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हरियाणा कांग्रेस: आ पराजय, गले लग जा!

हरियाणा के चुनाव नतीजों ने सबकी तबियत को झक कर दिया है। कांग्रेस हाईकमान, उसके दिवास्वप्न देखने वाले समर्थकों और तमाम एक्जिट पोल करने वालों, ग्राउंड रिपोर्ट से सच दिखाने वाले हमारे प्रिय मित्रों तक की। कुछ-कुछ हम दुष्टों की भी, जो सत्ता को सदा ही हारने में एक अलग ही तरह का आनंद महसूस करते हैं। 

कांग्रेस के नेतृत्व के लिए किसी आती हुई सत्ता को बिना किसी ख़तरे के सहजता से बचा लेना, अपने हाथ में सुरक्षित ले लेना और आई हुई सत्ता को फिसलने नहीं देना उतना ही नामुमकिन है, जितना कि सूई के छेद से ऊँट का गुजरना।

इन चुनाव नतीजों ने साफ़ कर दिया है कि एक लंबे समय से और ख़ासकर लोकसभा चुनाव के बाद अधिक बढ़चढ़कर कांग्रेस नेता राहुल गांधी का स्तुतिगान करने वाले कांग्रेस समर्थक बुद्धिजीवियों के सारे ख़याल आरज़ी हैं।

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राहुल गांधी मुहब्बत वाली सियासत की अच्छी-अच्छी बातें करके, अपनी व्यक्तिगत छवि भले कितनी ही बेहतर बना लें; लेकिन भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के सामने वे महज एक काग़ज़ी नेता हैं। 

उनमें उलटफेर वाली वह कुव्वत नहीं है, जो पंडित नेहरू, इंदिरा गांधी या उनके पिता में थी। बल्कि इस मामले में वे अपनी बहन से भी कमज़ोर दिख रहे हैं।

हरियाणा के चुनाव नतीजों का सार यह है कि कांग्रेस को जनता ने नकारा नहीं है और मतदाता ने उसे जिताने के लिए भरसक कोशिशें की हैं; लेकिन पार्टी की नैया को कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व ने डूबने दिया।

इस पार्टी के राज्य स्तरीय नेता सत्ता की झपट में एक-दूसरे के इतने 'रक्तपिपासु' हो गए थे कि शैलजा जैसी नेता भी आज सुबह मुख्यमंत्री बनने के दावे कर रही थीं।
हुड्डा तो दावेदार थे ही; लेकिन राजनीतिक हलकों में बह रही बयार साफ कह रही थी कि पहले मैं और बाद में मेरा बेटा मुख्यमंत्री! पिता-पुत्र का पार्टी में इस तरह का वर्चस्व क्या नतीजे पैदा कर सकता है, अगर कोई हाईकमान यह नहीं देख सकती तो वह हाईकमान कहलाने लायक है?

इतिहास तो एक जिंदा मक्खी निगलने पर नसीहतें देता है, लेकिन कांग्रेस का हाईकमान तो मानो जिंदा मक्खियों का नाश्ता करता है।

हरियाणा में यह दीवार पर लिखा सच था कि वहाँ भाजपा ने जाट बनाम बाकी सब का खेल कर रखा है। भाजपा ओबीसी पर खेल रही है। लेकिन क्या इसके बाद भी कांग्रेस ने ओबीसी से कोई नेता लिया? किसी को आगे बढ़ाया?

क्या किसी दलित नेता को सम्मानित रखकर दलित मतदाताओं को यह एहसास करवाया कि वह उनके लिए कोई नया कार्यक्रम रखती है। बल्कि उसने अनुसूचित जातियों में वर्गीकरण को समर्थन दिया और इस वर्ग ने उससे मुंह मोड़ लिया।

हरियाणा में जिस तरह का चुनाव हो रहा था और वहाँ पार्टी नेता जिस तरह का व्यवहार कर रहे थे, उसके चलते साफ़ था कि इस प्रदेश में भी राजस्थान की तरह पार्टी की केंद्रीय लीडरशिप का कोई नियंत्रण नहीं रह गया है।

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इन हालात में भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने कांग्रेस की कमज़ोरियों और उसके नेताओं के भीतर भरे अहंकार का फ़ायदा उठाकर रणनीतिक सूझबूझ से ऐसे समय उस सत्ता को छीन लिया, जो उसके हाथ से निकल चुकी थी।

हरियाणा में जनता जवान, किसान और पहलवान के मुद्दे पर भाजपा से भयंकर कुपित थी और उसके प्रदेश नेतृत्व के पास न कोई नीति थी, न दृष्टि थी और न ही गिनाने के लिए अच्छे काम थे। उसकी झोली में कुछ था तो वह था जनता के विभिन्न वर्गों का जन आक्रोश।

