर प्रकाशित है:

आ समन्तात् श्रमोऽत्रेत्याश्रमशब्दस्य व्याख्या। 

आश्रममाध्येन जीवनपर्यंतमधिकारिकाधिक: श्रम: क्रिया।

7.

हिस्ट्री ऑफ ब्राह्मणिकल ऐसेटिसिज्म, पूना ओरियंटल सीरिज, नं.64, 1939, पृ. 14 पर विण्टरनीत्स ने अध्ययन करके लिखा है कि जिस श्रम धातु से श्रमण बना है, उसी से आश्रम भी बना है। आरंभ में आश्रम शायद श्रमणों का धार्मिक कृत्य का सूचक रहा होगा।

8.

गौरतलब है कि विष्णुसहस्रनाम में विष्णु के वाचक शब्दों में आश्रम के साथ श्रमण शब्द का प्रयोग को गौर करना चाहिए:

आश्रम: श्रमण: क्षमा: सुवर्णा वायुवाहन: ।। विष्णुसहस्रनाम, 104.

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महर्षि मेंही दास परमहंस महाराज जी अपने दैनिक स्तुति प्रार्थना में कहते हैं कि शांति को जो प्राप्त कर लेते हैं, संत कहलाते हैं और बहुत से विद्वान कहते हैं कि श्रमण प्राकृत भाषा के समण से बना है। इसका अर्थ होता है कि अपनी वृत्तियों को शांत करने वाला। समन माने सभी प्राणियों पर समानता का भाव रखने वाला भी होता है। उत्तराध्ययन (25/31) समयाए समणो होई- यानी समभाव से समण होता है। धम्मपद, 19/10 में कहा गया है कि

यो च समेति पापानि अणुं थूलानि सव्वसो। 

समितत्ता हि पापानं समणो ति पवुच्चति।। 

अर्थात जो पापों का पूर्णरूपेण शमन करता है, वह पापों का शमन करने के कारण समण है। 

धम्मपद (26/6) में यह भी कहा गया है कि समचरिया समणो ति वुच्चति। यानी समता की प्रवृत्ति को समण कहते हैं। 

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भारतीय संस्कृति में श्रमणत्व व्यापक है। प्राकृत्य में समण, मागधी में शमण, पालि में समण, संस्कृत में श्रमण, अपभ्रंश में सवणु, कन्नड़ में श्रमण तमिल में अमण, हिंदी में सवन, यूनानी में सरमनाई और चीनी में श्रमणेर शब्दों को आप देख सकते हैं। इसका संपूर्ण व्योरा भारतीय संस्कृति और श्रमण परंपरा नामक पुस्तक में डॉ. हरीन्द्र भूषण जैन ने प्रस्तुत किया है। यह छोटी सी किताब वीर- निर्वाण भारती मेरठ (यूपी) में 1974 में प्रकाशित हुई थी। 

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जैन और बौद्ध श्रमण संस्कृति और परंपरा में आते हैं। श्रमण संस्कृति का सार यही है कि दुखों से संपूर्ण मुक्ति चाहते हो, तो श्रमण धर्म धारण करो।

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जैसे हमें दुख अच्छा नहीं लगता है, ऐसे ही सभी जीवों को भी दुख अच्छा नहीं लगता है। यही सोचकर वह खुद न किसी को मारता है और न किसी को मारने की प्रेरणा देता है। इसी समता- समत्व भाव की वजह से मनुष्य श्रमण पद को प्राप्त करता है। 

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सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य का जैन श्रमणों के प्रति बेहद आकर्षण था। मेगस्थनीज लिखते हैं कि इन भारतीयों के दो संप्रदाय हैं- एक सरमनाई और दूसरे ब्राचमनाई यानी ब्राह्मण। वे नगरों और घरों में नहीं रहते हैं। विवाह नहीं करते। खुद को वृक्षों के छाल से ढंकते हैं और हाथों से पानी पीते हैं। 

14.

मौलाना सुलेमान नदवी कृत अरब भारत के संबंध, पल. 176 में लिखते हैं कि संसार में पहले दो ही धर्म थे- एक समनियन और दूसरा कैल्डियन। पूरब वाले समनियन और खुरसान वाले शमनान और शमन कहते हैं। 

15.

चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी श्रमणेरस् नाम से श्रमण की चर्चा की है। सेमुअल बील रचित पुस्तक- ट्रेवल्स ऑफ ह्वेनसांग, खंड-2, पृ. 285.

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भारतीय दर्शन की दो मुख्य शाखाएँ हैं- आस्तिक और नास्तिक। आस्तिक वह, जिनकी आस्था वेद में है और नास्तिक वह जिनकी आस्था वेद में नहीं है। 

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जिनकी आस्था वेद में नहीं है, वहाँ से लोकायत संस्कृति निकलती है। चार्वाक लोकायत संस्कृति के जनक हैं। दुख इनको भी अच्छा नहीं लगता है और वे सांसारिक भौतिक सुखों की बात करते हैं।

18.

भारतीय संस्कृति की सभी धाराओं को देखें, तो दुख नहीं चाहिए, दुखों से मुक्ति चाहिये। दुख रहित सुख, मृत्यु रहित जीवन और संदेह रहित ज्ञान। यही नचिकेता को भी चाहिये था, जो कि ब्राह्मण संस्कृति और परंपरा के थे।

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एक दृष्टि से विरोध और दूसरी दृष्टि से समन्वय भी देखा जा सकता है।

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डाॅ. ओमप्रकाश सामबे
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