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पीएम की डिग्री मांगी तो आरटीआई के मक़सद पर सवाल खड़े क्यों कर दिए?

प्रधानमंत्री मोदी की डिग्री मांगने पर अब आरटीआई के उद्देश्य पर ही सवाल क्यों खड़े किए जा रहे हैं? दिल्ली विश्वविद्यालय ने सोमवार को कहा है कि आरटीआई का उद्देश्य किसी तीसरे पक्ष की जिज्ञासा को शांत करना नहीं है। यूनिवर्सिटी की ओर से यह दलील इसलिए दी गई है क्योंकि उसने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की डिग्री के बारे में सूचना के खुलासे पर केंद्रीय सूचना आयोग के आदेश को चुनौती दी है। 

प्रधानमंत्री मोदी की डिग्री को लेकर दिल्ली विश्वविद्यालय ने क्या पूरी दलील दी है और अदालत में यह मामला कैसे पहुँच गया, यह जानने से पहले यह जान लें कि आख़िर आरटीआई का मक़सद क्या बताया गया है और पीएम की डिग्री को लेकर क्या विवाद है।

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सूचना का अधिकार अधिनियम का मूल उद्देश्य के बारे में भारत सरकार ने ही कहा है, 'नागरिकों को सशक्त बनाना, सरकार की कार्यशैली में पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ाना, भ्रष्टाचार को रोकना तथा हमारे लोकतंत्र को सही मायने में लोगों के लिए कार्य करने वाला बनाना है। यह स्पष्ट है कि सूचना प्राप्त नागरिक शासन के साधनों पर आवश्यक ऩजर रखने के लिए बेहतर रूप से तैयार होता है और सरकार को जनता के लिए और अधिक जवाबदेह बनाता है। यह अधिनियम नागरिकों को सरकार की गतिविधियों के बारे में जागरूक करने की दिशा में एक बड़ा क़दम है।'

यानी आरटीआई का मक़सद सरकार की कार्यशैली में पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ाना, शासन के साधनों पर ज़रूरी ऩजर रखना भी है। तो सवाल है कि पीएम की डिग्री मांगना क्या इस दायरे में नहीं आता है? ख़ैर, इस सवाल का जवाब तो अब दिल्ली हाईकोर्ट ही बेहतर दे सकता है। लेकिन एक और सवाल है कि आख़िर पीएम मोदी की डिग्री को लेकर इतना विवाद क्यों है?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की डिग्री को लेकर लंबे समय से विवाद होता रहा है और आम आदमी पार्टी उनकी डिग्री की जानकारी हासिल करने में काफ़ी पहले से लगी रही थी। 2016 में यह मामला बेहद गरम था। तब अरविंद केजरीवाल ने कई सवाल उठाए थे। उस साल मई में प्रेस कॉन्फ्रेंस कर आम आदमी पार्टी ने पीएम मोदी की बीए और एमए की डिग्रियों को 'फर्जी' और 'नकली' भी बता दिया था। तब आप की ओर से कहा गया था कि प्रधानमंत्री की बीए और एमए की डिग्रियों में दर्ज नाम में अंतर है। आप ने कहा था कि बीए की डिग्री में नाम 'नरेंद्र कुमार दामोदर दास मोदी' दर्ज है, जबकि एमए की डिग्री पर नाम 'नरेंद्र दामोदर दास मोदी' दर्ज है। पार्टी ने यह भी आरोप लगाया था कि प्रधानमंत्री की बीए मार्कशीट और डिग्री में परीक्षा का साल अलग-अलग है और यह क्रमश: 1977 और 1978 दर्ज है।
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आम आदमी पार्टी की ओर से वह प्रेस कॉन्फ्रेंस तब हुई थी जब उससे कुछ समय पहले ही तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बीए और एमए की डिग्री की कॉपियाँ पत्रकारों को बांटी थीं। उन्होंने कहा था कि मोदी ने दिल्ली विश्वविद्यालय से बीए और गुजरात विश्वविद्यालय से एमए की डिग्री ली है। तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीए की परीक्षा दिल्ली में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यालय में रहकर दी थी। हालाँकि, इसके बाद भी यह विवाद थमा नहीं है।

इस मुद्दे पर 2023 में यह मामला फिर से तब उछल गया था जब गुजरात उच्च न्यायालय ने पीएम की डिग्री पर जानकारी मांगने के मामले में दिल्ली के तत्कालीन मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर 25,000 रुपये का जुर्माना लगा दिया। कहा गया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की डिग्रियों का विवरण मांगा गया था, जबकि विवरण पहले से ही सार्वजनिक डोमेन में था।

