पहले भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया का संगठन क्वैड और उसके बाद अब ब्रिटेन, अमेरिका व ऑस्ट्रेलिया की संधि AUKUS (एयूकेयूएस) का गठन कर मानो अमेरिका ने चीन के साथ युद्ध की रेखाएं खींच ली हैं।
इस संधि के तहत ऑस्ट्रेलिया अमेरिका की मदद से परमाणु पनडुब्बियाँ बनाएगा। हालांकि अमेरिका ने साफ किया है कि ये पनडुब्बियाँ परमाणु ईंधन से चलेंगी, परमाणु हथियारों से लैस नहीं होगीं, पर सब जानते हैं कि परमाणु हथियार लगाने में कितना समय लगता है।
संधि पर दस्तखत करते वक़्त इन देशों ने यह भी कहा कि इसका मक़सद एशिया प्रशांत क्षेत्र की सुरक्षा है।
चीन को घेरने की रणनीति
पर्यवेक्षकों ने इसका अर्थ यह लगाया कि चीन को उसके ही इलाक़े में घेरने की रणनीति का एक हिस्सा है।
अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों ने इसके पहले क्वैड का मक़सद यह बताया था कि दक्षिण चीन सागर में चीन को घेरने के लिए यह संगठन बनाया गया है।
सवाल यह है कि इसमें भारत क्या करे, अपनी भूमिका कैसे तलाशे और कैसी विदेश नीति अपनाए कि उस पर किसी तरह की आँच न आए।
यह महत्वपूर्ण है कि अमेरिका चीन से 11 हज़ार किलोमीटर दूर है तो ऑस्ट्रेलिया 7 हज़ार किलोमीटर। लेकिन भारत तो चीन से सटा हुआ है और दोनों देशों के बीच 3,488 किलोमीटर लंबी सीमा रेखा है।
भारत-चीन
भारत को दक्षिण चीन सागर से कोई मतलब नहीं है, क्योंकि इसकी सीमा उससे नहीं मिलती है। हालांकि भारतीय व्यापार के लिए समुद्री रूट खुले रहें, यह ज़रूरी है, पर इसकी गारंटी तो समुद्र से जुड़े अंतरराष्ट्रीय कॉन्वेशन्स और संयुक्त राष्ट्र की नीतियाँ ही देती हैं। चीन भी इसे मानता है और कोई कारण नहीं है कि वह भविष्य में भारत के किसी व्यापारिक जहाज़ का रास्ता रोक दे।
लेकिन भारत ने दक्षिण चीन सागर में चीन की घेराबंदी के लिए जापान से हाथ मिलाया है, इस समुद्री इलाक़े को 'मुक्त' रखने की मुहिम में हिस्सा लिया है। समझा जाता है कि नरेंद्र मोदी की सरकार ने अमेरिका को खुश करने के लिए ऐसा किया है।
यह ऐसे समय हो रहा था जब चीन के साथ आर्थिक व व्यापारिक रिश्ते तेजी से आगे बढ़ रहे थे।
चीन-पाकिस्तान
अब शीत युद्ध की तरह सबको अमेरिका और चीन में से किसी एक को चुनना होगा। इसे हम पाकिस्तान के उदाहरण से समझ सकते हैं।
अपने जन्म के समय से ही अमेरिका की गोद में बैठा हुआ जो देश 1971 की लड़ाई में अमेरिका से खुले आम समर्थन हासिल करता है, उससे अरबों डॉलर का अनुदान हासिल कर अपनी अर्थव्यस्था और सेना को किसी तरह टिकाए रखता है, वह उसे झटक कर बीजिंग का हाथ थाम लेता है और चीन को 'ऑल वेदर फ्रेन्ड' यानी हर सुख दुख का साथी क़रार देता है।
शीत युद्ध
सवाल यह है कि भारत क्या करे। शीत युद्ध के दिनों में गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का संस्थापक था। जवाहर लाल नेहरू ने मिस्र के नासिर और युगोस्लाविया के जोजफ़ टीटो के साथ मिल कर गुट निरपेक्ष आन्दोलन की शुरुआत की थी और एक समय सौ से ज़्यादा देश इसके सदस्य थे।
