“ अछूतों के लिए हिंदू धर्म भयावहताओं का सच्चा बाड़ा है.“ ( डॉ. आंबेडकर :एनिहिलेशन ऑफ कॉस्ट, पृ.20)
“ मेरी राय में हिन्दू धर्म में दिखाई पड़नेवाला अस्पृश्यता का वर्तमानरूप ईश्वर और मनुष्य के खिलाफ किया गया भंयकर अपराध है...... “( महात्मा गांधी,मेरे सपनों का भारत, पृ. 264 )
भारत की आज़ादी का अमृतलाल के संपूर्ण होने के बावजूद, 140 करोड़ के बहुसंख्यक देश में दलित घोड़ी पर बैठ कर बैंड – बाजे के साथ बारात नहीं ले जा सकते और न ही आतिशबाजी – पटाखे कर सकते हैं। उन्हें गरिमा के साथ विवाह संपन्न करने के लिए पुलिस – संरक्षण की जरूरत होती है। यह गल्प नहीं है, इसी हफ्ते की एक वास्तविक घटना है। भाजपा शासित राजस्थान के अजमेर जिले के गांव लवेरा में एक दलित दूल्हे ने करीब 200 पुलिस कर्मियों के घेरे में और ड्रोन के छाता तले अपना विवाह संपन्न किया।
पिछले ही दिनों देश के गृहमंत्री अमित शाह ने संसद में संविधान -निर्माता डॉ. आंबेडकर के प्रति अप्रिय उवाच किया था। विपक्ष ने संसद के दोनों सदनों और बाहर इसका तीखा प्रतिवाद भी किया था। उवाच जनित विवाद अभी तक ठंडा नहीं पड़ा है। कांग्रेस बड़े पैमाने पर विरोध -अभियान चलाने जा रही है। गृहमंत्री का कहना था कि आम्बेडकर .. आम्बेडकर आम्बेडकर आम्बेडकर की रट लगाने के स्थान पर भगवान का नाम लेते तो सात जन्म तक सवर्ग मिलता।
शाह जी भूल गए कि दलितों के लिए भीमराव आम्बेडकर ‘भगवान तुल्य’ हैं। जब देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं को ‘नॉन-बायोलॉजिकल’ और ‘ईश्वरीय मिशन ‘ पर घोषित कर सकते हैं, तब क्या दलित वर्ग के लिए आम्बेडकर ईश्वर तुल्य नहीं हो सकते? डॉ. अम्बेडकर ने भारत के संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में ऐतिहासिक भूमिका निभाई थी और भारतीय गणतंत्र में दलित व आदिवासियों के लिए गरिमापूर्ण स्थान की व्यवस्था की थी। आम्बेडकर -परिप्रेक्ष्य में संविधान निर्माताओं ने सोचा था कि भारत से जाति प्रथा का विनाश और अस्पृश्यता का अंत हो जायेगा. महात्मा गाँधी के ‘हरिजन’ गरिमापूर्ण जीवन जी सकेंगे। आम्बेडकर का समतावादी स्वप्न साकार होगा।
देश की आज़ादी के 78 और गणतंत्र के 75 वर्ष की यात्रा को तय करने के बावजूद भारत ने जिस बिंदु से प्रस्थान किया था, अब भी वहीं खड़ा प्रतीत होता है। भारत चाँद पर अपने नागरिक को उतारने , मंगल ग्रह पर थाप देने, सूर्य के समीप पहुँचने और ओलम्पिक खेलों का आयोजन करने की विराट महत्वाकांक्षा रखता है, लेकिन देश का नेतृत्व भारत भूमि पर मानव द्वारा जनित अमानुषित व्यवस्था का खात्मा करने में कायर साबित हो रहा है।
पिछले वर्ष देश में दलितों के विरुद्ध हिंसा– भेदभाव के 2 लाख से अधिक मामले दर्ज हुए थे जिसमें से 16 प्रतिशत से अधिक घटनाएं राजस्थान से हैं। सबसे अधिक घटनाएं उत्तरप्रदेश में हुईं । इसके बाद स्थान बिहार, राजस्थान और मध्य प्रदेश का था।( हिंदू, सितम्बर 23 )। नेशनल क्राइम रिपोर्ट ब्यूरो के आंकड़े बतलाते हैं कि 2018– 20 के दौरान दलितों पर अत्याचार के मामले 1 लाख 30 हजार थे। फिर दो साल में बढ़ कर 2 लाख से अधिक हो गए हैं।ताज़ा आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं।
लेकिन, ऐसी घटनाओं से इसके साफ संकेत मिलते हैं कि दलितों के साथ भेदभाव और उनपर अत्याचार की घटनाओं का अंत नहीं हुआ है। पुलिस संरक्षण में दलित विवाह का होना ही भारतीय राष्ट्र राज्य की नाकामियों का जीवंत सुबूत है। राज्य ने पुलिस बंदोबस्त के द्वारा सवर्ण और दलित समाजों के मध्य सदियों से मौजूद अंतर्विरोधों का स्थाई समाधान नहीं किया है, उनमें निहित विस्फोटक स्थिति केवल ’टाला भर’ है।
