"निस्संदेह स्वतंत्रता एक आनंद का विषय है। परंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस स्वतंत्रता ने हम पर बहुत जिम्मेदारियां डाल दी हैं। स्वतंत्रता के बाद कोई भी चीज गलत होने पर ब्रिटिश लोगों को दोष देने का बहाना समाप्त हो गया है। अब यदि कुछ गलत होता है तो हम किसी और को नहीं स्वयं को ही दोषी ठहरा सकेंगे।" -डॉ. आंबेडकर
देश आज आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। अंग्रेजों के आधिपत्य से मुक्त हुए 75 साल हो गए। आजादी के आंदोलन में कुछ सपने देखे गए थे। जाहिर तौर पर उन सपनों को बुनने के लिए संविधान बनाया गया। इसका दायित्व बाबा साहब आंबेडकर को मिला। उन्होंने स्वीकार किया कि दलित वंचित समाज के हितों के संरक्षण के लिए वे संविधान सभा में आए। लेकिन जब उन्हें प्रारूप समिति का अध्यक्ष बनाया गया तो समूचे भारतीय समाज के अधिकारों के संरक्षण की जिम्मेदारी उनके कंधों पर आ गई।
वे समता पर आधारित एक आर्थिक शक्ति संपन्न लोकतांत्रिक भारत बनाना चाहते थे। इसके लिए वे अस्वस्थ होने के बावजूद करीब तीन साल तक अनवरत संविधान निर्माण में लगे रहे। संविधान में पिरोए गए इन सपनों को साकार करने की जिम्मेदारी आने वाली सरकारों पर थी। आज यह सवाल पूछना जरूरी है कि क्या हम आंबेडकर के सपनों का भारत बना पाए हैं? अगर बना पाए हैं तो कितना? कहीं ऐसा तो नहीं है कि हम बाबा साहब के चित्रों पर फूल माला चढ़ाकर, उनकी जयंती मनाकर उनके विचारों और सपनों को कुचल रहे हैं? कहीं हम पीछे तो नहीं जा रहे हैं?
महाराष्ट्र की 'अछूत' महार जाति में जन्मे आंबेडकर ने वंचना, अपमान और तिरस्कार की पीड़ा को सहा था। वे चाहते थे कि आजाद भारत का दलित समाज इन वंचनाओं और प्रताड़नाओं से मुक्त हो।
बच्चे की मौत
20 मार्च 1927 को सार्वजनिक तालाब से पानी पीने के अधिकार के लिए बाबा साहब ने ‘महाड़ आंदोलन’ किया था। उस तालाब में जानवर तो पानी पी सकते थे, लेकिन अछूत बना दिए गए मनुष्य नहीं। ‘महाड़ आंदोलन’ के 95 साल बीतने और आजादी के 75 साल पूरे होने के बाद भारत में क्या दलितों की स्थिति में बदलाव हुआ है? राजस्थान के जालौर जिले के आरएसएस द्वारा संचालित सरस्वती विद्या मंदिर के ठाकुर अध्यापक छैल सिंह राजपूत ने स्कूल के मटके का पानी पीने के कारण तीसरी कक्षा के 8 साल के दलित इंद्र मेघवाल को इतना पीटा कि आखिर में उसकी मौत हो गई।
क्या यह बाबा साहब के सपनों का भारत है? बाबा साहब का स्पष्ट मानना था कि जाति पर आधारित भारतीय समाज कभी एक राष्ट्र नहीं हो सकता। "भारत में जातियां हैं। जातियां राष्ट्र विरोधी हैं।" क्योंकि ये परस्पर विद्वेष और बैर भाव पैदा करती हैं। इसीलिए बाबा साहब कहते हैं कि भारत राष्ट्र बनने की ओर है। एक राष्ट्र के लिए आंबेडकर स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को अपरिहार्य मानते हैं। फ्रांसीसी क्रांति से उपजे इन तीन शब्दों में बंधुत्व को बाबा साहब सबसे ज्यादा महत्ता देते हैं। वे कहते हैं कि स्वतंत्रता और समानता को कानूनी रूप से स्थापित किया जा सकता है, लेकिन बंधुता को नहीं। बंधुत्व के बिना स्वतंत्रता और समानता बेमानी हो जाएगी।
आंबेडकर सांप्रदायिक राजनीति को लेकर भी चौकन्ना थे। वे धर्म पर आधारित राष्ट्र की अवधारणा को खारिज करते हैं। दरअसल, धर्म एक पुरातन सामाजिक व्यवस्था है जबकि राष्ट्र एक आधुनिक राजनीतिक तंत्र।