तब गुजरात हाई कोर्ट ने कहा था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की डिग्री की जानकारी सार्वजनिक करने की कोई ज़रूरत नहीं है। अदालत ने गुजरात विश्वविद्यालय को निर्देश देने वाले एक आदेश को रद्द कर दिया था।

केंद्रीय सूचना आयोग यानी सीआईसी ने 2016 में गुजरात विश्वविद्यालय को पीएम मोदी की मास्टर डिग्री के बारे में जानकारी देने का निर्देश दिया था। दिल्ली विश्वविद्यालय को जारी किए गए सीआईसी के एक ऐसे ही आदेश को दिल्ली हाईकोर्ट में चुनौती दी गई है। 

दरअसल, एक्टिविस्ट नीरज की आरटीआई याचिका पर केन्द्रीय सूचना आयोग यानी सीआईसी ने 21 दिसंबर, 2016 को 1978 में बीए की परीक्षा पास करने वाले सभी छात्रों के रिकॉर्ड की जांच की अनुमति दे दी थी। 1978 ही वह साल है जब प्रधानमंत्री मोदी ने भी यह परीक्षा पास की थी। याचिका में 1978 में परीक्षा देने वाले छात्रों की जानकारी मांगी गयी थी। हालाँकि, सीआईसी के आदेश पर 23 जनवरी, 2017 को उच्च न्यायालय ने रोक लगा दी थी।

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डीयू की दलील क्या?

दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस सचिन दत्ता के समक्ष उपस्थित होते हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि छात्रों की जानकारी विश्वविद्यालय द्वारा 'न्यायिक क्षमता' में रखी जाती है और इसे किसी अजनबी को नहीं दिया जा सकता, क्योंकि कानून इसे छूट देता है। पीटीआई की रिपोर्ट के अनुसार उन्होंने कहा, 'धारा 6 में यह मैंडेट है कि सूचना देनी होगी, यही उद्देश्य है। लेकिन आरटीआई अधिनियम किसी की जिज्ञासा को शांत करने के उद्देश्य से नहीं है।'

मेहता ने तर्क दिया कि सार्वजनिक प्राधिकरणों के कामकाज में पारदर्शिता और जवाबदेही से नहीं जुड़ी हुई सूचना के खुलासे का निर्देश देकर सूचना के अधिकार कानून का दुरुपयोग नहीं किया जा सकता है। मेहता ने कहा, 'मैं अपने विश्वविद्यालय से जाकर कह सकता हूं कि अगर नियम इसकी अनुमति देते हैं तो वे मुझे मेरी डिग्री या मेरी मार्कशीट या मेरे कागजात दे दें.. लेकिन (धारा) 8 (1) (ई) के तहत खुलासे से छूट तीसरे पक्ष पर लागू होती है।'

मेहता ने सीआईसी के आदेश को कानून विरोधी बताया और कहा कि आरटीआई अधिनियम के तहत सभी सूचनाओं के खुलासे के लिए अंधाधुंध और अव्यवहारिक मांगें उल्टे नतीजे देंगी और प्रशासन की दक्षता पर उल्टा प्रभाव डालेंगी।

मेहता ने कहा, 'वह वर्ष 1978 में सभी की जानकारी चाहते हैं। कोई आकर 1979 की मांग सकता है, कोई 1964 की मांग सकता है। इस विश्वविद्यालय की स्थापना 1922 में हुई थी।' 

सीआईसी के आदेश को चुनौती देते हुए डीयू ने कहा कि आरटीआई प्राधिकरण का आदेश मनमाना और कानूनी रूप से असमर्थनीय है, क्योंकि जिस जानकारी का खुलासा करने की मांग की गई है, वह 'तीसरे पक्ष की व्यक्तिगत जानकारी' है। 

डीयू की याचिका में कहा गया है कि सीआईसी द्वारा उसे उपलब्ध ऐसी जानकारी का खुलासा करने का निर्देश देना पूरी तरह से अवैध है। इसने कहा कि आरटीआई अधिनियम को मजाक बना दिया गया है, जिसमें प्रधानमंत्री सहित 1978 में बीए परीक्षा उत्तीर्ण करने वाले सभी छात्रों के रिकॉर्ड मांगे गए हैं। मामले की सुनवाई बाद में जनवरी में होगी।

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क़मर वहीद नक़वी
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