रात 9 बजे का समय, हावड़ा स्टेशन पर यात्रियों की भीड़। एक कुली, एक यात्री के सामान को लेकर उस यात्री को स्टेशन पर लगी कुर्सियों पर बिठाने की कोशिश कर रहा था। लेकिन रास्ते में एक बंगाली महिला प्लास्टिक बिछा कर अपने बच्चों और परिवार के दूसरे सदस्यों के साथ डेरा जमाए हुए थी। कुली और यात्री को कुर्सी तक पहुँचने में परेशानी हो रही थी। परेशान होकर कुली ने उस बंगाली महिला की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘इन लोगों के बाप का बंगाल है। जहाँ देखो, वहाँ डेरा जमा लेती हैं। भद्र यात्रियों को परेशान करती हैं।’ यह सुनते ही उस बंगाली महिला ने कुली को माँ की गाली देते हुए कहा, ‘हम लोग क्या बिहार जाते हैं। ये हमारा बंगाल है। हम यहीं पैदा हुए हैं। यहीं मरेंगे। तुम यहाँ मरने क्यों आते हो।’ यह सुनकर कुली ने कहा - हम लोग नहीं आएँगे, तो बंगाल मर जाएगा। बंगाल जिंदा है, हमारी वजह से।
ऐसा था उस दिन का हावड़ा स्टेशन का नज़ारा। दिन था 23 मई का और उसी दिन चुनाव के नतीजे घोषित हुए थे। तृणमूल को 2014 जैसी जीत नहीं मिली और बीजेपी को बड़ी जीत मिली। बंगाली महिला भी श्रमिक वर्ग की और कुली भी श्रमिक वर्ग का। श्रमिक वर्ग के दो सदस्यों के बीच यह संघर्ष हुआ। यह संघर्ष, वर्ग संघर्ष नहीं था। 34 साल तक पश्चिम बंगाल में वाम दलों का शासन था। कार्ल मार्क्स का वर्ग संघर्ष बंगाल से ग़ायब था। शायद यही वजह है कि बंगाल से वाम दलों का सूपड़ा साफ़ हो चुका है। बता दें कि 17 वीं लोकसभा के चुनाव में बंगाल में एक भी सीट वाम दलों को नहीं मिली।
प्रथम स्वाधीनता संग्राम के नायक और उर्दू के शायर बहादुर शाह ज़फ़र का यह शेर एक नए अर्थ के साथ प्रासांगिक नज़र आता है - ‘है कितना बदनसीब ज़फ़र, दफन के लिए दो गज ज़मीन भी न मिली, कू-ए-यार में।’ ’कू-ए-यार, यानी जिस ज़मीन पर हुकूमत करते थे, उस जमीन पर दो गज ज़मीन भी दफन होने के लिए नसीब नहीं हुई। बहादुर शाह ज़फ़र तो स्वाधीनता संग्राम में संघर्ष करते हुए इस अवस्था को प्राप्त हुए थे। मगर वामदल सत्ता के मद में 34 साल मदहोश होने के बाद इस अवस्था को प्राप्त हुए। वामदलों से संघर्ष करके तृणमूल ने उन्हें परास्त किया। अब बीजेपी तृणमूल से संघर्ष कर रही है। तृणमूल को परास्त करने की कगार पर है। बंगाल का मिजाज बदल रहा है।
बंगाली मानुष का नज़रिया बदल रहा है या बदला जा रहा है। लेकिन यह बदलाव की कोशिश सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों की तरफ़ से होती नज़र आती है। तृणमूल और बीजेपी के संघर्ष के बीच वामदल कहाँ हैं और वामदलों की राजनीति क्या है? यह जानना भी बड़ा दिलचस्प है।
कोलकाता के लेखक और साहित्यकार बताते हैं कि आज विश्व को संदेश देने के लिए लेफ़्ट के पास कोई संदेश नहीं है। देश को भी संदेश देने के लिए लेफ़्ट के पास कोई संदेश नहीं है। शायद यही वजह है कि लेफ़्ट का अस्तित्व शेष नहीं है। यह हुई एक बात।
वामदलों ने जितवाया बीजेपी को!