इस लिहाज से हरियाणा में भाजपा की केंद्रीय लीडरशिप की रणनीति, उसका अध्ययन, उसके चुनाव लड़ने का तरीका, उसके संगठन की ताक़त और उसके केंद्र के प्रमुख नेताओं का हक़ीक़त के करीब रहना और हार को जीत में बदल देने वाला जज्बा काफी काम आया, जो कांग्रेस और कांग्रेस के नेताओं में दूर-दूर तक नहीं है।

हरियाणा में कांग्रेस के हाथों उस मतदाता के साथ छल हुआ है, जो भाजपा को पसंद नहीं करता था और कांग्रेस को जिताना चाहता था।

उन परिश्रमी नव मीडियाकारों को कांग्रेस के खोखलेपन के कारण शर्मसार होना पड़ा है, जो गली-गली खेत-खेत ढाणी-ढाणी घूमकर जनता का मूड लोगों को बता रहे थे और वे सच ही बोल रहे थे। वे कहीं भी ग़लत नहीं थे। उन्होंने जो दिखाया, सही दिखाया।

ज़मीनी सचाइयों को अच्छे से जानने वाले राजनीतिक द्रष्टा योगेंद्र यादव जब कहने की "सोच रहे थे" कि हरियाणा में कांग्रेस की या तो बयार बह रही है, या तो आंधी चल रही है और या फिर सुनामी है तो राहुल गांधी इसे समय पूर्व ही सुन लिया होगा और प्रफुल्लित होकर इसकी रखवाली के लिए न केवल तैयार नहीं हुए, बल्कि लंबी तानकर सो गए, जबकि मोदी-शाह ने आराम हराम है वाला अंदाज़ अपनाकर एक ख़तरनाक़ बाढ़ में तबाह होने से अपनी फ़सल को बचाने की ठान ली।

हरियाणा की जिन लगभग साठ सीटों पर दस हजार से कम का हार-जीत का अंतर रहा है, वहाँ का टिकट वितरण साफ़ बताता है कि कांग्रेस किस तरह अहंकार में चूर और लापरवाह रही और भाजपा ने किस बारीकी से सजगता बरतकर टिकट वितरण करवाया और पूरा जाल बिछाया।

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इस चुनाव में भाजपा के एक-एक नहीं, कई-कई प्रत्याशी थे और वे कई-कई दलों से या निर्दलीय थे।

कांग्रेस को ऐसा करने से किसी ने रोका नहीं था। लेकिन कांग्रेस के क्षत्रपों को तो 45 और प्लस-माइनस एक-दो सीटें लानी थीं, क्योंकि 50-55 या अधिक आने पर तो हाईकमान तय करता!

कांग्रेस के क्षत्रपों ने इसी रणनीति से राजस्थान सहित कुछ दूसरे राज्य डुबोए थे।

राजस्थान में कांग्रेस बहुत आसानी से 105 या 110 सीटों पर जीत रही थी, लेकिन उसका टिकट वितरण और उससे पूर्व उसके काम ही ऐसे रहे कि वह गच्चा खा गई और समय से पहले उसकी खास एजेंसी के सर्वे भी विरोधियों के हाथ लग गए।

कांग्रेस के इन हालात के बारे में कुछ दिन पहले मुझे हरियाणा के एक किसान मित्र ने बताया था कि हमने कांग्रेस के डोलू को लस्सी से भर दिया है और उसमें मक्खन भी डाल दिया है; लेकिन ये चलते ही ऐसे हैं कि घर पहुंचते-पहुंचते इनके हाथ डोलू भी रह जाए तो बड़ी बात है।

वह बोले, ढोळना तो हर किसी को आता है; लेकिन जिस तरह कांग्रेसियों को मिली हुई चीज़ को ढोळने में दक्षता हासिल है, उसका मुक़ाबला तो कोई कर ही नहीं सकता!

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सच कहा जाए तो हरियाणा में कांग्रेस नहीं हारी, उसकी केंद्रीय लीडरिशप का विजन, उसकी केंद्रीय नेतृत्व की रणनीति और उसके केंद्रीय नेतृत्व में राजनीतिक कौशल का अभाव हारा है। 

कई राज्यों के चुनाव नतीजे बताते हैं कि पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व भयंकर लापरवाह और ऐरोगेंट है। 

भाजपा सियासी मामलों में कांग्रेस की तुलना में कहीं शोख़, शातिर और शैतान है। उसने हरियाणा जीतकर कांग्रेस को ही नहीं, उस आरएसएस को भी चिढ़ा दिया है, जो मोदी-शाह पर हावी होने की कोशिश में था।

लब्बेलुबाब ये कि भाजपा नेतृत्व की राजनीतिक हृदयहीनता इस समय उसकी शक्ति का स्रोत बन गई है और कांग्रेस और उसके नेतृत्व की राजनीतिक सहृदयता उसकी पराजय का कारण। कभी देश में इसका उलटा था; क्योंकि सत्ता और सहृदयता का कभी कोई तालमेल रहता नहीं! 

(त्रिभुवन के फ़ेसबुक पेज से साभार)
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त्रिभुवन
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