ऊपर से देखने से लगता है कि टीआरपी के खेल ने न्यूज़ चैनलों को अराजक और ग़ैर-ज़िम्मेदार बना दिया है। मगर सचाई यह है कि इसमें सरकारों का भी बहुत बड़ा हाथ है। बल्कि अगर यह कहा जाए कि वे इसके लिए सबसे बड़ी ज़िम्मेदार हैं तो ग़लत नहीं होगा। आख़िरकार बाज़ारवाद को फैलाने और मनमानी करने की छूट भी उसी ने दी है। उसने उसे नियंत्रित-अनुशासित करने का कोई इंतज़ाम नहीं किया और जो थोड़े-बहुत उपाय किए भी तो उन्हें लागू नहीं किया।
उदाहरण के लिए केबल टीवी अधिनियम को ही ले लीजिए। सन् 1994 में तत्कालीन सरकार ने इसे बनाया था और सन् 1995 से लागू किया गया था। आज भी टीवी चैनलों का नियमन करने वाला यह एकमात्र क़ानून है। यह सही है कि जब यह क़ानून बनाया गया था तब एक भी न्यूज़ चैनल देश में नहीं था, इसलिए माना जा सकता है कि उस समय टीवी न्यूज़ के परिदृश्य की कल्पना भी नहीं की जा सकी होगी। लेकिन सन् 2002 में इसमें संशोधन किए गए और अब सितंबर, 2020 से फिर से इसमें बदलाव की प्रक्रिया शुरू की गई है। इसमें प्रस्ताव है कि जुर्माने और सज़ा के प्रावधान को और कड़ा किया जाए। इस बीच सन् 2014 में भी इसमें संशोधन करके आतंकवाद विरोधी कार्रवाई को लाइव दिखाने पर रोक लगाई गई थी।
लेकिन यह तो हम आज की बात कर रहे हैं। विडंबना यह है कि शुरुआत से ही इस क़ानून की उपेक्षा की गई। किसी भी सरकार ने इस क़ानून को ठीक से लागू करने की कोशिश नहीं की। किसी सरकार ने यह नहीं देखा कि इस क़ानून में जो व्यवस्थाएँ दी गई हैं, उनका उस समय के मनोरंजन चैनल या जो चैनल न्यूज़ दे रहे थे वे किस हद तक पालन कर रहे हैं और अगर नहीं कर रहे हैं तो उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई की जाए। बाद में जब न्यूज़ चैनल आए तो एक्ट में बदलावों के बावजूद लापरवाही का यह वातावरण बना रहा।
उस समय की ख़बरों को मर्यादा में रखने की परंपरा कायम करने में केबल टीवी एक्ट काफ़ी कारगर क़ानून साबित हो सकता था। इसमें केवल निर्देश ही नहीं हैं बल्कि दंडात्मक प्रावधान भी किए गए हैं। क़ानून का उल्लंघन करने वाले को पहली मर्तबा दो साल तक की जेल और पाँच हज़ार जुर्माना हो सकता है और अगर वह ग़लती दोहराता है तो पाँच साल तक की जेल और पचास हज़ार तक का जुर्माना लगाया जा सकता है। कहने का मतलब है कि यह बिना दंत-नख का क़ानून नहीं है और अगर सरकार इस क़ानून का सख़्ती से पालन करवाने पर उतर आती तो चैनलों की वह सब करने की हिम्मत ही नहीं होती जो वे बरसों से करते आ रहे हैं।
न्यूज़ चैनलों को कभी लगा ही नहीं कि इस क़ानून का पालन किया जाना चाहिए। उनके अंदर इसको लेकर न कोई जागरूकता रही और न ही भय, इसलिए वे धड़ल्ले से मनमानियाँ करते गए।
दरअसल, क़ानून तो बन गया मगर उसे लागू करने की न तो सरकारों की मंशा थी और न ही उनमें इसके लिए ज़रूरी इच्छा शक्ति ही। शायद न्यूज़ चैनलों के साथ उनकी मिलीभगत भी रही हो या वे उनसे डरती रही हों कि कहीं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर वे झंडा लेकर न खड़े हो जाएँ। यह भी संभव है कि बाज़ार का उन पर इतना दबाव रहा हो कि उन्होंने इस ओर से आँखें मूँद ली हों। उन्मुक्त बाज़ार में मीडिया किसी भी दूसरे उद्योग की तुलना में तेज़ी से विकसित हो रहा था। पंद्रह से बीस फ़ीसदी की सलाना दर से। यह भारत की विकास दर से लगभग दोगुनी थी। यहाँ तक कि 2008 की मंदी के दौर में भी यह विकास दर थोड़े-बहुत परिवर्तन के साथ जारी रही।
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सरकारों ने सुधार की राह रोकी?
