देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस में विचार-मंथन चल रहा है। मुझे समुद्र मंथन की याद आ रही है। कहा जाता है कि समुद्र मंथन में विष भी निकला था और अमृत भी। दरअसल, हर मंथन में यही होता है, लेकिन सवाल होता है कि कौन शिव बन कर विष को गले में उतारना चाहता है, अमृत के लिए तो देवताओं से लेकर अब तक छीना-झपटी होती ही रही है। कांग्रेस में भी इसी अमृत के लिए पाले खिंचने लगे हैं। पार्टी की पिछले एक साल से अंतरिम अध्यक्ष रहीं सोनिया गाँधी के ‘मन की बात’ कांग्रेसियों को सुनाई आ गई है कि अब वो इस पद पर नहीं रहना चाहतीं। मुझे इस बात की क़तई जानकारी नहीं कि कांग्रेस के दो दर्जन आला नेताओं की चिट्ठी के बाद यह ‘मन की बात’ सामने आई है। सवाल तो किसी ने यह भी पूछा कि 17 साल अध्यक्ष रहने के बाद भी उन्हें ही अंतरिम अध्यक्ष बनाने की ज़रूरत क्यों पड़ी, कम से कम तब तो ग़ैर नेहरू-गाँधी परिवार के नेता को यह ज़िम्मेदारी सौंपी जा सकती थी, इससे उनके रहने से कांग्रेस के फ़ायदे नुक़सान का अंदाज़ा भी हो सकता था। अब जब चुनाव आयोग की मजबूरी सामने हो तो फिर नए अध्यक्ष के लिए कोशिशें शुरू करनी ही पड़ेंगी।
कांग्रेस ग़ैर नेहरू-गाँधी परिवार के नेता को अध्यक्ष बनाने से क्यों डरती है?
- विचार
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- 24 Aug, 2020

मुश्किल कांग्रेस में नया अध्यक्ष ढूँढने की नहीं है, परेशानी है पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र को मज़बूत करने की, जिसके लिए कोई तैयार नहीं है। आज ये सवाल इसलिए खड़े हो रहे हैं क्योंकि कांग्रेस पिछले 6 साल से सत्ता में नहीं है। कांग्रेस नेताओं को सत्ता के बिना रहने की आदत नहीं है।