भगवान बुद्ध, गुरु रविदास और बाबा साहब आंबेडकर के दर्शन में क्या कोई समानता हो सकती है? कुछ लोग सोच सकते हैं यह कैसा प्रश्न है? या यह कैसे हो सकता है? तीनों के जन्म में कितने वर्षों का अंतराल है- जैसे भगवान बुद्ध तथा गुरु रविदास के बीच लगभग 2000 वर्षों का फ़ासला है जबकि गुरु रविदास और बाबा साहब आंबेडकर के मध्य लगभग 500 वर्षों का। तो फिर उनके बीच तुलना कैसे हो सकती है? असल में यह बिल्कुल सही है कि भगवान बुद्ध, गुरु रविदास और बाबा साहब आंबेडकर तीनों ही भिन्न-भिन्न कालखंड में पैदा हुए तथा तीनों ही अलग-अलग समाजों के सदस्य थे। तीनों के ही पास अलग-अलग अधिकार और भिन्न शिक्षा थी और वे तीनों ही भिन्न सामाजिक शक्तियों से लड़ रहे थे। लेकिन भिन्न समाजों में रहते हुए, भिन्न-भिन्न काल खंडों में जन्म लेते हुए, भिन्न-भिन्न शिक्षा पद्धति में अभ्यास के बावजूद तीनों का लक्ष्य मानव, मानवता और मानव समाज का उत्थान ही था।
भगवान बुद्ध, गुरु रविदास और बाबा साहब का लक्ष्य था समाज में समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व (भाईचारा) कैसे स्थापित हो। यानी तीनों मानव की मुक्ति का आंदोलन ही आगे बढ़ा रहे थे।
तुलना नहीं, विचारों में समानता
इस लेख में मैं तीनों की तुलना नहीं कर रहा हूँ। परंतु मैं उनके विचारों में समानता ढूँढ रहा हूँ। मैं उनके मध्य उन समान मूल्यों और मानकों को ढूँढने का प्रयास कर रहा हूँ, जो कालजई और सार्वभौमिक हैं, और जिनके लिए वे जीवन पर्यन्त संघर्ष करते रहे हैं। विशेष कर यहाँ यह तथ्य रेखांकित करना चाहूँगा कि किस प्रकार हम गुरु रविदास की वाणी को भक्ति की वाणी न मान कर मुक्ति की मानें। और साथ ही साथ यह चिन्हित एवं प्रसारित करने का प्रयास करें कि बाबा साहब आंबेडकर भगवान बुद्ध और रविदास महाराज की ही वाणी को अपने आंदोलन से आगे बढ़ा रहे थे।
सभी जानते हैं कि रविदास जी की जयंती फ़रवरी माह में भारत में ही नहीं विश्व में बड़े धूमधाम से मनाई जाती है। विश्व में इसलिए कि विश्व के कोने-कोने में पंजाब से गए प्रवासी भारतीय रविदासी समाज के लोगों ने वहाँ सतगुरु रविदास के गुरुद्वारे बना लिए हैं और उन्हें अपनी अस्मिता का प्रतीक मानते हैं। अप्रवासी भारतीय रविदासियों ने गुरु रविदास की वाणी को अन्य गुरुओं की वाणी के साथ आत्मनिर्भर रूप से स्थापित करके एक पुस्तक का आकार दे दिया है जिसे 'अमृत वाणी' कहा जाता है। साथ ही अपने गुरुद्वारों में उन्होने गुरु रविदास महाराज की अरदास में ‘जो बोले सो निर्भय; रविदास जी महाराज की जय’ का उद्घोष प्रारंभ कर उन्हें आत्मनिर्भर रूप से अपने समाज का ईष्ट घोषित कर दिया है। विश्व के अनेक प्रांतों में दलित/बहुजन समाज भगवान बुद्ध, गुरु रविदास और बाबा साहब आंबेडकर की जयंती मिलजुल कर हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं और इन्हीं पर्वों एवं जयंती कार्यक्रमों में इनके मध्य या इनके विचारों में समानता उजागर होने लगी।
जाति का विखंडन