सावरकर की हिंदुत्व की अवधारणा और हिन्दू महासभा की हिंदू राष्ट्र की मांग को डॉ. आंबेडकर पुरजोर तरीके से खारिज करते हैं। 1940 में बीबीसी को दिए इंटरव्यू में बाबा साहब ने कहा था कि हिंदू राष्ट्र बड़ी आपदा होगी। इसे किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए। अपनी किताब 'पाकिस्तान और द पार्टीशन ऑफ इंडिया' में इस बात को दोहराते हुए डा. आंबेडकर लिखते हैं- “यदि हिंदूराज सच में बन जाता है तो इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह इस देश के लिए सबसे बड़ी आपदा होगा।...हिंदू धर्म स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के लिए खतरा है। इसलिए ये लोकतंत्र के साथ नहीं चल सकता। किसी भी कीमत पर हिंदूराज को रोका जाना चाहिए।"
लेकिन बाबा साहब ने जिस समाज को हिंदू राष्ट्र को लेकर आगाह किया था, उसी के कंधों पर सवार होकर संघ और भाजपा छल, छद्म और झूठ के जरिए सत्ता में पहुंची है। आज उसके तमाम आनुषांगिक संगठन, सरेआम भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की मुनादी कर रहे हैं। बाबाओं की एक टोली ने तो हिंदू राष्ट्र का संविधान भी लिख दिया है। इसके अनुसार अल्पसंख्यकों को मताधिकार नहीं होगा और वर्णव्यवस्था के अनुसार न्यायिक प्रक्रिया होगी। इसका अर्थ है कि राष्ट्र मनुवाद पर आधारित होगा।
बाबा साहब मानते थे कि भेदभाव और शोषण पर आधारित जातिव्यवस्था के अनवरत जारी रहने का कारण हिन्दू धर्मशास्त्र हैं। मनुस्मृति शूद्रों, अछूतों और स्त्रियों की पराधीनता को जायज ठहराती है। इसीलिए बाबा साहब ने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर 25 दिसंबर 1927 को सार्वजनिक तौर पर मनुस्मृति का दहन किया था। आज दिल्ली हाईकोर्ट की एक महिला न्यायाधीश मनुस्मृति की स्तुतिनुमा प्रशंसा करती हैं। कुछ हिन्दुत्ववादी बाबा साहब के संविधान को बदलने की बात करने लगे हैं। क्या यह बाबा साहब के सपनों का भारत है? अथवा उनकी चेतावनी वाली आपदा?
बाबा साहब ने जातिवाद से मुक्त आर्थिक रूप से सुदृढ़ एक लोकतांत्रिक भारत का सपना देखा था। उनका सपना लोगों को धर्म और जाति से मुक्त करके नागरिक बनाना था। ऐसा नागरिक जो अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो, सजग हो। वे एक ऐसा भारत देखना चाहते थे जिसमें कुछ लोग विशेषाधिकार संपन्न और बाकी वंचित और अधिकार विहीन ना हों। उनका कहना था कि सामाजिक और आर्थिक समता के बिना लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा।
बाबा साहब की इस चेतावनी को हमने भुला दिया। नरेंद्र मोदी सरकार ने बाबा साहब के जन्मस्थल पर स्मारक बनवा दिया। उनकी जयंती को ईवेंट में बदल दिया। दशकों तक अपमान और आलोचना करने वाले संघ ने आंबेडकर को 'श्रेष्ठ हिन्दू' घोषित कर प्रातः स्मरणीय बना दिया।
दरअसल, यह उनके विचारों को खत्म करने की साजिश है। संघ हिन्दू राष्ट्र के एजेंडे पर बढ़ रहा है। जाहिर तौर पर इसमें लोकतंत्र को पोषित करने वाले मूल्यों - समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व - का कोई स्थान नहीं होगा।
भेदभावपूर्ण वर्णव्यवस्था और पितृसत्तात्मक समाज की अवधारणा पर आधारित हिन्दू राष्ट्र में दलित, आदिवासी, पिछड़े और स्त्रियाँ गुलामी का जीवन जीने के लिए अभिशप्त होंगे। बाबा साहब की उस चेतावनी की अनसुनी करना, उनके सपनों को भुला देना पूरी मानवता को खतरे में डालना होगा। इसकी आहट नहीं बल्कि मुनादी कानों में गूंज रही है। लेकिन अभी भी एक सवाल तनकर खड़ा है कि बाबा साहब का अनुयायी दलित वंचित समाज क्या इतनी आसानी से हिंदुत्ववादी शक्तियों के आगे घुटने टेक देगा!
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