लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मज़दूरों की स्थिति, उस पर हुई आलोचना और सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद हुई किरकिरी से केंद्र सरकार तिलमिलाई हुई है। इस तिलमिलाहट में सरकार ने आलोचना करने वालों का मुँह बंद करने की कोशिश तो की ही है, न्यायपालिका से जुड़े लोगों को भी अपने निशाने पर लिया है और उनकी बेहद तीखी आलोचना की है, उन पर निजी हमले तक किए हैं। यह अप्रत्याशित है।
बता दें कि देश के 20 बहुत ही मशहूर और बड़े वकीलों ने एक चिट्टी लिख कर सुप्रीम कोर्ट से कहा था कि प्रवासी मज़दूरों की स्थिति उनके मौलिक अधिकारों का हनन है। इसके साथ ही इन वकीलों ने सर्वोच्च न्यायालय को उसके उत्तरदायित्व का अहसास कराते हुए कहा था कि संकट की इस घड़ी में न्यायपालिका को इन मौलिक अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए क्योंकि यह उनका संवैधानिक कर्तव्य है।
इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने प्रवासियों के मामले का स्वत संज्ञान लिया केंद्र और राज्य सरकारों को नोटिस दिया।
गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट में इस पर सुनवाई हुई। सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार का रवैया चौंकाने वाला था।
सरकार का तीखा हमला
सरकार की तरफ से पैरवी कर रहे सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सुप्रीम कोर्ट को चिट्ठी लिखने वाले वकीलों की ओर इशारा करते हुए नाम लिए बग़ैर बेंच से कहा कि,
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‘जो लोग आपके पास आते हैं, उनसे ख़ुद को साबित करने के लिए कहें। वे करोड़ों में कमाते हैं, पर उन्होंने इन कोरोना पीड़ितों के लिए क्या किया है, उनकी क्या मदद की है या उन्हें क्या दिया है? क्या उन्होंने किसी को एक पैसा भी दिया है। लोग सड़कों पर हैं, क्या ये लोग अपने एअरकंडीशन्ड कमरे से बाहर निकले हैं?’
तुषार मेहता, सॉलिसिटर जनरल
उन्होंने न्यायिक हस्तक्षेप की माँग करने वालों को ‘आरामकुर्सी पर बैठा हुआ बुद्धिजीवी’ क़रार दिया और कहा कि उनकी नज़र में जज निष्पक्ष तभी होते हैं जब वे कार्यपालिका (यानी सरकार) की आलोचना करते हैं। ये मुट्ठी भर लोग पूरी न्यायपालिका को नियंत्रित करना चाहते हैं।
गिद्ध से तुलना?
मेहता ने न्यायपालिका से जुड़े इन महत्वपूर्ण लोगों पर इससे भी तीखा हमला किया और उनकी तुलना सूडान भुखमरी के दौरान मरते हुए बच्चे और उसके पीछे चलने वाले गिद्ध की तसवीर खींचने वाले फ़ोटोग्राफ़र केविन कार्टर से कर दी। मेहता ने कहा कि हस्तक्षेप की माँग करने वाले इन सभी लोगों पर बच्चे और गिद्ध की कहानी लागू होती है।सॉलिसिटर जनरल ने ख़ुद उस तसवीर के बारे में बताया। उन्होंने कहा, ‘एक फ़ोटोग्राफर 1993 में सूडान गया। एक डरा हुआ बच्चा था। एक गिद्ध उसके पीछे उस बच्चे के मरने का इंतजार कर रहा था। उस फोटोग्राफर ने वह तसवीर ली, जिसे न्यूयॉर्क टाइम्स ने छापा और उस पर उस फोटोग्राफर को पुलित्ज़र पुरस्कार मिला। पुरस्कार मिलने के चार महीने बाद उस फोटोग्राफर ने आत्महत्या कर ली। किसी पत्रकार ने उस फोटोग्राफर से पूछा कि वहां कितने गिद्ध थे तो उसने कहा, एक। इस पर पत्रकार ने कहा कि नहीं, वहां दो गिद्ध थे, दूसरे के हाथ में कैमरा था।’
इस तर्क से यह साफ़ है कि जिन्होंने प्रवासी मज़दूरों की बुरी स्थिति पर चिंता जताई और उनके मौलिक अधिकार की रक्षा करने के लिए सुप्रीम कोर्ट से हस्तक्षेप करने की अपील की, सॉलिसिटर जनरल की नज़र में वे उस फोटोग्राफर की तरह हैं, जो गिद्ध की तरह था और जिसने इस संकट का फ़ायदा उठा कर एक बड़ा पुरस्कार जीत लिया।
अदालत या राजनीतिक मंच?