अब आते हैं वाणी में समानता पर। गुरु महाराज की जयंती के माध्यम से पता चला कि किस प्रकार गुरु महाराज ने जाति को तोड़कर एक समता मूलक समाज की स्थापना की बात की थी। गुरु महाराज अपनी वाणी में कहते हैं-
‘जात जात में जात है तिन केलन के पात;
रैदास न मानु मानुख बन सके जब तक जात न जात’
यानी सतगुरु रविदास समाज में स्थापित रूढ़िवादी जनित व्यवस्था को रेखांकित करते हुए कहते हैं कि समाज में जाति में जाति ऐसे ही रची बसी है जैसे केले के पत्ते में पत्ते होते हैं। और जब तक जाति ख़त्म नहीं होगी तब तक इंसान इंसान नहीं बन सकता है। अगर इस पद को एक लाइन में कहा जाए तो हम कह सकते हैं कि सतगुरु रविदास महाराज जाति व्यवस्था को तोड़ना चाहते थे। वही जो भगवान बुद्ध ने किया। भगवान बुद्ध ने सभी समाजों की महिलाओं व पुरुषों को अपने संघ में स्थान देकर उनके बीच जाति के अलगाव को तोड़ने का काम किया।
बाबा साहब आंबेडकर ने भी अपनी पुस्तक ‘एनहिलेशन ऑफ़ कॉस्ट’ (यानी जाति व्यवस्था का उन्मूलन) लिखी जिसमें उन्होंने जाति को तोड़ने की बात कही। हाँ, यह तथ्य सत्य है कि उनकी भाषाएँ और तरीक़ा अलग था। यह इसलिए कि वह तीनों ही अलग-अलग समय में अलग-अलग समाज में जी रहे थे।
नारी को सम्मान और समान अधिकार
नारी को सम्मान देने में भी भगवान बुद्ध, गुरु रविदास और बाबा साहब में समानता नज़र आती है। यह तथ्य सार्वजनिक है कि मीरा एक रानी थी, उसके बावजूद गुरु रविदास ने उन्हें अपनी शिष्या मान कर शिक्षा दी। सामाजिक और जाति बंधन को तोड़कर उन्होंने इस महिला को शिक्षा दी। कुछ इस तरह भगवान बुद्ध ने प्रकृति नाम की चांडाल महिला को भिक्खुणी संघ में शामिल कर महिलाओं को लिए अलग भिक्खुणी संघ की स्थापना की और उनके उत्थान का मार्ग प्रशस्त किया। यहाँ पर बाबा साहब के विचारों का भी संज्ञान लिया जाना चाहिए। बाबा साहब का मानना रहा है कि ‘किसी भी देश की तरक्की को उस देश की महिलाओं की तरक्की से आँका जाना चाहिए’। और इसीलिए बाबा साहब ने देवदासियों की लड़ाई लड़ी, महिलाओं को बराबर की मज़दूरी दिलवायी, हिन्दू कोड बिल में महिलाओं के अधिकारों को पुनः स्थापित करने का काम किया। इतना ही नहीं, जब उन्होंने राजनीतिक दल बनाया तो उसमें भी महिलाओं के लिए अलग से महिला विंग बनाकर उन्हें आगे बढ़ाया।
समता मूलक समाज की स्थापना
अब तीसरा पक्ष जिसमें हमें भगवान बुद्ध, गुरु रविदास और बाबा साहब की सोच में समानता लगती है, वह है समता मूलक समाज की स्थापना। गुरु रविदास की वाणी में यह पद देखिए-
‘ऐसा चाहूँ राज मैं जहाँ मिले सबन को अन्न,
छोट बड़े सब सम बसे रैदास रहे प्रसन्न।’
इससे साफ़ होता है कि गुरु महाराज के समय में छोटे-बड़े का भेद रहा था। सब को खाना नहीं मिल रहा होगा। तभी गुरु महाराज कह रहे हैं कि 'मुझे एक ऐसा समाज चाहिए जहाँ सभी समान हों और सभी को खाने के लिए अनाज मिल जाए।'