यह सिलसिला दशकों से चला आ रहा है। अकसर सरकारें समाज में बुनियादी परिवर्तन से घबराती हैं। यहां 1978 का निजी अनुभव का उल्लेख प्रासंगिक रहेगा। मैने अपने एक सर्वेक्षण के दौरान देखा,कर्नाटक के मांड्या जिले के गांवों में दलितों को सवर्ण बस्तियों से पानी लेने और मंदिर प्रवेश पर पाबंदी थी। दलितों पर सवर्ण दबंगों के अत्याचार भी होते थे। इस स्थिति से निपटने के लिए तत्कालीन देवराज अर्स सरकार ने दलितों की बस्तियों में मंदिर व कुओं के निर्माण द्वारा सामाजिक सांस्कृतिक अंतर्विरोधों या टकरावों का अस्थाई शमन( diffusion) करने की कोशिश की थी, लेकिन स्थाई समाधान ( resolution) नहीं किया जा सका।
ग्रामीण समाज के परंपरागत सवर्ण बनाम दलित संबंध यथावत रहे। यही सिलसिला इस सदी में भी जारी है। मांड्या और अजमेर की भौगोलिक दूरियां दो – ढाई हज़ार किलो मीटर की हो सकती हैं, पर सामाजिक सम्बन्ध और व्यवहार के क्षेत्र में दोनों अगल– बगल खड़े नज़र आते हैं।
विगत दस सालों में भेदभाव की प्रवृत्तियां मिटने और कमज़ोर पड़ने के बजाए, मज़बूत हुई हैं। इनमें मिलिटेंसी का आयाम जुड़ा है। इसकी वज़ह है कि वर्तमान सत्ता प्रतिष्ठान का चरित्र प्रतिगामी है। इस काल में ऐसी प्रवृत्तियां प्रोत्साहित व आक्रामक हुई हैं जिनकी जड़ें मध्ययुगीनता में हैं; मंदिर -मस्ज़िद विवाद, भव्यता के साथ प्राणप्रतिष्ठा, पूजा -अर्चना कर्मकांड जैसे धार्मिक अनुष्ठानों में प्रवृत्तियों की आक्रामकता को देखा जा सकता है।
ऐसी आक्रामकता सदियों से दबी-कुचली जातियों में हीनता की भावना पैदा करती है। इसके साथ ही उनमें ऊंची जातियों की जीवन शैली को अपनाने की लालसा भी बलवती होने लगती है। वे भी अपने रीति-रिवाजों को सवर्ण जातियों की शैली में निभाना चाहते हैं।
वास्तव में हिंदुत्व की राजनीति से जातिगत भेदभाव कम होने के स्थान पर बढ़ा है। बल्कि, जातिगत ध्रुवीकरण की प्रक्रिया तेज़ हुई है. साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण तो पहले से ही चल रहा है।
शहरी भारत में अदृश्यरूप से जातिगत ध्रुवीकरण सक्रिय रहता है. सामान्यरूप से सतह पर यह दिखाई नहीं देगा, लेकिन पारिवारिक संबंधों में यह सक्रिय रहता है. अंतर्जातीय विवाह नहीं के समान होते हैं. ऊंची, मझली और दलित जातियों के मध्य वैवाहिक रिश्ते दुर्लभ हैं. पत्र -पत्रिकाओं में छपने वाले वैवाहिक विज्ञापनों पर नज़र डालिए, स्थिति स्पष्ट हो जाएगी. महसूस होगा, सामाजिक परिवर्तन की दृष्टि से भारत बीती सदी की दहलीज़ पर ही खड़ा हुआ है, जातिगत दड़बों में जकड़ा हुआ है. हिंदुत्व की राजनीति नई मिलिटेंसी से लैस है. लेकिन, इस राजनीति के शिखर नेतृत्व पर किस जाति व वर्ग के लोगों का आधिपत्य बना हुआ है, इसे समझा जाना चाहिए। यह ज्वलंत सवाल है.
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की स्थापना के सौ वर्ष पूरे होने जा रहे हैं. पूछा जा सकता है कि 1925 -2025 की अवधि में संघ के कितने गैर-सवर्ण सर संघचालक बने हैं ? उत्तर है -एक भी नहीं. क्या संघ परिवार और हिंदुत्व के ध्वजा वाहकों के लिए आत्ममंथन का समय नहीं है? यह सही है, आज़ादी पूर्व भारत की अस्पृश्यता आज नहीं है। नेहरू काल में ही अस्पृश्यता विरोधी क़ानून बन गया था। लेकिन, इस पर अमल कितना हुआ?
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