इसी बहस को आगे बढ़ाते हुए तुषार मेहता ने कहा, ‘न्यायपालिका को राजनीतिक मंच मत बनने दीजिए। याचिका दायर करने वाले से कहिए कि वह हलफ़नामा जमा कर कहे कि उन्होंने क्या किया है। वह चिट्ठी देखिए, जो लोगों तक पहुँच रही है।' मेहता निश्चित तौर पर उस चिट्ठी की बात कर रहे थे जो वकीलों ने सुप्रीम कोर्ट को लिखी थी।
तुषार मेहता ने बेहद तल्ख़ी से कहा कि ‘विनाश की भविष्यवाणी करने वाले कुछ लोग हैं, जो ग़लत जानकारी फैलाते रहते हैं। इनके मन में राष्ट्र के लिए कोई सम्मान नहीं है।’
निजी हमले
बात सिर्फ संस्थागत ही सीमित नहीं रही, निजी हमले भी हुए। तुषार मेहता ने मशहूर वकील कपिल सिब्बल से तंज करते हुए पूछा, ‘आपने कितने पैसे दिए?’ इस पर सिब्बल ने कहा, ‘चार करोड़ रुपए।’ बता दें कि चिट्ठी लिखने वालों में सिब्बल भी थे।
न्यायपालिका पर सीधा हमला
लेकिन सॉलिसिटर जनरल, जो सरकार का पक्ष रख रहे थे, उन्होंने न्यायपालिका पर सीधा हमला भी बोला। उन्होंने कहा, ‘कुछ हाई कोर्ट समानान्तर सरकार चला रहे हैं।’पिछले दिनों कोरोना संकट में प्रवासी मज़दूरों की हालत पर सुप्रीम कोर्ट ने तो दख़ल नहीं दिया लेकिन ओडिशा, गुजरात, चेन्नई, कर्नाटक हाईकोर्ट ने राज्य सरकारों को जमकर फटकार लगाई और जवाबदेही तय करने की कोशिश की। ख़ासतौर पर गुजरात हाईकोर्ट ने दो बार राज्य सरकार की बखिया उधेड़ी।
लेकिन आज की बहस में जस्टिस संजय किशन कौल की एक टिप्पणी ऐसी थी, जिस पर कई लोग चकित हैं। उन्होंने कहा, ‘कुछ लोग इस संस्था के हिस्सा रहे हैं और अब उन्हें लग रहा है कि वे इसे बदनाम कर सकते हैं, यह दुर्भाग्यपूर्ण है। हम अपनी अंतरात्मा की आवाज़ ही सुनेंगे।’
बता दें कि जस्टिस गोपाल गौड़ा ने रिटायर होने के बाद एक लेख में न्यायपालिका की आलोचना की थी। उन्होंने लॉकडाउन के दौरान न्यायपालिका की भूमिका पर सवाल खड़े किए थे। जस्टिस कौल का इशारा शायद उसी ओर था।
पर्यवेक्षकों का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट में आज की बहस से यह साफ़ हो जाता है कि सरकार के मन में न्यायपालिका के प्रति सम्मान नहीं है, उसकी निष्पक्षता पर उसे संदेह है और वह ऐसे लोगों का मुँह बंद करना चाहती है, जो उसकी आलोचना करते हैं।
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