कोरोना लॉकडाउन का असर बच्चों पर कितना घातक हुआ है यह यूनिसेफ़ की रिपोर्ट साफ़-साफ़ बताती है। स्कूल बंद होने से भारत में क़रीब 25 करोड़ बच्चे प्रभावित हुए। अब बड़ी संख्या में बच्चों के स्कूल छूटने का ख़तरा है। यह ख़तरा कितना बड़ा है इसका इससे ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि कोरोना संकट से पहले ही क़रीब 60 लाख बच्चे स्कूल छोड़ चुके थे। अब यदि आपको लगता है कि स्कूल बंद होने का ज़्यादा असर नहीं पड़ेगा क्योंकि ऑनलाइन शिक्षा दी ही जा रही है तो यूनिसेफ़ की रिपोर्ट ही ऑनलाइन शिक्षा की पोल खोलती है। दूसरी रिपोर्टें तो इसकी भयावह सचाई पहले से ही बताती रही हैं।
कोरोना काल में ऑनलाइन शिक्षा कितनी कारगर है या इसका कैसा असर है, इसकी सच्चाई जानने से पहले यह जान लें कि यूनिसेफ़ की रिपोर्ट क्या कहती है।
यूनिसेफ़ यानी संयुक्त राष्ट्र चिल्ड्रेन्स फ़ंड द्वारा बुधवार को जारी आँकड़ों के अनुसार कोरोना महामारी और लॉकडाउन के कारण पिछले साल के दौरान 15 लाख स्कूल बंद रहे। इससे भारत में प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों में 24 करोड़ 70 लाख बच्चों पर असर पड़ा।
यूनिसेफ़ ने स्कूल बंद होने के बच्चों पर ख़तरे के बारे में आगाह किया है, ख़ासकर उन बच्चों को लेकर जो सबसे ज़्यादा कमज़ोर और ग़रीब हैं। इसने कहा है कि यहाँ तक कि कोरोना संकट शुरू होने से पहले 60 लाख से ज़्यादा लड़कियाँ और लड़के स्कूल छोड़ चुके थे।
यूनिसेफ के बयान में चिंता जताई गई है कि जब कक्षाएँ दुबारा शुरू होंगी तो स्कूल ड्रॉपआउट दर यानी बच्चों के स्कूल छोड़ने वालों की दर कहीं ज़्यादा होगी।
इस बीच ऑनलाइन शिक्षा के माध्यम से बच्चों की पढ़ाई जारी रखने की कोशिश की गई, लेकिन इसका हस्र क्या हुआ यह किसी से छुपा नहीं है। लेडी श्रीराम कॉलेज की एक छात्रा ऐश्वर्या रेड्डी ने आत्महत्या कर ली। ऐश्वर्या लैपटॉप नहीं ख़रीद पा रही थीं और ऑनलाइन पढ़ाई करने में सक्षम नहीं थीं। उन्होंने सुसाइड नोट में लिखा था कि यदि वह शिक्षा जारी नहीं रख सकती तो जी नहीं सकती हैं।
कोरोना संक्रमण के कारण मार्च महीने में लॉकडाउन लगाने से पहले से ही स्कूल-कॉलेज बंद होने लगे थे और उसके बाद भी अधिकतर शिक्षण संस्थानों में यही दिक्कतें हैं। वे छात्र जो संपन्न घरों से आते हैं और शहरों में रहते हैं उनके सामने ज़्यादा दिक्कतें नहीं हैं। लेकिन उन छात्रों के सामने ज़्यादा दिक्कत है जिनके परिवार के लोगों की नौकरियाँ चली गई हैं या दूसरी आमदनी घट गई है।
ऐसे ग़रीब परिवारों को अपनी आर्थिक स्थिति को संभालना ही मुश्किल हो रहा है। ऐसे गंभीर आर्थिक संकट में भी ग़रीब परिवारों को अपने बच्चों के लिए मोबाइल खरीदना पड़ रहा है और इंटरनेट डाटा पर हर महीने रुपये ख़र्च करने पड़ रहे हैं।
यूनिसेफ़ का बयान भी इस ऑनलाइन शिक्षा पर आया है। इसमें कहा गया है, 'ऑनलाइन शिक्षा सभी के लिए एक विकल्प नहीं है क्योंकि चार में से केवल एक बच्चे के पास डिजिटल डिवाइस और इंटरनेट कनेक्टिविटी है। कोरोना से पहले भारत में केवल एक चौथाई घरों (24 प्रतिशत) की पहुँच इंटरनेट तक थी और इस मामले में एक बड़ा ग्रामीण-शहरी और लैंगिक विभाजन है।'
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गाँवों से आकर बड़े शहरों में पढ़ने वालों के सामने दोहरी मार पड़ी है। एक तो उनके परिवार की आर्थिक स्थिति ख़राब है और दूसरे ऑनलाइन पढ़ाई के लिए उनके सामने लैपटॉप, इंटरनेट/वाईफाई की समस्या है। गाँवों में तो इंटरनेट की स्पीड भी सही नहीं आती है। ऐसे में उनकी पढ़ाई नहीं हो पाती और परीक्षा में फ़ेल होने का डर बना रहता है।
सर्वे- 37% बच्चों को स्कूल छोड़ने की नौबत
ऐसा ही एक सर्वे पिछले साल नवंबर में आया था। द राइट टू एजुकेशन फोरम, सेंटर फ़ॉर बजट एंड पॉलिसी स्टडीज़ और चैंपियंस फ़ॉर गर्ल्स एजुकेशन ने यह सर्वे किया था। सर्वे के अनुसार, सिर्फ़ 26 फ़ीसदी छात्राओं और 37 फ़ीसदी छात्रों की ऑनलाइन क्लास के लिए मोबाइल और इंटरनेट तक पहुँच है। स्थिति तो इस कगार पर पहुँच गई कि 37 फ़ीसदी छात्राओं को स्कूल छोड़ने की नौबत आ गई। जिनकी इंटरनेट तक पहुँच है उनमें से भी कई इंटरनेट की स्पीड और ऑनलाइन परीक्षा के दौरान दूसरी तकनीकी गड़बड़ियों से इतने परेशान हैं कि शिक्षा उनके लिए भारी बोझ लगने लगी है।
यह सर्वे उत्तर प्रदेश, बिहार, असम, तेलंगाना और दिल्ली में 3176 परिवारों में किया गया था।
सर्वे में यह भी पाया गया कि सर्वे किए गए क़रीब 70% परिवारों के पास पर्याप्त भोजन नहीं था। 52 फ़ीसदी के पास टेलीविज़न था और सिर्फ़ 11 फ़ीसदी बच्चों की शैक्षणिक प्रसारण तक पहुँच थी।
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