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नीतीश को फिर से मुख्यमंत्री क्यों नहीं बनने देना चाहती है बीजेपी?

मौजूदा बिहार सरकार में बीजेपी भी शामिल है लेकिन पटना और आसपास के क्षेत्रों में बाढ़ के लिए नीतीश पर सीधा हमला हो रहा है। बाढ़ का पानी तो हफ़्ता-दस दिनों में निकल जाएगा। लेकिन नीतीश की नाव लंबे समय तक भँवर में फँसी रह सकती है। कम से कम 2020 के विधानसभा चुनावों तक।

शैलेश

बीजेपी का एक खेमा जिस तरह से बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के ख़िलाफ़ आक्रामक तेवर अपना रहा है उससे लगता है कि एनडीए में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है। भारतीय जनता पार्टी के कुछ नेता अब बिहार में भी अपना मुख्यमंत्री चाहते हैं। पार्टी के एक नेता रामेश्वर चौरसिया ने हाल में कहा कि महाराष्ट्र की तरह बिहार में भी बीजेपी का मुख्यमंत्री बन सकता है। यह एक संकेत है कि बीजेपी के कुछ नेता चाहते हैं कि नीतीश अब मुख्यमंत्री की कुर्सी खाली करें। नीतीश का विरोध करने वालों में पार्टी के दबंग नेता गिरिराज सिंह, संजय पासवान, सी.पी. ठाकुर, सच्चिदानंद राय और मिथिलेश तिवारी भी शामिल हैं। नीतीश का समर्थन करने वालों में सुशील मोदी हैं जो खुलकर कहते हैं कि बिहार में एनडीए के नेता नीतीश कुमार ही रहेंगे। नीतीश कुमार ने जब जदयू से नाता तोड़ने का फ़ैसला किया और मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया तब उन्हें मना कर एनडीए में दोबारा लाने में सुशील मोदी की अहम भूमिका थी। गिरिराज सिंह बार-बार नीतीश पर सवाल उठा देते हैं और सुशील बार-बार सफ़ाई देते हैं, लेकिन कुल मिलाकर यह तय है कि नीतीश अब बीजेपी को पच नहीं रहे हैं।

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बिहार में राजनीतिक शक्ति संतुलन का सबसे बड़ा केंद्र नीतीश कुमार अब भी बने हुए हैं। बीजेपी को यह एहसास है कि नीतीश के बगैर चुनाव मैदान में उतरना मौत के कुएँ में मोटर साइकिल चलाने की तरह होगा जहाँ मौत का ख़तरा सिर पर नाचता रहता है। 2014 के लोकसभा चुनावों से पहले नीतीश कुमार एनडीए से अलग हुए। मोदी लहर में 2014 के चुनाव में बीजेपी ने बिहार से लोकसभा की आधी से ज़्यादा सीटों पर कब्जा कर लिया। लेकिन 2015 के विधानसभा चुनावों तक नीतीश ने अपनी ज़मीन को फिर से संभाल लिया। 2015 के विधानसभा चुनाव में नीतीश का जनता दल यूनाइटेड और लालू-तेजस्वी का राष्ट्रीय जनता दल साथ आ गए और बीजेपी बुरी तरह पराजित हुई। लेकिन 2019 के लोकसभा चुनावों में नीतीश के साथ मिलकर एनडीए ने बिहार की 40 में से 39 सीटों पर कब्जा किया। नीतीश फ़ैक्टर से वाकिफ़ केंद्रीय नेतृत्व अभी उनसे पंगा लेने के लिए तैयार नहीं दिखायी देता। हाल में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के तीन नेताओं ने नीतीश से मुलाक़ात की। समझा जाता है कि यह डैमेज कंट्रोल की एक कोशिश थी।

महागठबंधन से अलग होने के बाद भी नीतीश के चाहने वाले वहाँ भी मौजूद हैं। हाल में रघुवंश प्रसाद सिंह और शिवानंद तिवारी जैसे नेताओं ने नीतीश को बीजेपी और आरएसएस का साथ छोड़ने और ग़ैर बीजेपी दलों का नेतृत्व करने का आमंत्रण दे डाला। दरअसल महागठबंधन को भी मालूम है कि नीतीश के बिना सत्ता तक पहुँचना मुश्किल है। इस तरह नीतीश के दोनों हाथों में लड्डू हैं तो फिर बीजेपी के कुछ नेता नीतीश विरोधी राग क्यों अलापते रहते हैं। जवाब बहुत सीधा है। बीजेपी चाहती है कि विधानसभा चुनावों में उसे ज़्यादा सीटें मिलें या फिर कम से कम बराबर का बँटवारा हो। बिहार विधानसभा में 243 सीटें हैं। बीजेपी के कुछ नेता चाहते हैं कि बीजेपी और जदयू सौ-सौ सीटों पर लड़े। 43 सीटें राम विलास पासवान की लोजपा के लिए छोड़ दी जाए। लेकिन इस तरह से नीतीश के हाथों से मुख्यमंत्री की कुर्सी खिसक सकती है। लोजपा की पहली पसंद नीतीश नहीं हैं। चुनाव नतीजे साफ़ तौर पर नीतीश के पक्ष में नहीं आए तो बीजेपी और लोजपा मिल कर किसी तीसरे को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन कर सकते हैं।

