राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने अक्टूबर की शुरुआत में जम्मू-कश्मीर का दौरा किया। नव-निर्मित केंद्र-शासित क्षेत्र की यह उनकी पहली यात्रा थी। जम्मू में एक सेमिनार में उन्होंने कहा कि 'क्षेत्र की व्यवस्था बदले, इसके लिए ज़रूरी है कि उसके पहले लोगों की मानसिकता बदले।'
दो साल पहले जब स्थानीय लोगों की सहमति के बग़ैर ही जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म कर दिया गया था और राज्य को दो केंद्र शासित क्षेत्रों में बाँट दिया गया था, उस समय से ही चारों ओर इसके संकेत मिल रहे हैं कि लोगों का 'हृदय परिवर्तन' हो गया है। लेकिन यह हृदय परिवर्तन वैसा नहीं हुआ है जैसा भागवत चाहते हैं।
5 अगस्त 2019 को अनु्च्छेद 370 और 35 'ए' को रद्द कर दिया गया, उस समय से ही पूर्व का यह राज्य एक अजीब चुप्पी में डूबा हुआ है। लेकिन नव निर्मित केंद्र शासित क्षेत्र लद्दाख के बौद्ध-बहुल ज़िले लेह में हर्षोल्लास छा गया। हिन्दू-बहुल जम्मू में भी थोड़ी बहुत खुशी देखी गई।
आशंका
अब लद्दाख के राजनीतिक नेता कहने लगे हैं कि कश्मीरी प्रभुत्व की जगह पर्वतीय परिषद की अफसरशाही के प्रभुत्व ने ले ली है। नतीजतन, लोगों में असंतोष बढ़ा और राज्य का दर्जा देने की मांग एक बार फिर ज़ोर पकड़ने लगी।
लोगों को आशंका है कि बाहरी लोगों के आने से उनकी नौकरी और ज़मीन चली जाएगी और पर्यावरण को नुक़सान होगा। उनकी मांग है कि संविधान की छठी अनुसूची के तहत उनके इलाक़े को शामिल कर आदिवासी समुदाय को सुरक्षा दी जाए, हालांकि सरकार ने इन मांगों को मान लेने का आश्वासन अब तक नहीं दिया है। इसके अलावा वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चीनी घुसपैठ होने से लद्दाख के 2.7 लाख लोग बेहद असुरक्षित महसूस कर रहे हैं।
जम्मू में हड़ताल
जम्मू में भी लोगों के मन में निराशा घर करने लगी है। जम्मू चैंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज़, कुछ दूसरे व्यावसायिक संगठन और जम्मू बार एसोसिएशन ने सरकार की दिशाहीन नीतियों के ख़िलाफ़ 22 सितंबर को हड़ताल की थी। उनका कहना था कि ये नीतियाँ भेदभावपूर्ण हैं। अगस्त 2019 के बाद इस इलाक़े की यह पहली हड़ताल थी।
कश्मीर घाटी में एक असामान्य शांति छाई हुई है, वर्ना यह राजनीतिक उथलपुथल और भिड़ंत का केंद्र बनी रहती थी।
यह साफ है कि न तो जम्मू न ही लद्दाख अनुच्छेद 370 की बहाली की माँग कर रहा है। इन दोनों ही क्षेत्रों में विरोध इसलिए हो रहा है कि लोग अपनी ज़मीन, व्यवसाय और रोज़गार की रक्षा के लिए संवैधानिक गारंटी चाहते हैं, जैसा हिमाचल प्रदेश या पूर्वोत्तर के राज्यों में है।
लद्दाख
लद्दाख के लोगों में बीजेपी के प्रति झुकाव इसलिए बढ़ा कि वे जम्मू-कश्मीर से अलग एक केंद्र-शासित क्षेत्र चाहते रहे हैं। लेकिन इससे इस क्षेत्र के दो ज़िलों में मतभेद बढ़ गए, ये ज़िले हैं बौद्ध- बहुल लेह और मुसलिम- बहुल कारगिल। लेकिन विभाजनकारी राजनीतिक रूपरेखा बदल गई है और दोनों ज़िलों के लोग राज्य की मांग के मुद्दे पर एकजुट हो रहे हैं।
जम्मू का हिन्दू-बहुल इलाक़ा देश के विभाजन के पहले से ही आरएसएस की विचारधारा से प्रभावित रहा है। साल 2019 के बाद हुए बदलावों से लोगों के मन में गुस्सा बढ़ा है, पर जम्मू के दक्षिणपंथी हिन्दुओं के बीच यह संस्था अब भी मजबूत है और लोग इसकी विचारधारा से जुड़े हुए हैं।
हालांकि जम्मू में राजनीतिक नैरेटिव बदलने का फिलहाल कोई संकेत नहीं है, पर 5 अगस्त 2019 के निर्णय के राजनीतिक नतीजों की वजह से अब विरोध के स्वर सुनाई देने लगे हैं। दोनों ही क्षेत्रों में इस पर सहमति है कि लोग इस निर्णय के बाद के नतीजों से खुश नहीं हैं।
अजीब चुप्पी!
