'पृथक विदर्भ' की माँग कोई नई नहीं है। महाराष्ट्र के गठन से पहले से भी अलग विदर्भ के गठन की बात चलती रही है। हर चुनाव आने पर यह जोर पकड़ लेती है लेकिन फिर शांत हो जाती है।
मुद्दे को भुनाते रहे नेता
'पृथक विदर्भ' की माँग के साथ हर समय छल हुआ है। कभी नेताओं ने छल किया तो कभी राजनीतिक पार्टियों ने। राजनीतिक पार्टियाँ कई सालों से चुनाव के समय इस मुद्दे का इस्तेमाल करती आई हैं। यह पृथक विदर्भ आंदोलन का इतिहास है। अपना फायदा और विदर्भ के मुद्दे को भूलने की क़ीमत ही सभी नेताओं ने अब तक वसूल की है। चुनाव ख़त्म, मुद्दा ग़ायब, ठीक उसी तरह जैसे मैच ख़त्म फुटबाल ग़ायब।
चुनाव आया नहीं कि फिर से पृथक विदर्भ की गेंद मैदान में फेंक दी जाती है और सभी राजनीतिक दल इसके साथ खेलना शुरू कर देते हैं। हर कोई यह बताने व जताने की जुगत में होता है कि हम 'पृथक विदर्भ' के समर्थक हैं और सत्ता में आए तो पृथक विदर्भ जरूर बनाएँगे।
2014 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने पृथक विदर्भ के मुद्दे का जमकर लाभ उठाया। बीजेपी ख़ुद को हमेशा छोटे राज्यों का पक्षधर बताती रही है।
विदर्भ में बहुत आगे रही बीजेपी
पिछले विधानसभा चुनाव में प्रचार के दौरान बीजेपी ने लोगों से वादा किया था कि उन्हें सत्ता मिली तो इस बार विदर्भ को राज्य ज़रूर बनाएँगे। बीजेपी ने पूर्व में छत्तीसगढ़, उत्तराखंड और झारखंड का गठन किया था इसलिए लोगों ने उस पर विश्वास किया और विधानसभा चुनाव में बीजेपी को विदर्भ क्षेत्र में पड़ने वाली 62 में से 44 सीटों पर विजय दे दी। जबकि विदर्भ में शिवसेना के पास 4, कांग्रेस के पास 10, राष्ट्रवादी कांग्रेस के पास मात्र 1 सीट और अन्य के पास सिर्फ़ 3 सीटें हैं।
लोगों में बीजेपी के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा
विधानसभा की ही तरह लोकसभा में भी विदर्भ में बीजेपी बेहद मज़बूत है। यहाँ की 11 सीटों में से 10 सीटें बीजेपी के पास ही हैं। लेकिन अब तक बीजेपी ने इस दिशा में कोई काम नहीं किया, लिहाजा लोगों का ग़ुस्सा तो फूटना ही था। यह ग़ुस्सा सिर्फ़ आम लोगों में ही नहीं है बीजेपी के विधायक आशीष देशमुख ने भी इस मुद्दे पर बीजेपी से इस्तीफ़ा देकर कांग्रेस का हाथ थाम लिया है। देशमुख ने बीजेपी पर आरोप लगाया कि साढ़े चार साल हो गए लेकिन विदर्भ को राज्य नहीं बनाया गया। दूसरी ओर कांग्रेस इसका समर्थन करती रही है।
बीजेपी ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में छोटे राज्यों के समर्थन की बात भी कही थी। लेकिन सत्ता में आते ही वह शिवसेना की दुहाई देने लगी, जो महाराष्ट्र के विभाजन के सख़्त ख़िलाफ़ है।
अधिवक्ता श्रीहरि अणे ने पृथक विदर्भ आंदोलन की कमान संभाल रखी है। बीजेपी ने ही अणे को राज्य का महाधिवक्ता बनाया था। लेकिन जब अणे ने पृथक विदर्भ की वकालत की तो शिवसेना ने इसका विरोध किया, इस पर उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया।
कभी कांग्रेस का गढ़ रहा विदर्भ
विदर्भ भी छत्तीसगढ़, झारखंड की ही तरह औद्योगिक और भरपूर खनिज संपदा का क्षेत्र है। विदर्भ क्षेत्र में शुरुआत से ही कांग्रेस का प्रभुत्व रहा है। जब कभी भी कांग्रेस की सूबे में सरकार बनी, पार्टी को विदर्भ क्षेत्र से भी बहुमत मिलता रहा है। इसी विदर्भ में इंदिरा गाँधी के जमाने में एक अलग कांग्रेस कमेटी हुआ करती थी जिसके नेता एनकेपी साल्वे, वसंत साठे और त्रिपुरे थे। इस तिकड़ी ने कांग्रेस को कभी विदर्भ में कमजोर नहीं होने दिया था।
राजीव गाँधी के सत्ता संभालने के बाद शरद पवार सहित प्रदेश के कई मराठा क्षत्रपों द्वारा अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए विदर्भ की कांग्रेस कमेटी को भंग कर दिया गया और तब से विदर्भ में कांग्रेस कमजोर होती चली गई।
आज स्थिति ऐसी है कि कांग्रेस की ओर से इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाला कोई सांसद तक लोकसभा में नहीं है। विलास राव मुत्तेवार, सतीश चतुर्वेदी, नितिन राउत, अनीस अहमद, मातोराव पोहासे, नरेश पुगलिया, शिवाजी राव मोगे जैसे कांग्रेसी नेताओं ने अलग विदर्भ राज्य के गठन के लिए कुछ न कुछ अभियान चलाए लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी के पृथक विदर्भ के अलिखित वादे और मोदी लहर ने उन्हें घर बिठा दिया।
बीजेपी पृथक विदर्भ की माँग को पूरा करने में विफल साबित हो रही है तो कांग्रेस इस मुद्दे को लेकर फिर से लोगों के बीच सक्रिय हो रही है।
विदर्भ से ही हैं फडणवीस, गडकरी
महाराष्ट्र में पहली बार विदर्भ का कोई नेता मुख्यमंत्री बना है, उसके अतिरिक्त मोदी मंत्रिमंडल में सबसे मजबूत मंत्री नितिन गडकरी भी विदर्भ से ही हैं। यदि अब भी विदर्भ को अलग राज्य का दर्जा नहीं मिला तो बीजेपी की लोकप्रियता का ग्राफ़ उतनी ही तेजी से नीचे गिर सकता है जितनी तेजी से 2014 के चुनावों में चढ़ा था।
कब सुलझेगी पहेली
वैसे, 2014 का चुनाव जीतने के बाद भी गडकरी ने विदर्भ को अलग विदर्भ राज्य बनाने की बीजेपी की प्रतिबद्धता को कई कार्यक्रमों में दोहराया था। उन्होंने इस मुद्दे पर कांग्रेस से समर्थन की भी अपील की थी। लेकिन विदर्भ की पहेली अभी भी अनसुलझी है। और अब हालात यहाँ तक पहुँच गए हैं कि जिस पृथक विदर्भ आंदोलन के नारे कभी बीजेपी नेताओं का जोश बढ़ाते थे आज इन्हीं नारों से उन्हें ग़ुस्सा आ रहा है।
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