भारत में एक पुरानी कहावत है- “कोस कोस पर बदले पानी, चार कोस पर बानी”। यानी कोस-कोस पर पानी बदल जाता है और हर चार कोस पर वाणी यानी भाषा बादल जाती है। और इसी तरह हमारी पौराणिक कहानियाँ भी भाषा और भाव के बदलाव के साथ-साथ बदलती रहती हैं। हमारा परम्परागत त्योहार होली इस वर्ष भी देहरी पर आ पहुँचा है। बचपन से होली मनाने का पढ़ा और सुना कारण तो यही कहानी थी कि पौराणिक काल के ऐरच नगर के स्वयंभू और अहंकारी राजा हिरण्यकश्यप की ज़िद थी कि उसके राज्य में केवल वही पूज्य है और ईश्वर की पूजा कोई न करे। लेकिन हिरण्यकश्यप के बेटे प्रह्लाद को ईश्वर भक्ति ही अच्छी लगती थी। राजा ने अपने बेटे को ऐसा करने से रोकने के लिए कई तरह की प्रताड़नाएँ दीं लेकिन अंतत: प्रह्लाद हर तरह के षड्यंत्र से बच निकला। यहाँ तक कि अपनी क्रूर बुआ होलिका के साथ आग में बैठकर भी वह ईश्वर कृपा से बच गया और होलिका जल गयी। इस प्रसिद्ध कहानी के हिसाब से होली बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक मानी जाती रही है।
होली खेलना श्रीकृष्ण से सीखें, ‘लट्ठमार’ के बाद भी न भेद, न वैर!
- विचार
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- 7 Mar, 2023

श्रीकृष्ण की माँ यशोदा ने तो इतनी शताब्दियों पहले ही अपने पोष्यपुत्र को सभी को रंग में रंग कर भेद भाव मिटाने की सलाह दी और कृष्ण ने भी अमल में लाते हुए अपने सभी सखाओं को बिना भेद-भाव के रंगों से भिगो कर होली खेली और ख़ूब खेली। कृष्ण की होली किसी भी तरह के जाति या लिंग के भेदभाव से परे है।
अनुमा आचार्य भारतीय वायु सेना में विंग कमांडर रही हैं और वह सबसे पहली महिला लॉजिस्टिक ऑफ़िसरों में से एक हैं।