हमेशा राजनीतिक उथलपुथल वाले इलाक़े कश्मीर घाटी में एक अजीब किस्म की शांति पसरी हुई है। अनुच्छेद 370 ख़त्म किए जाने के ख़िलाफ़ असंतोष बीच बीच में दिखता है जैसा कि गुपकार डेक्लेरेशन से पता चलता है। लेकिन विरोध का कोई बड़ा चिह्न नही दिखता है, पत्थरबाजी नहीं हुई, कोई बहुत बड़ा जुलूस नहीं निकाला गया, जिसमें कोई सामान्य या महत्वपूर्ण मांग की गई हो।
अख़बारों में जम्मू-कश्मीर प्रशासन के बयान और उनकी उपलब्धियों को बताने वाली चीजें भरी रहती हैं, घाटी के सैलानियों से पट जाने, एअर शो और नई फ़िल्म नीते से जुड़ी खबरें पटी रहती हैं।
क्या जम्मू-कश्मीर का हृदय परिवर्तन हुआ है ?
कला
हाल ही में श्रीनगर में एक सार्वजनिक कार्यक्रम में सड़कों पर चित्रकारी की गई। छात्रों ने सड़क के एक हिस्से पर कश्मीर के प्राकृतिक सौंदर्य से जुड़े प्रतीकों के चित्र उकेर दिए।
कुछ दिनों बाद सोशल मीडिया पर तसवीरें दिखने लगीं जिनमें देखा जा सकता है कि इन चित्रों पर आवारा कुत्ते अलसाए से सोए हुए हैं या उन पर पेशाब कर दे रहे हैं।
सरकार कला और कलाकारों को प्रोत्साहित करती है, लेकिन तभी जब वे अपने आप को फूल, शिकारा और कांगड़ी तक सीमित रखें।
इन चित्रों का सौंदर्य शिक्षाप्रद कहानियों की तरह है। स्थानीय लोग सड़कों पर बने हुए गड्ढे, बदबूदार कूड़े, टूटी हुई स्ट्रीट लैंप, पानी की कमी और कई बार होने वाली बिजली गुल की ओर इशारा करते हैं और सवाल उठाते हैं कि क्या ये चित्र ज़रूरी मौलिक सुविधाओं की कमी की भरपाई कर सकते हैं।
स्थानीय अर्थव्यवस्था लगातार पिछड़ रही है। सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकोनॉमी के अनुसार, बेरोज़गारी 21.6 प्रतिशत के रिकॉर्ड स्तर पर है, जो फिलहाल पूरे देश की सबसे ऊँची बेरोज़गारी दर है।
निशाने पर कलाकार?
