#BREAKING CJI : Electoral bonds scheme has to be struck down as unconstitutional.#SupremeCourt #ElectoralBonds
— Live Law (@LiveLawIndia) February 15, 2024
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एसबीआई राजनीतिक दलों द्वारा भुनाए गए चुनावी बांड का विवरण चुनाव आयोग को पेश करेगा। चुनाव आयोग इन विवरणों को 31 मार्च, 2024 तक वेबसाइट पर प्रकाशित करेगा।
-चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, सुप्रीम कोर्ट, 15 फरवरी 2024 सोर्सः लाइव लॉ
सीजेआई चंद्रचूड़ ने कहा- ''संविधान केवल इसलिए आंखें नहीं मूंद लेता क्योंकि इसके दुरुपयोग की संभावना है। हमारी राय है कि काले धन पर अंकुश लगाना चुनावी बांड का आधार नहीं है।”
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चुनावी बांड योजना सूचना के अधिकार का भी उल्लंघन है।
--चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, सुप्रीम कोर्ट, 15 फरवरी 2024 सोर्सः लाइव लॉ
चुनावी कॉरपोरेट फंडिंग भी अवैध
सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस ने गुरुवार को कहा कि किसी कंपनी का राजनीतिक प्रक्रिया पर आम लोगों के योगदान की तुलना में अधिक गंभीर प्रभाव होता है। कंपनियों द्वारा राजनीतिक दलों की फंडिंग पूरी तरह से व्यावसायिक लेनदेन है। धारा 182 कंपनी अधिनियम में संशोधन स्पष्ट रूप से कंपनियों और व्यक्तियों के साथ एक जैसा व्यवहार करने के लिए मनमाना है।
सीजेआई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संवैधानिक पीठ ने इससे पहले सुनवाई के दौरान राजनीतिक दलों के वित्तपोषण के लिए वैकल्पिक तरीकों की खोज करने का प्रस्ताव दिया था, जबकि मौजूदा प्रणाली की खामियों को दूर करने की बात कही थी। लेकिन सरकार कोई नया प्रस्ताव लेकर नहीं आई।
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अदालत ने गुरुवार को माना है कि नागरिकों को सरकार को जिम्मेदार ठहराने का अधिकार है। सूचना के अधिकार के विस्तार का महत्वपूर्ण पहलू यह है कि यह केवल राज्य के मामलों तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसमें सहभागी लोकतंत्र के लिए आवश्यक जानकारी भी शामिल है।
सीजेआई ने कहा- राजनीतिक दल राजनीतिक प्रक्रिया में प्रासंगिक राजनीतिक इकाई हैं। मतदान का सही विकल्प अपनाने के लिए राजनीतिक फंडिंग के बारे में जानकारी आवश्यक है। आर्थिक असमानता राजनीतिक व्यस्तताओं के विभिन्न स्तरों को जन्म देती है। जानकारी तक पहुंच नीति निर्माण को प्रभावित करती है और बदले में बदले की व्यवस्था की ओर भी ले जाती है, जिससे सत्ताधारी पार्टी द्वारा किसी पार्टी को मदद मिल सकती है। चुनावी बांड योजना अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत सूचना के अधिकार का उल्लंघन है।
योजना के प्रावधानों के अनुसार, केवल वे राजनीतिक दल जो लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 29ए के तहत रजिस्टर्ड हैं और जिन्हें पिछले लोकसभा या राज्य विधान सभा चुनावों में डाले गए वोटों का कम से कम 1 प्रतिशत वोट मिले हों। विधानसभा चुनावी बांड प्राप्त करने के लिए योग्य हैं।
- अदालत ने केंद्र सरकार से पूछा कि क्या राजनीतिक फंडिंग के लिए चुनावी बांड राजनीतिक दलों को "वैध रिश्वत" हैं। यह योजना समान अवसर उपलब्ध कराने में भी नाकाम रही है। इसमें दानकर्ता की पहचान छिपाने का मामला भी अजीबोगरीब है। सरकार को दानकर्ता के बारे में सारी जानकारी है लेकिन विपक्ष को कोई जानकारी नहीं है।
- अदालत ने कहा था कि सरकार पारदर्शी योजना या ऐसी योजना लाने में नाकाम रही, जिसमें सभी दलों के लिए समान अवसर हों। ऐसे में अगर इस योजना को रद्द किया जाता है तो इसका यह मतलब नहीं लगाया जाए कि हम राजनीतिक चंदे को बेहिसाब नकदी और काले धन के युग में धकेलने की कोशिश कर रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने पिछली सुनवाई पर कहा था- चुनावी बांड योजना के साथ समस्या यह है कि इसमें दानदाता की पहचान छिपाना चयनात्मक है। यानी यह पूरी तरह से पहचान नहीं छिपा पाती। एसबीआई या कानूनी जांच एजेंसियों के लिए दानदाता गोपनीय नहीं है। इसलिए, कोई बड़ा दानकर्ता किसी राजनीतिक दल को देने के लिए इन बांडों को खरीदने का जोखिम कभी नहीं उठाएगा। एक बड़े दानकर्ता को बस दान को कई लोगों में बांटना है जो आधिकारिक बैंकिंग चैनल के जरिए छोटे बांड खरीदेगा। एक बड़ा दानकर्ता कभी भी एसबीआई के बही-खातों के झमेले में खुद को दांव पर नहीं लगाएगा। इस योजना से ऐसा करना मुमकिन है क्योंकि इसमें पहचान छिपाना चयनात्मक है।
अदालत ने तब कहा था कि “हम चुनावी प्रक्रिया में सफेद धन लाने की कोशिश तो कर रहे हैं लेकिन इसकी सूचना देने वाले तंत्र में छेद है।आपका मकसद पूरी तरह प्रशंसनीय हो सकता है, लेकिन सवाल यह है कि क्या आपने ऐसे साधन अपनाए हैं जो अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) की कसौटी पर खरे उतरते हैं?'
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