नीतीश सावधान हैं और बीजेपी भी। लेकिन महागठबंधन ने नीतीश की तोलमोल की ताक़त बढ़ा दी है। तो भी बीजेपी के कुछ नेता नीतीश को मुश्किलों के बीच खड़ा रखना चाहते हैं।

मौजूदा बिहार सरकार में बीजेपी भी शामिल है लेकिन पटना और आसपास के क्षेत्रों में बाढ़ के लिए नीतीश पर सीधा हमला हो रहा है। बाढ़ का पानी तो हफ़्ता-दस दिनों में निकल जाएगा। लेकिन नीतीश की नाव लंबे समय तक भँवर में फँसी रह सकती है। कम से कम 2020 के विधानसभा चुनावों तक। 

नीतीश के विरोधी इस समय सबसे ज़्यादा संकट में हैं। राज्य में विधानसभा के पाँच और लोकसभा के एक सीट के उपचुनाव को लेकर महागठबंधन बिखरता हुआ नज़र आ रहा है।

विधानसभा की पाँच सीटों और लोकसभा की एक सीट पर उपचुनाव 21 अक्टूबर को होने जा रहे हैं। महागठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के सुप्रीमो तेजस्वी यादव ने विधानसभा की पाँच में से चार सीटों पर चुनाव लड़ने का फ़ैसला किया है। विधानसभा और लोकसभा की एक-एक सीट को कांग्रेस के लिए छोड़ दिया है। किसनगंज विधानसभा सीट पर 2015 के चुनाव में कांग्रेस ही जीती थी। विधायक जावेद के लोकसभा चुनाव जीतने के कारण सीट खाली हुई थी। राजद के इस फ़ैसले से कांग्रेस ख़ुश नहीं है और पार्टी ने सभी पाँच सीटों पर लड़ने का फ़ैसला किया है। समस्तीपुर सुरक्षित लोकसभा सीट लोक जनशक्ति पार्टी के रामचंद्र पासवान के निधन से खाली हुई है। 2019 के चुनाव में कांग्रेस यहाँ दूसरे नंबर पर थी सो राजद ने यह सीट कांग्रेस के लिए छोड़ दी।

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महागठबंधन में दरार!

महागठबंधन में शामिल पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी की पार्टी हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) और मल्लाह नेता मुकेश सहनी की पार्टी विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) ने एक-एक सीट पर दावा ठोका था, लेकिन तेजस्वी यादव उन्हें कोई सीट देने के लिए तैयार नहीं हुए। तेजस्वी का तर्क है कि 2015 में विधानसभा की चार सीटें राजद और एक कांग्रेस के पास थी इसलिए महागठबंधन के किसी भी दावेदार का हक नहीं बनता। महागठबंधन के एक और नेता उपेंद्र कुशवाहा (राष्ट्रीय लोक समता पार्टी) खामोश बैठ गए हैं तो क्या महागठबंधन अब समाप्त हो जाएगा। उत्तर प्रदेश में जिस तरह लोकसभा चुनाव के बाद बहुजन समाज पार्टी ने समाजवादी पार्टी से गठबंधन तोड़ दिया उसी तरह बिहार का महागठबंधन भी क्या समापन की तरफ़ चल पड़ा है? यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि 2020 में बिहार विधानसभा का चुनाव होना है।

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सीट बँटवारे में पेच

विघटन के सवाल पर राजद के बिहार प्रदेश अध्यक्ष रघुवंश प्रसाद सिंह का कहना है कि गठबंधन नहीं टूटा है और विधानसभा चुनाव सब मिल कर लड़ेंगे। लेकिन जीतनराम मांझी और मुकेश सहनी का आरोप है कि तेजस्वी यादव बीजेपी से मिल गए हैं। तेजस्वी पर आय से अधिक संपत्ति की जाँच सीबीआई कर रही है। विरोधी कहते हैं कि जेल से बचने के लिए तेजस्वी बीजेपी की मदद कर रहे हैं। लेकिन रघुवंश प्रसाद सिंह इन आरोपों को ग़लत बताते हैं। राजनीतिक समीक्षकों का मानना है कि दरअसल उप चुनावों में सीटें देकर राजद 2020 के चुनावों में अपने सहयोगी दलों की माँग बढ़ाना नहीं चाहता। लोकसभा के चुनाव में तेजस्वी ने सभी सहयोगियों की माँगों को मान लिया था। इसके बावजूद बिहार में कांग्रेस को छोड़ कर कोई भी पार्टी एक भी सीट नहीं जीत पायी। राजनीतिक पंडित मानते हैं कि असल में जेल में बंद लालू यादव ही अब भी पार्टी की रणनीति बना रहे हैं। उप चुनाव में सीट बाँटने के इनकार करके लालू ने सहयोगी दलों को औकात बताने की कोशिश की है।

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