लेकिन ये सवाल मीडिया में नहीं दिखते हैं। इसके बजाय मीडिया स्मार्ट सिटी परियोजना और कलाकारों के लिए प्लैटफॉर्म जैसी चीजों को तवज्जो देता है और उन्हें बड़ी घटना के रूप में प्रचारित करता है।
फूलों का पैटर्न और प्राकृतिक सौंदर्य कश्मीरी कलाकारों और दस्तकारों को सदियों से प्रभावित करता आया है, उनकी एक तरह की ग़ुलामी के दिनों में भी और हाल फिलहाल की गड़बड़ी और अशांति के दिनों में भी।
मशहूर पश्मीना शालों और पेपर मेशे के उत्पादों से कलाकारों के होने वाले शोषण और इन उथलपुथल भरे दिनों के बारे में पता नहीं चलता है। इससे हट कर कलाकारों की ऐसी कोई अभिव्यक्ति जिससे भारतीय राज्य की आलोचना होती हो, पेश किए जाने पर कलाकारों, दस्तकारों, पत्रकारों और सामान्य नागरिकों को दंडित किया जा सकता है।
ऐसा करने पर कलाकारों पर आपराधिक मामले दर्ज कराए जाते हैं, पुलिस थाने में बुलाकर उनसे पूछताछ की जाती है, ग़ैरक़ानूनी ढंग से हिरासत में रखा जाता है या गिरफ़्तार कर लिया जाता है। इससे कलाकार डर जाते हैं और वे सोशल मीडिया से गायब हो जाते हैं।उदाहरण के लिए, मई महीने में कलाकार मुदासिर गुल को ग़ैरक़ानूनी ढंग से हिरासत में ले लिया गया था क्योंकि उन्होंने एक चित्र बनाया था, जिसमें दिखाया गया था कि एक महिला की आँखों में आँसू हैं और वह फ़लस्तीन का झंडा हाथ में लिए हुए है और उसके ऊपर एक लाइन में लिखा हुआ है, 'हम फ़लस्तीन हैं।'
डरा हुआ मीडिया
कश्मीर के मीडिया के बड़े तबके ने 5 अगस्त के बाद सरकार की हां में हां मिलाना शुरू कर दिया। डर का ऐसा माहौल बना दिया गया है कि ज़्यादातर लोग सरकार की बात मान रहे हैं और जो नहीं मान रहे हैं, वे उसका खामियाजा भुगत रहे हैं। ज़्यादातर अख़बार ख़बर से ज़्यादा सरकारी विज्ञापन छाप रहे हैं और जो खबरें छाप रहे हैं वह भी सरकार की उपलब्धियों से भरी हुई हैं। कई बार तो ये ख़बरें सरकारी विज्ञप्तियाँ होती हैं, जिन्हें संपादित तक नहीं किया जाता है।
यदि कोई पत्रकार सरकार के सकारात्मक नैरेटिव में छेद करने वाली आलोचनात्मक ख़बर करता है तो वह सरकार के निशाने पर आ जाता है।
ऐसे पत्रकारों पर नकेल कसी जा रही है, उन्हें पुलिस थाने में पूछताछ के लिए बुलाया जाता है, उन्हें ग़ैरक़ानूनी हिरासत में लिया जाता है, अनिवार्य प्रश्नवाली के ज़रिेए उनकी निजी जानकारियाँ एकत्रित की जाती हैं।
निशाने पर पत्रकार
कुछ को आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होने के आरोप में गिरफ़्तार किया गया है।
ये कार्रवाइयाँ डर के मारे सामने नहीं आ पाती हैं । ये जून 2020 में सरकार की तैयार की हुई मीडिया नीति के अनुरूप ही हैं। इसका प्राथमिक मक़सद मीडिया का इस्तेमाल कर एक सकारात्मक नैरेटिव तैयार करना है। अख़बारों के संपादक सरकार के दवाब डालने के मसले पर मुँह खोलना नहीं चाहते हैं ।
किसी चरमपंथी से किसी तरह का रिश्ता या किसी ओवरग्राउंड कार्यकर्ता से संपर्क या किसी छापेमारी में बरामद मोबाइल फोन में सोशल मीडिया पोस्ट या कोई डेटा राष्ट्रद्रोह साबित करने के लिए पर्याप्त सबूत है और उस व्यक्ति को यूएपीए यानी अनलॉफ़ुल एक्टिविटीज़ प्रीवेन्शन एक्ट या पब्लिक सेफ्टी एक्ट के तहत गिरफ़्तार किया जा सकता है।
