अभी एक धर्मयुद्ध होना बाक़ी है। सतयुग और त्रेता युग में तो कई धर्म युद्ध हुए। पुराणों में ढेरों ज़िक्र हैं - कैसे देवता और दानवों की लड़ाई हुई, कैसे सत्य और असत्य में युद्ध हुआ, कैसे समुद्र मंथन हुआ और हर बार यह बताया गया कि देवता जीते। ये कौन देवता हैं? क्यों हर बार दानव ही हारते हैं? क्या देवता ही सच हैं? दानव हमेशा असत्य के साथ रहते हैं? यह एक विमर्श है। यह वह विमर्श है जिसे उच्च जातियों ने लिखा। जिसके लेखक हमेशा ब्राह्मण ही रहे।

हिंदू धर्म में हुए भेदभाव के ख़िलाफ़ दलित अब मुखर होकर आवाज़ उठा रहा है। दलित अब अन्याय होने पर चुप नहीं रहना चाहता और इसका मुहँतोड़ जवाब देने के लिए तैयार है।
दलितों ने कब लिखा? वह जो हमेशा से, सदियों से, हाशिये पर था, ग़ुलामी की ज़िंदगी जी रहा था, उसने कब लिखा? शायद कभी नहीं? उसे तो अपनी बात कहने का हक़ नहीं था। वह सिर उठा कर नहीं चल सकता था। उसका वर्णन हमेशा दानवों में ही हुआ होगा। उसे असत्य की काल कोठरी में क़ैद कर दिया गया होगा। पर अब वह जाग गया है। वह अपने पुराण लिखना चाहता है। वह अब कलियुग में नया धर्म युद्ध लड़ेगा। वह सत्य को अपने हिसाब से परिभाषित करेगा। वह आज का दलित है। वह दलित, जो हर साल 1 जनवरी को भीमा कोरेगाँव में इतिहास से अपना हिसाब माँगने जाता है।
पत्रकारिता में एक लंबी पारी और राजनीति में 20-20 खेलने के बाद आशुतोष पिछले दिनों पत्रकारिता में लौट आए हैं। समाचार पत्रों में लिखी उनकी टिप्पणियाँ 'मुखौटे का राजधर्म' नामक संग्रह से प्रकाशित हो चुका है। उनकी अन्य प्रकाशित पुस्तकों में अन्ना आंदोलन पर भी लिखी एक किताब भी है।