सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को विदेशी चंदा (विनियमन) अधिनियम यानी एफ़सीआरए 2010 के मामले में केंद्र को एक बड़ी राहत दी है। अदालत ने इस अधिनियम के प्रावधानों में कुछ संशोधनों की वैधता को बरकरार रखा है। ये संशोधन सितंबर 2020 में लागू किये गये थे। अदालत ने अपनी टिप्पणी में कहा है कि विदेशी योगदान के दुरूपयोग के पिछले अनुभव के कारण सख़्त नियम ज़रूरी हो गया था।
सुप्रीम कोर्ट ने संशोधनों को मंजूरी देते हुए कहा कि वे अनिवार्य रूप से सार्वजनिक व्यवस्था और आम जनता के हित में विचार किए गए थे क्योंकि इसका उद्देश्य दुरुपयोग को रोकना है। एक संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य के मूल्यों की रक्षा के लिए विदेशी स्रोतों से आने वाले विदेशी चंदे के दुरुपयोग को रोकना ज़रूरी है।
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय तीन रिट याचिकाओं पर आया है। इनमें से दो ने 2020 में किए गए संशोधनों को चुनौती दी, जबकि तीसरे ने संशोधित और अधिनियम के अन्य प्रावधानों को सख्ती से लागू करने की प्रार्थना की थी।
नोएल हार्पर और जीवन ज्योति चैरिटेबल ट्रस्ट द्वारा दायर रिट याचिकाओं ने संशोधनों को चुनौती देते हुए कहा था कि उन संशोधनों ने विदेशी धन के उपयोग में गैर सरकारी संगठनों पर कठोर और काफ़ी ज़्यादा प्रतिबंध लगाए हैं। इस मामले में सुनवाई कर अदालत ने 9 नवंबर 2021 को फ़ैसला सुरक्षित रख लिया था।
जस्टिस एएम खानविलकर, दिनेश माहेश्वरी और सी टी रविकुमार की बेंच ने कहा, 'विदेशी दान प्राप्त करना संपूर्ण या निहित अधिकार नहीं हो सकता है।' इसने अपने फ़ैसले में कहा कि 'हम ऐसा इसलिए कहते हैं क्योंकि विदेशी चंदे से राष्ट्रीय राजनीति के प्रभावित होने की संभावना के सिद्धांत को विश्व स्तर पर मान्यता प्राप्त है।'
अदालत ने कहा कि विदेशी चंदा का देश के सामाजिक-आर्थिक ढांचे और राजनीति के मामले में ठोस प्रभाव हो सकता है। विदेशी सहायता एक विदेशी योगदानकर्ता की उपस्थिति पैदा कर सकती है और देश की नीतियों को प्रभावित कर सकती है। यह राजनीतिक विचारधारा को प्रभावित कर सकती है या थोप सकती है।'
पीठ ने कहा, 'हमें इस तर्क में दम लगता है कि संसद के लिए क़दम उठाना और विदेशी योगदान के प्रवाह और उपयोग को प्रभावी ढंग से विनियमित करने के लिए एक कठोर नियम ज़रूरी हो गया था।'
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