ज़्यादा यूएपीए मामले
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के रिकॉर्ड से पता चलता है कि पूरे देश में यूएपीए के तहत जितने मामले दर्ज किए गए हैं, उनकी एक तिहाई सिर्फ जम्मू-कश्मीर से है जबकि इस राज्य की जनसंख्या देश की जनसंख्या के एक प्रतिशत से कम है।
यूएपीए के तहत दर्ज मामलों की संख्या पूरे देश में 2019 में 1,226 से 2020 में घट कर 796 हो गई, जबकि इस दौरान जम्मू-कश्मीर में यह 255 से बढ़ कर 287 हो गई।
वकीलों और कार्यकर्ताओं का कहना है कि यूएपीए के ज़्यादातर मामले मीडिया में नहीं आते हैं। डराने-धमकाने और छापे मारने की तो और कम खबरें सामने आती हैं।
ऐसे माहौल में जहां चारों ओर डर का माहौल व्याप्त है, न तो अधिकारी न ही पीड़ित कोई जानकारी देते हैं। यह डर इतना ज़्यादा है कि मैंने कश्मीर पर फीडबैक लेने के लिए जिन लोगों को फ़ोन किया, उन्होंने या तो फ़ोन ही नहीं उठाया या नाम न उजागर करने की शर्त पर ही कुछ कहा।
दमनकारी क़ानून
अगस्त, 2019 के बाद से जो नियम क़ानून बनाए गए हैं, उनकी वजह से डर अंदर तक पैठ गया है। अब अधिकारी पत्थर फेंकने जैसे अपराध के आधार पर भी किसी को पासपोर्ट देने से इनकार कर सकते हैं। 'राज्य की सुरक्षा के लिए ख़तरनाक कार्रवाइयों' के आधार पर किसी सरकारी कर्मचारी को बर्खास्त किया जा सकता है। नए क़ानून के मुताबिक किसी सरकारी कर्मचारी का कोई रिश्तेदार कोई ग़ैरक़ानूनी काम करे तो वह भी उसके लिए ज़िम्मेदार होगा। इस आदेश की भाषा ऐसी है कि इसकी जद में सारे लोग आ जाएंगे, यह डर लोगों के मन में घुस गया है।
ये बातें रिपोर्ट नहीं होती हैं। जो रिपोर्ट होती हैं, वे 'स्थिति सामान्य' होने, 'पर्यटन', 'उपलब्धि', 'अनुच्छेद 370 ख़त्म किए जाने के फ़ायदे' और 'आतंकवाद' से जुड़े सरकारी नैरेटिव हैं।
बीते दो सालों में सरकार और सुरक्षा एजंसियों ने आतंकवादियों पर जीत और मुठभेड़ों में उनके मारे जाने के दावे किए हैं। इस साल जून के अंत तक 90 चरमपंथी मारे गए और कम लोग आतंकवादी गतिविधियों से जुड़े। पुलिस आईजी विजय कुमार ने जुलाई में कहा, "यह सुरक्षा बलों और समाज के लिए अच्छी बात है।"
चरमपंथ का नया ट्रेंड
जीत के इस उल्लास में चरमपंथ के नए ट्रेंड को नहीं समझा जा रहा है। चरमपंथियों ने बीते कुछ महीनों में उच्च सुरक्षा क्षेत्र में दुस्साहस भरे हमले किए हैं और सुरक्षा बलों के लोगों और निहत्थे नागरिकों पर समान रूप से हमले किए हैं। इस साल अब तक 28 आम नागरिक मारे गए हैं। अक्टूबर के पहले सप्ताह में सात नागरिकों को मार डाला गया, जिनमें से अल्पसंख्यक समुदाय के पाँच लोग थे। मुसलिम- बहुल इस राज्य में इस तरह की हत्याएं बहुत बड़ी आपदा की संकेत हैं, जो न तो राज्य न ही देश बर्दाश्त कर सकता है।
चरमपंथियों के द्वारा अपनाई गई यह नई रणनीति सुरक्षा बलों के लिए गंभीर चुनौती है। अलग-अलग वारदातों में संदिग्ध चरमपंथियों ने अल्पसंख्यक समुदाय के दो शिक्षकों को दूसरों से अलग कर गोली मार दी और एक दवा विक्रेता को मार डाला। एक सरकारी अधिकारी ने 'इंडियन एक्सप्रेस' को बताया कि ये 'पार्ट टाइम' आतंकवादी हैं जो सुरक्षा बलों के रडार पर नहीं होते हैं और सॉफ्ट टारगेट को पिस्टल से निशाना बनाते हैं।
