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समलैंगिकता अपराध नहीं तो समलैंगिक के जज बनने में रुकावट क्यों?

समलैंगिक होना भले ही अपराध नहीं हो, लेकिन क्या समलैंगिक होने के कारण जज बनने में रुकावट आ सकती है? दिल्ली हाई कोर्ट में एक काबिल वकील के जज बनने में लगता है यह आड़े आ रहा है। वकील की योग्यता को देखते हुए दिल्ली हाई कोर्ट के कॉलेजियम ने जज नियुक्त करने के लिए 13 अक्टूबर 2017 को नाम भेजा, लेकिन सुप्रीम कोर्ट पिछले दस महीने में तीन बार इस पर फ़ैसला टाल चुका है। हालाँकि, बताया जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से वकील के बारे में और जानकारी माँगी है और सरकार की रिपोर्ट पर ही फ़ैसला टल रहा है। यह अजीब बात है कि ख़ुद को प्रगतिशील समाज कहने और दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश का तमगा दिए जाने पर गौरवान्वित महसूस करने वाले लोग समलैंगिकता पर ‘दकियानूसी’ हो जाते हैं। अपने देश में प्रचलित लोकतंत्र की तुलना अमेरिका से तो करते हैं लेकिन यह नहीं देखते कि अमेरिका में आज से 16 साल पहले ही यानी 2003 में ही ख़ुद को खुलेआम समलैंगिक घोषित करने वाले राइव्स किस्टलर को जज बना दिया गया था। अमेरिका में अब तक कुल ऐसे 12 जज हुए हैं जो ख़ुद को खुलेआम समलैंगिक कहते हैं जिसमें से 10 तो अभी कार्यरत भी हैं। ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ़्रीका जैसे देशों में भी समलैंगिक जज हैं। तो हमारी स्थिति क्या है?

यदि दक्ष हो, योग्यता पूरी हो, सभी मापदंडों पर ख़रा उतरता हो तो क्या व्यक्तिगत सेक्सुअल पसंद को किसी पद पर नियुक्ति में बाधक माना जाना चाहिए? यदि फ़ैसले इससे प्रभावित होते हैं तो हम कितने प्रगतिशील समाज हैं और समानता में कितना विश्वास रखते हैं?

वकील के जज नियुक्त करने में फ़ैसले टालने की वजह समलैंगिता को नहीं बताया गया है। यह वजह हो भी नहीं सकती है, क्योंकि समलैंगिकता देश में अब अपराध नहीं रहा। लेकिन उनके जज बनने के मामले में फ़ैसले टलने की जो वजहें मीडिया रिपोर्ट में सामने आई है वह भी ज़्यादा दमदार नहीं लग रही हैं। अंग्रेज़ी अख़बार ‘इकोनॉमिक टाइम्स’ की रिपोर्ट है कि जब वकील को जज बनाने की अनुशंसा सुप्रीम कोर्ट में पहुँची तो कोर्ट ने वकील के बारे में और जानकारी माँगी। कहा जा रहा है कि अब जो सरकार की ओर से आईबी यानी इंटेलिजेंस ब्यूरो ने जानकारी दी है उसमें वकील के विदेशी ‘साथी’ होने के कारण ‘सुरक्षा जोख़िम’ का हवाला दिया गया है। वकील कई वर्षों से अपने ‘साथी’ एक विदेशी नागरिक के साथ रह रहे हैं।

‘इकोनॉमिक टाइम्स’ ने लिखा है कि हाई कोर्ट का प्रस्ताव सरकार को मिलने पर इंटेलिजेंस ब्यूरो ने रिपोर्ट तैयार की और इसमें वकील के विदेशी साथी के साथ रहने का उल्लेख किया गया है। प्रक्रिया के तहत आईबी की रिपोर्ट, सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम को भेजी गई थी। बताया जाता है कि आईबी की रिपोर्ट से इस तथ्य का संकेत मिलता है कि वकील का ‘साथी’ एक विदेशी नागरिक है और रिपोर्ट के अनुसार, यह 'सुरक्षा जोख़िम' पैदा कर सकता है। हालाँकि, कथित ‘सुरक्षा जोख़िम’ की यह रिपोर्ट कॉलेजियम पर बाध्यकारी नहीं है। 

सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने इस ‘सुरक्षा जोख़िम’ पर ज़्यादा जानकारी माँगी है। लेकिन सरकार का मानना है कि आईबी रिपोर्ट पर्याप्त और व्यापक है। अख़बार ने सूत्रों के हवाले से लिखा है कि आईबी के पास वकील के संबंध या उसके साथी की राष्ट्रीयता से उत्पन्न सुरक्षा ख़तरों पर कोई अतिरिक्त जानकारी नहीं हो सकती है।

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जज की छवि पर रिपोर्ट

लेकिन जो सबसे महत्वपूर्ण बात है वह यह है कि इस रिपोर्ट में भी वकील के ख़िलाफ़ दूसरी कोई भी नकारात्मक बात नहीं की गई है। अख़बार के अनुसार इस रिपोर्ट ने वकील के पेशेवर रवैये को बढ़िया और साफ़-सुथरा बताया है। इसमें क़ानूनी स्रोतों का हवाला देते हुए यह भी कहा गया है कि उनकी ईमानदारी संदेह से परे है। इसका साफ़ मतलब यह है कि एक जज के लिए जो योग्यता होनी चाहिए उसमें वह पूरी तरह फ़िट बैठते हैं। इसके बावजूद उनके नाम पर फ़ैसला क्यों बार-बार टल रहा है?

समलैंगिकता पर हम कितने प्रगतिशील?

वकील के जज बनाने की हाई कोर्ट की सिफ़ारिश पर सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने पहली बार 4 सितंबर, 2018 को तब विचार किया था जब उसी के आसपास समलैंगिकता से जुड़ी धारा 377 पर कोर्ट ने ऐतिहासिक फ़ैसला दिया था। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के नेतृत्व में सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ ने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से हटा दिया था। इस फ़ैसले से पहले समलैंगिक यौन संबंध आईपीसी की धारा 377 के तहत एक आपराधिक जुर्म था।

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समलैंगिकता पर फ़ैसले के बाद भी वकील के प्रस्ताव पर 16 जनवरी और 1 अप्रैल को विचार किया गया। अख़बार की रिपोर्ट में कहा गया है कि आख़िरी बार सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम में शामिल जस्टिस रंजन गोगोई, एस.ए. बोबडे और एन.वी. रमना ने बिना किसी कारण का हवाला दिए प्रस्ताव को टाल दिया। 

यानी सवाल वही है कि जज बनाने का फ़ैसला क्यों टल रहा है? इससे पहले भी सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस विवियन बोस का विवाह एक विदेशी नागरिक से हुआ था। उन पर ‘सुरक्षा जोख़िम’ का मामला नहीं बना था। तो क्या इस मामले में समलैंगिकता ही एक मात्र वजह तो नहीं? और यदि ऐसा है तो समलैंगिकता की वजह से जज नहीं बनाया जाना क्या एक समाज के रूप में पीछे की ओर जाना नहीं होगा?

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अमित कुमार सिंह
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