भारतीय जनता पार्टी के प्रिय विषय समान नागरिक संहिता एक बार फिर बहस के केंद्र में लौटने वाली है, हालाँकि इस बार इसकी शुरुआत पार्टी ने नहीं की है। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की यह कह कर आलोचना की है कि हिन्दू अधिनियम 1956 में लागू होने के 63 साल बीत जाने के बाद भी संविधान के अनुच्छेद 44 की अनदेखी की गई है और समान नागरिक संहिता लागू करने की कोशिश नहीं की गई है।
जस्टिस दीपक गुप्ता और जस्टिस अनिरुद्ध बहल के खंडपीठ ने एक अहम फ़ैसले में इस पर दुख जताया कि अनुच्छेद 44 के तहत पूरे देश के सभी नागरिकों के लिए एक क़ानून लागू करने में कामयाबी अब तक नहीं मिली है। इस वजह से गोवा के लोगों की जायदाद पर क़ानूनी हक़ के मामले में पुर्तगाली नागरिक संहिता 1867 के प्रावधान ही लागू होते हैं, भले वे गोवा के बाहर ही हों।
अदालत ने क्या कहा?
जस्टिस गुप्ता ने कहा, 'गोवा एक ऐसा उदाहरण है जहाँ हर नागरिक पर समान नागरिक संहिता लागू होती है भले ही वे किसी भी धर्म का हो, जिन मुसलमानों की शादी का पंजीकरण गोवा में हुआ है, वे बहुविवाह नहीं कर सकते। इसलाम मानने वाले भी मौखिक तलाक़ यानी तीन तलाक़ नहीं दे सकते।'
जिस मामले पर यह फ़ैसला सुनाया गया, उसकी याचिका दायर करने वाले होसे पॉलो कोटीन्यो के वकील देवदत्त कामत की अपील को अदालत ने मंजूर कर लिया। खंडपीठ ने कहा, 'पुतर्गाली नागरिक संहिता 1867 गोवा के हर नागरिक पर लागू होगी, यह उस संपत्ति के उत्तराधिकार से जुड़े मामलों पर भी लागू होगी, जो गोवा राज्य के बाहर देश में कहीं भी स्थित हैं।'
फ़ैसले में क्या है?
खंडपीठ ने कहा, 'यह दिलचस्प है कि संविधान बनाने वालों ने अनुच्छेद 44 के तहत यह उम्मीद की थी कि डाइरेक्टिव प्रिंसिपल ऑफ़ स्टेट पॉलिसी को लागू करने की कोशिश करेंगे। उन्होंने यह उम्मीद की थी कि पूरे देश के हर हिस्से के तमाम लोगों पर एक क़ानून लागू करने की कोशिश की जाएगी, पर इस मामले में अब तक कोई कार्रवाई नहीं की गई है।'
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि इसके पहले भी उसने केंद्र सरकार को समान नागरिक संहिता लागू करने के मुद्दे पर सलाह दी थी। लेकिन उसके बाद भी कोई कार्रवाई नहीं की गई। उसने कहा कि शाह बानो मामले में अदालत ने अपनी टिप्पणी में समान नागरिक संहिता लागू करने की बात कही थी ताकि इस तरह की स्थिति ही पैदा न हो।
क्या था शाह बानो केस?
तक़रीबन 35 साल पहले उत्तर प्रदेश की रहने वाली बुजुर्ग महिला शाह बानो को उसके पति ने तीन बार तलाक़ कह कर घर से निकाल दिया था। उन्होंने भरण-पोषण की माँग करते हुए सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने मान लिया। अपने ऐतिहासिक फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने शाह बानो को भरण-पोषण देने का आदेश दिया था। बाद में राजीव गाँधी की सरकार ने संविधान में संशोधन कर उस फ़ैसले को उलट दिया था।
सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा था शाह बानो केस में?
सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की थी, 'समान नागरिक संहिता से परस्पर विरोधी सिद्धान्तों के लिए प्रतिबद्धता दूर होगी और इससे राष्ट्रीय अखंडता मजबूत होगी।'सर्वोच्च अदालत ने शाह बानो मामले के पहले भी एक मामले में कहा था कि समान नागरिक संहिता लागू की जानी चाहिए। उसने सरला मुद्गल मामले पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि समान नागरिक संहिता नहीं लागू होना अनुचित है।
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जब 80 प्रतिशत से ज़्यादा नागरिकों को नागरिक संहिता के तहत लाया गया, सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता नहीं होने को किसी भी तरह उचित नहीं ठहराया जा सकता।
सरला मुद्गल मामले में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी
इसी तरह सुप्रीम कोर्ट ने 2003 में जॉन वलामत्तम मामले में कहा था कि संविधान के अनुच्छेद 44 को लागू किया जाना चाहिए।
यह एक शुद्ध क़ानूनी मामला है, पर इसके राजनीतिक मायने हैं। सत्तारूढ़ भारतीय जनता दल, उसके पहले की मूल पार्टी जनसंघ और उन सबकी मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का शुरू से ही यह मानना है कि सभी नागरिकों के लिए समान संहिता होनी चाहिए। इसकी तीन मुख्य बातें रही हैं,
अनुच्छेद 370, समान नागरिक संहिता और राम मंदिर। बीजेपी की पूरी राजनीति भी इन तीन मुद्दों के इर्द-गिर्द घूमती रही है।
पहले यह कहा जाता था कि पार्टी इन तीन मुद्दों पर सिर्फ़ राजनीति करती है, इन्हें कभी लागू नहीं करेगी। पर अनुच्छेद 370 में संशोधन कर जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जा को ख़त्म कर दिया गया। इसके बाद लोग यह अनुमान लगाने लगे कि अब सत्तारूढ़ दल समान नागरिक संहिता का मुद्दा ज़ोरशोर से उठा सकती है। लगता, बीजेपी को एक सुनहरा मौका मिल गया, वह सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले को हाथोंहाथ लेगी।
पर्यवेक्षकों का कहना है कि बीजेपी समान नागरिक संहिता के बहाने मुसलमानों को निशाने पर लेने की कोशिश करेगी। मुसलिम समाज और उनके प्रतिनिधि समान नागरिक संहिता का विरोध यह कह कर करते हैं कि यह उनके धर्म में हस्तक्षेप है, क्योंकि वे शादी-ब्याह और निजी जायदाद के बँटवारे जैसे मुद्दों पर शरीयत के नियम के मुताबिक़ चलना चाहते हैं लेकिन समान नागरिक संहिता इसकी इजाज़त नहीं देती। उनका कहना है कि भारत का संविधान सबको धार्मिक आज़ादी देता है, इस तरह यह उनके धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का भी उल्लंघन है।
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