जहाँ तक समानता की बात है, भगवान बुद्ध ने अपने संघों में सभी को समान बताया। न कोई अमीर न कोई ग़रीब क्योंकि संघ में व्यक्तिगत संपत्ति रखना वर्जित था। जो भी संपत्ति भिक्षा में भिक्खुओं को मिलती थी वह संघ की होती थी। भिक्खु के पास संपत्ति के नाम पर उसका चीवर, दान पात्र, सुई-धागा आदि ही होंगे। संघ में समानता के प्रमाण में एक कहानी प्रचलित है। ठंड के समय भगवान बुद्ध के घर से एक गरम टोपी आयी, इस मनतव्य से कि भगवान उसे पहन लेंगे। पर भगवान बुद्ध ने संघ में ‘सभी भिक्खू बराबर हैं’ के सिद्धान्त का पालन करते हुए टोपी पहनने से मना कर दिया और शर्त रखी कि मैं टोपी केवल इस शर्त पर पहनूँगा जब सभी भिक्खुओं के लिए टोपी लायी जाय, अन्यथा मैं टोपी नहीं पहनूँगा। ऐसी थी समानता के प्रति भगवान बुद्ध की प्रतिबद्धता।
यहीं से ही बाबा साहब आंबेडकर ने समता का पाठ पढ़ा और जब उन्होंने संविधान की प्रस्तावना लिखी तो उसमें राष्ट्र के संविधान का यही लक्ष्य रखा कि हम भारत के लोग समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व और सामाजिक न्याय को समाज में स्थापित करेंगे।
लेकिन बाबा साहब ने समता एवं स्वतंत्रता के ऊपर बंधुत्व को स्थान दिया और कहा कि यह समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व मैंने फ्रांसीसी क्रांति से नहीं लिया है। यह तो मैंने अपने गुरु बुद्ध भगवान से लिया है। प्रश्न उठता है कि बाबा साहब ने बंधुत्व यानी भाईचारे को समता और स्वतंत्रता से ऊपर क्यों रखा? ऐसा इसलिए क्योंकि बाबा साहब का मानना था कि आप समता के लिए क़ानून बना सकते हैं, स्वतंत्रता के लिए क़ानून बना सकते हैं लेकिन बंधुत्व के लिए क़ानून नहीं बना सकते। इसलिए समता और स्वतंत्रता के लिए भाईचारा आवश्यक है। बुद्ध भगवान ने भी 'मैत्री' एवं 'संघ' बनाने पर इसीलिए ही बहुत ज़ोर दिया था। मैत्री पर गुरु रविदास कहते हैं-
‘कह रविदास खलास चमारा
जो हम सहरी सो मीत हमारा’
हमारे साथ रहने वाले सभी हमारे मीत होने चाहिए। और इसीलिए गुरु महाराज ने 'बेगमपुरा' की कल्पना की। एक ऐसा समाज जहाँ कोई दुख, दर्द, शोषण न हो। वह कहते हैं-
‘बेगमपुरा सहर को नाऊ,
दुख अन्दोहू नहीं तिही ठाऊ’
वेदों की महिमा को भी तीनों ने नकारा। भगवान बुद्ध ने तो वेदों को स्वीकारा ही नहीं। बाबा साहब आंबेडकर ने लिखा कि इस संसार में शास्वत सत्य नहीं है; कोई भी चीज प्रश्न या अन्वेषण से परे नहीं है, यानी सब कुछ पर प्रश्न किया जा सकता है। और गुरु महाराज ने तो यहाँ तक कहा कि ‘चारों वेद करौं खंदौडी’ यानी चारों वेदों का मैंने खंडन किया है। और इसी कड़ी में हमें याद रखना चाहिए कि सतगुरु रविदास जन्म को नहीं कार्य की प्रधानता को मानते हैं और कहते हैं-
‘रविदास जनम के कारने होउत न कोई नीच;
मानुख को नीच करि जाति है ओछे काम की चीज’
यानी जन्म से कोई नीच नहीं होता, ओछे काम से नीच होता है।
उपरोक्त आलोक में हम कह सकते हैं कि भगवान बुद्ध, सतगुरु रविदास और बाबा साहब आंबेडकर के विचारों में काफ़ी समानता है। वे वास्तविकता में मानव जाति की मुक्ति का आंदोलन चला रहे थे। अगर हम इनको सच्ची आदरांजलि देना चाहते हैं तो हमें इनके विचारों को मानव की मुक्ति के लिए प्रयोग करना चाहिए न कि उनकी भक्ति के लिए।
अपनी राय बतायें