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चुनावी बांड असंवैधानिक, रद्द करें, SBI कोई बांड जारी न करे, पैसा लौटाएंः सुप्रीम कोर्ट

लाइव लॉ के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को चुनावी बांड को असंवैधानिक करार दिया और कहा कि इसे रद्द करना होगा।  भारत के चीफ जस्टिस ने कहा- कंपनी अधिनियम में संशोधन (कॉर्पोरेट राजनीतिक फंडिंग की अनुमति) असंवैधानिक है। चीफ जस्टिस ने कहा कि भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) चुनावी बांड जारी करना बंद करे। एसबीआई अभी तक की सारी सूचनाएं 6 मार्च तक चुनाव आयोग दे। आयोग उन्हें 13 मार्च तक अपनी वेबसाइट पर प्रकाशित करेगा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राजनीतिक दलों को बांड का वो पैसा उन्हें देने वालों को वापस करना होगा, जिन बांडों को भुनाया नहीं गया है। 

एसबीआई राजनीतिक दलों द्वारा भुनाए गए चुनावी बांड का विवरण चुनाव आयोग को पेश करेगा। चुनाव आयोग इन विवरणों को 31 मार्च, 2024 तक वेबसाइट पर प्रकाशित करेगा।


-चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, सुप्रीम कोर्ट, 15 फरवरी 2024 सोर्सः लाइव लॉ

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जिन राजनीतिक दलों ने जो बांड अब तक नहीं भुनाए हैं, उन्हें वापस करना होगा। राजनीतिक दलों को चुनावी बांड की रकम खरीदार के खाते में लौटानी होगी।

सीजेआई चंद्रचूड़ ने कहा- ''संविधान केवल इसलिए आंखें नहीं मूंद लेता क्योंकि इसके दुरुपयोग की संभावना है। हमारी राय है कि काले धन पर अंकुश लगाना चुनावी बांड का आधार नहीं है।”

चुनावी बांड योजना सूचना के अधिकार का भी उल्लंघन है।


--चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, सुप्रीम कोर्ट, 15 फरवरी 2024 सोर्सः लाइव लॉ

चुनावी कॉरपोरेट फंडिंग भी अवैध 

सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस ने गुरुवार को कहा कि किसी कंपनी का राजनीतिक प्रक्रिया पर आम लोगों के योगदान की तुलना में अधिक गंभीर प्रभाव होता है। कंपनियों द्वारा राजनीतिक दलों की फंडिंग पूरी तरह से व्यावसायिक लेनदेन है। धारा 182 कंपनी अधिनियम में संशोधन स्पष्ट रूप से कंपनियों और व्यक्तियों के साथ एक जैसा व्यवहार करने के लिए मनमाना है।

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सीजेआई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संवैधानिक पीठ ने इससे पहले सुनवाई के दौरान राजनीतिक दलों के वित्तपोषण के लिए वैकल्पिक तरीकों की खोज करने का प्रस्ताव दिया था, जबकि मौजूदा प्रणाली की खामियों को दूर करने की बात कही थी। लेकिन सरकार कोई नया प्रस्ताव लेकर नहीं आई।

अदालत ने गुरुवार को माना है कि नागरिकों को सरकार को जिम्मेदार ठहराने का अधिकार है। सूचना के अधिकार के विस्तार का महत्वपूर्ण पहलू यह है कि यह केवल राज्य के मामलों तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसमें सहभागी लोकतंत्र के लिए आवश्यक जानकारी भी शामिल है।


सीजेआई ने कहा- राजनीतिक दल राजनीतिक प्रक्रिया में प्रासंगिक राजनीतिक इकाई हैं। मतदान का सही विकल्प अपनाने के लिए राजनीतिक फंडिंग के बारे में जानकारी आवश्यक है। आर्थिक असमानता राजनीतिक व्यस्तताओं के विभिन्न स्तरों को जन्म देती है। जानकारी तक पहुंच नीति निर्माण को प्रभावित करती है और बदले में बदले की व्यवस्था की ओर भी ले जाती है, जिससे सत्ताधारी पार्टी द्वारा किसी पार्टी को मदद मिल सकती है। चुनावी बांड योजना अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत सूचना के अधिकार का उल्लंघन है।