कारण चाहे जो भी रहे हों, लेकिन सरकारों ने ख़ुद तो कुछ नहीं ही किया लेकिन यदि किसी दूसरे ने प्रयास किए तो उन्होंने उनका समर्थन भी नहीं किया और उल्टे उनकी राह में अड़चनें खड़ी कर दीं। इसका सबसे बढ़िया उदाहरण भारतीय दूरसंचार नियामक यानी ट्राई द्वारा की गई सिफ़ारिशों को ठंडे बस्ते में डालना रहा है।
ट्राई की सिफ़ारिशें दरअसल न्यूज़ चैनलों की सामग्री के संबंध में पैदा हो रही समस्याओं के समाधान की दिशा में ही एक क़दम था और वे मीडिया की स्वतंत्रता में उस तरह से दख़लंदाज़ी भी नहीं करती थीं। फिर भी अगर कोई आशंका किसी की थी तो उसका समाधान किया जा सकता था, मगर सरकारों ने तो उन पर विचार करना भी ज़रूरी नहीं समझा।
इसी तरह जब ट्राई ने केबल टीवी एक्ट के प्रावधानों के तहत न्यूज़ चैनलों में विज्ञापन का अनुपात लागू करने की पहल की तो उसे भी आगे नहीं बढ़ने दिया। एक्ट में स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि कम से कम पंद्रह मिनट के अंतराल में ही ब्रेक होंगे यानी एक घंटे में चार से अधिक ब्रेक नहीं होंगे। फ़िलहाल चैनल कम से कम छह ब्रेक लेते हैं और कई बार ये दस तक हो जाते हैं। इसी तरह यह प्रावधान है कि एक घंटे में 12 मिनट से ज़्यादा विज्ञापन नहीं लिए जा सकेंगे यानी किसी भी ब्रेक में तीन मिनट से अधिक विज्ञापन नहीं होंगे।
न्यूज़ चैनलों में विज्ञापन के मामले में पूरी तरह अराजकता फैली हुई थी। वे एक घंटे में पैंतीस-चालीस मिनट तक विज्ञापन ठूँस रहे थे। दीवाली जैसे त्यौहारों के समय तो वे एक घंटे में मुश्किल से दस-पंद्रह मिनट ही ख़बरें दिखाते थे और हर दूसरे मिनट पर ब्रेक ले लेते थे।
ट्राई ने जब इसे एक्ट के हिसाब से नियमित करने की कोशिश की तो हंगामा मच गया। तमाम प्रसारक गोलबंद हो गए। दुहाई यह दी जाने लगी कि चैनल वैसे ही घाटे में चल रहे हैं और अगर इसे लागू कर दिया गया तो वे बंद हो जाएंगे। वे ट्राई के ख़िलाफ़ गोलबंद हो गए। उन्होंने सरकार पर दबाव डाला और अदालत भी चले गए। ज़ाहिर है कि सरकार ट्राई के साथ खड़े होने के बजाय प्रसारकों के पक्ष में काम करने लगी और ट्राई की इस कोशिश को नाकाम कर दिया गया। यह भी प्रयास नहीं किया गया कि इस नियम में थोड़ी बहुत ढील देकर लागू किया जाए, बीच का रास्ता निकाला जाए।
अगर दर्शकों की तरफ़ से सोचा जाए तो यह एक बहुत सकारात्मक क़दम था। वे ख़बरें देखने चैनलों पर आते हैं न कि विज्ञापन देखने। उनके समय को बरबाद करने का किसी को कोई हक़ नहीं है। इसलिए विज्ञापनों को थोपा जाना उनके नागरिक एवं उपभोक्ता अधिकारों का उल्लंघन है। लेकिन दर्शकों के हितों की रक्षा के बारे में कोई सोचने के लिए तैयार होता तब न। दर्शकों की कहीं कोई सुनवाई भी नहीं होती। वह मजबूर है चैनलों द्वारा परोसा हुआ खाने को।
हमारे चैनल मोटे तौर पर इस प्रोग्रामिंग संहिता का ही मज़ाक उड़ा रहे हैं। वे डेढ़ दशक से भी ज़्यादा समय से खुल्लमखुल्ला ऐसा कर रहे हैं, मगर क़ानून को बनाने वाले और उनको लागू करने वाले मौनव्रत धारण किए हुए हैं।
दिलचस्प बात यह है कि न्यूज़ चैनलों को सामग्री के अपलिंकिंग तथा डाउनलिंकिंग का लाइसेंस सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय देता है और लाइसेंस के लिए यह एक शर्त होती है कि प्रसारणकर्ता केबल टीवी एक्ट का पालन करेगा। पालन न करने की स्थिति में उसके ख़िलाफ़ कार्रवाई करने, यहाँ तक कि लाइसेंस रद्द करने की चेतावनी भी शामिल होती है। लेकिन आज तक एक भी ऐसी मिसाल नहीं है जिसमें नियमों का उल्लंघन करने वाले किसी चैनल का लाइसेंस रद्द करना तो दूर कोई कार्रवाई भी की गई हो।
हाँ, अगर चैनल दूसरी विचारधारा का हो, सत्ता विरोधी हो तो उसे ज़रूर निशाना बनाया जाता है जैसे कि मोदी सरकार ने एनडीटीवी को बनाया था। आतंकवाद के ख़िलाफ़ चलाए जा रहे अभियान का सीधा प्रसारण केबल टीवी एक्ट के तहत 2015 में प्रतिबंधित कर दिया गया था और इसी को आधार बनाकर एनडीटीवी को लपेटने की कोशिश सरकार ने की थी, मगर वह नाकाम रही। मामला कोर्ट में गया, जहाँ सरकार की जमकर छीछालेदर हुई और उसे पीछे हटना पड़ गया।
बहरहाल, सरकार की इस कार्रवाई ने यह साबित कर दिया कि सरकारें केबल टीवी एक्ट का चुनिंदा इस्तेमाल करती हैं और उन्हें केवल अपनी राजनीति एवं सत्ता दिखती है। वे जनता के बारे में नहीं सोचतीं, अन्यथा इस क़ानून का इस्तेमाल वे न्यूज़ चैनलों की घटिया सामग्री पर अंकुश लगाने के लिए भी कर सकती थीं।
(लेखक ने टीआरपी और टेलीविज़न के संबंधों पर डॉक्टरेट की है। इस विषय पर उनकी क़िताब टीआरपी, टेलीविज़न न्यूज़ और बाज़ार काफी चर्चित रही है।)
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