लेकिन यह भी सच है कि बाद में भारत की नीतियों में बदलाव आया और इंदिरा गांधी के ज़माने में भारत का झुकाव सोवियत संघ की ओर हो गया। साल 1971 में सोवियत राष्ट्रपति लियोनिद ब्रेझनेव के आग्रह पर भारत ने एक क़रार पर दस्तख़त किया। इससे उसका रुझान साफ हो गया, पर यह क़रार भी सैनिक क़रार नहीं था। इस संधि का स्वरूप आर्थिक और राजनीतिक था।
जो नया शीत युद्ध अमेरिका और चीन के बीच शुरू होने जा रहा है, उसमें भारत की लाइन साफ है। नरेंद्र मोदी की सरकार ने अमेरिका के साथ सैनिक साजो सामान खरीदने और रक्षा के क्षेत्र में सहयोग व ज़रूरत पड़ने पर एक दूसरे की मदद करने का क़रार किया है।
हालांकि यह कहा जा सकता है कि यह कोई सैन्य संधि नहीं है, यह नेटो जैसा कोई संगठन नहीं है, पर इस संधि का स्वरूप निश्चित रूप से सामरिक है।
क्या करे भारत?
दूसरी ओर, नए शीत युद्ध में उसके सामने चीन है, जिसके साथ उसका सीमा विवाद पहले से ही है। क्षेत्रीय प्रतिस्पर्द्धा और व्यावसायिक होड़ भी है, जैसा किसी पड़ोसी के साथ हो सकता है।
भारत के पास यह विकल्प था कि वह चीन और रूस के साथ एक गुट बनाए और अमेरिका के साथ न जाए। पर मनमोहन सिंह के समय हुए नागरिक परमाणु संधि ने बिल्कुल साफ कर दिया कि भारत ने अमेरिका का जूनियर पार्टनर बनना स्वीकार कर लिया है।
चीन का गुस्सा
चीन के साथ मनमुटाव उसके बाद ही तेज़ हुआ। चीन ने गाहे बगाहे अपने सैनिकों को लद्दाख के इलाक़ों में ज़बरन घुसा कर, कुछ इलाकों में अस्थायी कब्जा कर और कैंप वगैरह बना कर भारत को नोटिस देना शुरू कर दिया।
बीजेपी सरकार का चीन से वैचारिक द्वंद्व तो बिल्कुल साफ है कि उसे हर हाल में साम्यवाद का विरोध करना है। ऐसे में अमेरिका से नजदीकी स्वाभाविक है। यह नजदीकी सैन्य सहयोग, संधि, हथियारों की खरीद फ़रोख़्त, अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में सहयोग तक बढ़ा।
चीन ने खिसिया कर और भारत को रोकने के लिए लद्दाख में घुसपैठ की, जिसके बाद भारत का पीछे लौटना बेहद मुश्किल हो गया है।
अब एयूकेयूएस बन गया है। भारत इसमें नहीं है। पर यह साफ है कि एयूकेयूएस क्वैड का ही एक्सटेंशन है। यानी, भारत इस संधि संगठन में नही कर भी है क्योंकि क्वैड और एयूकेयूएस का कार्य क्षेत्र एशिया प्रशांत ही है।
यह साफ है कि इस शीत युद्ध में भारत अमेरिकी गुट में रहेगा, वह ऑस्ट्रेलिया व जापान का साथ देगा और चीन को रोकने की कोशिश में अमेरिका का पिट्ठू बनेगा।
चीन से दुश्मनी भारत को महंगी पड़ सकती है, यह कहने की जरूरत नहीं है। पर जब विदेश नीति सत्तारूढ़ दल की वैचारिक नीति से संचालित हो तो क्या किया जा सकता है?
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