मोदी सरकार ने यह योजना 2018 में शुरू की थी। चुनावी बांड का इस्तेमाल ऐसी व्यवस्था है जिसके जरिए कंपनियां या कोई भी व्यक्ति किसी राजनीतिक दल को चंदा देने या आर्थिक मदद देने के लिए खरीद सकता है। राजनीतिक दल बदले में धन और दान के लिए इसे भुना सकते हैं। राजनीतिक फंडिंग में कथित पारदर्शिता लाने के प्रयासों के तहत चुनावी बॉन्ड योजना को राजनीतिक दलों को दिए जाने वाले नकद दान के विकल्प के रूप में पेश किया गया था।

योजना के प्रावधानों के अनुसार, केवल वे राजनीतिक दल जो लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 29ए के तहत रजिस्टर्ड हैं और जिन्हें पिछले लोकसभा या राज्य विधान सभा चुनावों में डाले गए वोटों का कम से कम 1 प्रतिशत वोट मिले हों। विधानसभा चुनावी बांड प्राप्त करने के लिए योग्य हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने पिछली सुनवाइयों के दौरान चुनावी बांड पर तीखी टिप्पणियां की हैं। उसकी कुछ टिप्पणियों पर नजर डालिएः
  • अदालत ने केंद्र सरकार से पूछा कि क्या राजनीतिक फंडिंग के लिए चुनावी बांड राजनीतिक दलों को "वैध रिश्वत" हैं। यह योजना समान अवसर उपलब्ध कराने में भी नाकाम रही है। इसमें दानकर्ता की पहचान छिपाने का मामला भी अजीबोगरीब है। सरकार को दानकर्ता के बारे में सारी जानकारी है लेकिन विपक्ष को कोई जानकारी नहीं है।
  • अदालत ने कहा था कि सरकार पारदर्शी योजना या ऐसी योजना लाने में नाकाम रही, जिसमें सभी दलों के लिए समान अवसर हों। ऐसे में अगर इस योजना को रद्द किया जाता है तो इसका यह मतलब नहीं लगाया जाए कि हम राजनीतिक चंदे को बेहिसाब नकदी और काले धन के युग में धकेलने की कोशिश कर रहे हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने पिछली सुनवाई पर कहा था- चुनावी बांड योजना के साथ समस्या यह है कि इसमें दानदाता की पहचान छिपाना चयनात्मक है। यानी यह पूरी तरह से पहचान नहीं छिपा पाती। एसबीआई या कानूनी जांच एजेंसियों के लिए दानदाता गोपनीय नहीं है। इसलिए, कोई बड़ा दानकर्ता किसी राजनीतिक दल को देने के लिए इन बांडों को खरीदने का जोखिम कभी नहीं उठाएगा। एक बड़े दानकर्ता को बस दान को कई लोगों में बांटना है जो आधिकारिक बैंकिंग चैनल के जरिए छोटे बांड खरीदेगा। एक बड़ा दानकर्ता कभी भी एसबीआई के बही-खातों के झमेले में खुद को दांव पर नहीं लगाएगा। इस योजना से ऐसा करना मुमकिन है क्योंकि इसमें पहचान छिपाना चयनात्मक है।
इस मामले में पिछली सुनवाई पर सरकार की दलील थी कि संभावित दुरुपयोग इस योजना को कानून की दृष्टि से खराब ठहराने का आधार नहीं हो सकता है, जबकि इसका उद्देश्य वास्तव में कैश में मिलने वाले राजनीतिक दान को बैंकिंग चैनलों के जरिए लाना था। इस पर जस्टिस मनोज मिश्रा ने कहा कि ईबी योजना की यही "अस्पष्टता" चुनावी राजनीति में समान अवसर देने में नाकाम है, क्योंकि अधिकांश धन हमेशा सत्ता में रहने वाली पार्टी को जाएगा, चाहे वह केंद्र में हो या राज्य में। 

अदालत ने तब कहा था कि “हम चुनावी प्रक्रिया में सफेद धन लाने की कोशिश तो कर रहे हैं लेकिन इसकी सूचना देने वाले तंत्र में छेद है।आपका मकसद पूरी तरह प्रशंसनीय हो सकता है, लेकिन सवाल यह है कि क्या आपने ऐसे साधन अपनाए हैं जो अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) की कसौटी पर खरे उतरते हैं?' 

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सरकार की ओर से एजी तुषार मेहता ने कहा था कि चुनावी बांड स्कीम के गोपनीयता हिस्से को इस योजना का "हृदय और आत्मा" कहा। उनका तर्क था कि इसका मकसद दान देने वालों के पहचान की रक्षा करना उन्हें नकदी आधारित अर्थव्यवस्था को कानूनी अर्थव्यवस्था में लाने के लिए प्रोत्साहित करना था।

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क़मर वहीद नक़वी
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