दूसरी बात यह है कि वामदल आत्मघाती राजनीति कर रहे हैं। चाय पर चर्चा से पता चला कि बीजेपी की बंगाल में जीत नहीं हुई है। बल्कि वामदलों ने बीजेपी को जितवाया है। क्योंकि, तृणमूल को उसने अपना शत्रु नंबर एक माना और बीजेपी के पक्ष में वोट करवा कर तृणमूल और ममता को दिल्ली जाने से रोका। इसमें वामदलों को सफलता मिली। ख़ुशी मिली। अब वामदल विधानसभा चुनाव में तृणमूल के साथ जाएँगे और बीजेपी को हराएँगे। यह सुनकर मैंने कोलकाता के बुद्धिजीवियों से पूछा कि वामदलों की राजनीति बंगाल में अब यही रह गई है कि कभी बीजेपी को जिताओ और कभी तृणमूल को? इस प्रकार, तो वह जड़-मूल से ही उखड़ जाएँगे। यह तो वामदलों की आत्मघाती राजनीति है। बंगाल के बुद्धिजीवियों ने कहा कि सत्य ऐसा ही है।हिंदुओं के बीच दिखा विभाजन
दिन 27 मई और जगह - राजस्थान भोजनालय। हम लोग रात का खाना खा रहे थे। हिंदी भाषी लोग शाकाहारी खाना खाने यहाँ आते हैं। खाना खा रहे एक व्यक्ति राजनीतिक रूप से मुखर थे। उन्होंने कहा कि ममता कहती हैं कि नाॅन बंगाली गद्दार है। यानी जिसने तृणमूल को वोट नहीं दिया, वह गद्दार है। उनकी उस बात का मिलान हमने हावड़ा स्टेशन पर बंगाली महिला और कुली के बीच के संघर्ष से किया। हिंदू-मुसलिम के विभाजन और संघर्ष की बात बाद में करेंगे। यहाँ तो हिंदुओं के बीच ही बंगाली और बिहारी, राजस्थानी, यूपी आदि हिंदी भाषी-बांग्ला भाषी के बीच विभाजन और संघर्ष नज़र आ रहा था। खाना खाते हुए वही व्यक्ति बता रहे थे कि ये बंगाली अपने को हिंदू कहते हैं। मगर हिंदू वाला खान-पान और मानस नहीं है। ये केवल नाम के हिंदू हैं। कोलकाता में नाम के हिंदू और काम के हिंदू की चर्चा भी सुनने को मिली।
दिन 27 मई और जगह कालीघाट। काली मंदिर में दर्शन करने के बाद हम लोग मेट्रो स्टेशन की तरफ़ बढ़ रहे थे। सड़क के दोनों तरफ़ बाजार सजा हुआ था। फ़ुटपाथ पर दुकानदारों का कब्जा था। एक बूढ़ा मुसलिम टोकरी में अमरूद बेच रहा था। मंदिर दर्शन करके आते हुए श्रद्धालु अमरूद ख़रीद रहे थे। अमरूद खाने वालों की संख्या बढ़ रही थी। गर्मी थी। अमरूद की काफ़ी बिक्री हो रही थी। लेकिन तभी सामने के एक दुकानदार ने अमरूद वाले को फटकारते हुए कहा, ऐ अमरूद वाले यहाँ से भागते हो या हम आकर भगावें। हम भी अमरूद ख़रीद रहे थे। हमारे साथ और भी लोग अमरूद ख़रीद रहे थे। सबने उस दुकानदार से कहा कि वह चला जाएगा। हल्ला क्यों कर रहे हो? दुकानदार की फटकार सुनकर अमरूद वाला हंस रहा था और कह रहा था-चोले जाबो। चोले जाबो। हमें लगा कि बीजेपी की जीत के बाद दुकानदारों के हौसले कुछ ज़्यादा ही बुलंद नज़र आ रहे थे। ऐसा नज़ारा पहले कभी कोलकाता में नहीं देखा गया था।
चुनाव के नतीजे घोषित होने के बाद हम कोलकाता गए और कोलकाता की जो तसवीरें देखी, वही आपके सामने रखी हैं। जो सुना, वही लिखा। भोजनालय में खाना खाते हुए लोग भय और आशंका से भरे हुए नज़र आए और आने वाले दिनों में शायद बंगाल में भय और अनहोनी की आशंका का वातावरण बना रहेगा। क्योंकि जिस प्रकार की राजनीति बंगाल में चल रही है उसमें सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों भय और आशंका के वातावरण को बनाने में लगे हैं।
एक अपनी सत्ता कायम रखने के लिए ऐसा कर रहा है, तो दूसरा उसे सत्ता से बेदख़ल करने के लिए। जनता तो बेचारी है। जनता की लाचारी है। ग़रीबी है। बेरोज़गारी है। ग़रीबी और बेरोज़गारी आदमी को दक्षिण अफ़्रीका पहुँचा देती है। यह तो कोलकाता है।
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