कोरोना की मार से सबसे ज़्यादा पीड़ित महाराष्ट्र अब आरक्षण की मार से उबल रहा है। राजनीतिक दल कोरोना को पीछे छोड़कर आरक्षण के सवाल पर सड़क पर हैं। यह अलग बात है कि इनमें से कोई भी इस तरह कोरोना से बचाव के लिए सामने नहीं आया क्योंकि कोरोना से एकजुट वोट नहीं मिलना था जबकि जाति के आरक्षण के सवाल पर तो एकमुश्त वोट मिल सकता है।
फ़िलहाल सभी दलों की निगाहें अगले साल होने वाले स्थानीय निकायों के चुनावों पर हैं, इसलिए आरक्षण की इस आग को और भड़काया जा रहा है। इसकी आड़ में कोरोना में एक-दूसरे की मदद के नाम पर एकजुट हुए लोगों को फिर से बांटा जा रहा है।
राज्य में इन दिनों नौकरी और एडमिशन में मराठा आरक्षण और ओबीसी के लिए स्थानीय निकायों में आरक्षण के सवाल पर राजनीतिक फ़सल बोयी जा रही है। हम दोनों सवाल को समझने की कोशिश करेंगे। पहला सवाल मराठा आरक्षण का है। दो साल पहले मराठा आरक्षण को लेकर राज्य में मूक मोर्चा यानी साइलेंट प्रोटेस्ट हुआ था। जिसमें पूरे राज्य में 52 से ज़्यादा बड़ी रैलियाँ निकाली गयीं।
इसके लिए ड्रोन कैमरा शाट्स से लेकर ‘एक मराठा लाख मराठा’ जैसे नारे तक प्रायोजित किये गये।
असल में राज्य में खेती का नुक़सान होने के बाद अब तक संपन्न रही मराठा जाति को लगता है कि उसे भी पिछड़े वर्ग के तौर पर आरक्षण मिलना चाहिए। बड़े मराठा नेता जैसे उदयन राजे और शिवाजी महाराज के वंशज संभाजी राजे अब बीजेपी में हैं तो बीजेपी इनको फिर से आंदोलन के लिए उकसा रही है।
बीजेपी सरकार ने ओबीसी आरक्षण में तो मराठाओं को शामिल नहीं किया लेकिन अलग से 16 प्रतिशत आरक्षण दे दिया जिसके बाद महाराष्ट्र में आरक्षण 76 प्रतिशत तक पहुँच गया। सुप्रीम कोर्ट ने इसे खारिज कर दिया और कहा कि यह साबित नहीं होता कि मराठा सामाजिक और आर्थिक तौर पर पिछड़े हैं।
गायकवाड आयोग भी बना जिसने मराठाओं के बारे में पूरे आँकड़े ही नहीं दिये और कह दिया कि मराठा तो असल में कुनबी यानी काश्तकार हैं।
विदर्भ में कुनबी एक बड़ी ओबीसी जाति है जो मराठाओं से खुद को अलग मानती है। बीजेपी को भी पता था कि अदालत में यह नहीं टिक पायेगा लेकिन चुनाव के पहले कर दिया ताकि वोट मिल जाए। अब अदालत ने कहा कि केन्द्र या तो ओबीसी कमीशन से मराठा को लिस्ट में शामिल कर ले या आरक्षण बढ़ाने के लिए कानून लाए। अब बीजेपी इस अदालती हार के लिए शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस की तीन दलों की आघाडी सरकार को ज़िम्मेदार बता रही है। वह यह नहीं बता रही कि खुद उसने ही सही होमवर्क नहीं किया।
दूसरी तरफ़ ओबीसी को स्थानीय निकाय में आरक्षण का सवाल उलझ गया है। अदालत ने इसको भी खारिज कर दिया तो अब ओबीसी नेता इसे सुलगा रहे हैं। हैरानी की बात यह है कि राज्य में ओबीसी आयोग ही नहीं है जिसे यह फ़ैसला करना था तो अदालत ने इसे खारिज कर दिया। अब कांग्रेस के नेता अलग, तो एनसीपी के छगन भुजबल अलग से ‘ओबीसी आरक्षण दिलाओ मोर्चा’ निकाल रहे हैं।
कांग्रेस का फोकस भी अब ओबीसी राजनीति पर है क्योंकि उसके प्रमुख नाना पटोले कुनबी जाति से हैं। राज्य में क़रीब 22 फ़ीसदी मराठा और 26 फ़ीसदी ओबीसी हैं। जाहिर है सब चाहते हैं कि ये वोट उनको ही मिलें।
इस बीच एक और सवाल धनगर यानी जानवर पालने वाले समाज के आरक्षण के बारे में है। बीजेपी ने 2014 में उनको पहली कैबिनेट बैठक में आरक्षण देने की बात की थी लेकिन पाँच साल की बीजेपी सरकार में कुछ नहीं किया गया।
अब पूर्व मुख्यमंत्री देवेन्द्र फणनवीस ताल ठोक रहे हैं कि उनको सत्ता मिले तो चार महीने में सब आरक्षण के सवाल सुलटा देंगें। वहीं कांग्रेस एनसीपी उनको इसके लिए दोषी मान रही है। शिवसेना अब तक संभलकर चल रही है और मुख्यमंत्री की सलाह है कि आरक्षण के सवाल पर जातिगत बंटवारा ना करें। लेकिन राजनीति में ऐसी सलाह सुनता कौन है।
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