अनुच्छेद 370 ख़त्म करते समय बीजेपी सरकार ने कहा था कि इससे आतंकवाद ख़त्म हो जाएगा और जम्मू-कश्मीर के लोगों को समानता और विकास मिलेगा। इसके उलट यह सबको साफ हो गया है यह क्षेत्र विध्वंस व बर्बादी के चक्र में बुरी तरह फँस चुका है।
अस्थिरता
कश्मीर में बढ़ती जा रही अस्थिरता का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि बीते महीने अलगाववादी नेता सैयद अहमद शाह गिलानी की मौत के बाद पुलिस उनके घर जा धमकी और शव को क़ब्जे में ले लिया। एक आदमी जिसकी उम्र नब्बे साल हो, जो काफी समय से निष्क्रिय हो और एक साल से बिस्तर पर पड़ा हो, उसकी लाश को जबरन ले जाकर गुपचुप तरीके से अंत्येष्टि कर देना बताता है कि स्थिति में 'कितना सुधार' हो चुका है, स्थिति 'सामान्य' हो चुकी है और 'अलगाववादियों का असर कम हो गया है'। कई वजहों से हो सकता है कि अलगाववादी तत्व बेअसर हो चुके हों, पर अलगाववाद की भावना ख़त्म नहीं हुई है। गुस्सा, हताशा और अलग-थलग पड़ने की वजह से यह भावना और मजबूत हुई है।
बुद्धिजीवी और उदारवादी समेत ज़्यादातर भारतीय इस छलावे में आ गए हैं कि 'सब कुछ ठीक हो गया', हालांकि कश्मीर की यह रहस्यमय चुप्पी स्थिति को स्वीकार कर लेने और संतुष्ट हो जाने के ख़िलाफ़ है।
शेष भारत के लोगों के लिए यह समझना मुश्किल है कि वर्षों से भोग रहे कष्टों को उठा कर आम कश्मीरी रोजमर्रा की जिंदगी कैसे जीता है।
अत्यधिक डर के बीच जी रहे कश्मीरी 2019 के पहले के अधिकारों में लगातार हो रही कटौतियों के बीच शेष भारत के बुद्धिजीवियों की चुप्पी पर कटु नहीं तो दुखी ज़रूर है।
निशाने पर अल्पसंख्यक
आम नागरिकों की हत्याएं, जिनमें चुन चुन कर निशाना बनाए गए अल्पसंख्यक समुदाय के लोग भी शामिल हैं, सरकार की आँख खोलने वाली हैं।
इन हत्याओं, ख़ास कर सिखों और पंडितों की हत्याओं ने सबको चौंका दिया है। लेकिन जिस किसी कश्मीरी से आप बात करें, वह यही कहेगा कि यह अप्रत्याशित नहीं है। यह अनुमान पहले से ही लगाया जा रहा था कि कश्मीर में जो हो रहा है, उसकी प्रतिक्रिया हिंसक, अतार्किक और नफ़रत से प्रेरित होगी। पीपल्स कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष सज्ज़ाद लोन के बयान को नज़रअंदाज़ करना ठीक नहीं होगा । उन्होंने कहा, "हम एक चुनौतीपूर्ण समय में रह रहे हैं और मैं वह बिन्दु देख रहा हूं जहां से चीजें बदतर होती हैं।"
बदलती हुई बाहरी चीजों ने पहले से ही नाज़ुक जम्मू-कश्मीर की स्थिति को और बदतर कर दिया है। चीनी घुसपैठ, अफ़ग़ानिस्तान की बदलती हुई स्थिति, चीन के साथ पाकिस्तान की बढ़ती हुई नज़दीकियाँ। लेकिन भौगोलिक राजनीतिक ख़तरा उस ख़तरे से कम है, जिसे खुद भारत सरकार की ग़लत नीतियों ने तैयार किया है।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारतीय राज्य की मौजूदा नीतियाँ उसी ओर इशारा कर रही हैं। इसका नतीजा सिर्फ जम्मू-कश्मीर के लिए ही नहीं, पूरे देश के लिए भयावह है।
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