बिहार विधानसभा उपचुनाव का रिजल्ट तेजस्वी यादव के लिए जागने और छोटे लग रहे गैप को भरने का संदेश है। राज्य की चार विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में तीन पर आरजेडी और एक पर भाकपा माले लड़ी लेकिन चारों सीटों पर उन्हें हार का सामना करना पड़ा। हार का अंतर लगभग उसी तरह का है जैसा 2020 के विधानसभा चुनाव में था। यानी नजदीक आकर भी सत्ता से दूरी की जो कसक 2020 में रह गई थी उसे मिटाने के लिए उन्हें इस गैप को खत्म करने की रणनीति बनानी होगी।
याद रखने की बात यह है कि 2020 के विधानसभा चुनाव में तेजस्वी यादव के धुआंधार प्रचार का असर यह हुआ कि राजद सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी और महागठबंधन की अन्य पार्टियों के साथ मिलकर उनके पास इतनी सीटें आ गयी थीं कि 10-12 सीटें और मिल जातीं तो तेजस्वी यादव मुख्यमंत्री होते। उस चुनाव में नीतीश कुमार के उम्मीदवारों को हराने में चिराग पासवान एक अहम फैक्टर थे लेकिन ध्यान रखना होगा कि 2025 में चिराग पासवान नीतीश कुमार के साथ होंगे।
दूसरी ओर महागठबंधन या इंडिया गठबंधन को 2025 में प्रशांत किशोर फैक्टर का सामना करना होगा। तेजस्वी यादव यह बात चाहे जितनी बार कहें कि उनकी पार्टी अब ए टू जेड की है लेकिन उनका कोर वोटर यादव और मुस्लिम समुदाय है। प्रशांत किशोर जब तेजस्वी यादव को टारगेट करते हैं तो वह मुस्लिम वोटरों को भी अपनी ओर खींचने की कोशिश करते हैं। इसके लिए वह मुसलमानों को अधिक संख्या में उम्मीदवार बनाने की बात भी करते हैं। जाहिर है तेजस्वी यादव को इस आधार वोट को बचाने के लिए और कोशिश करने की जरूरत होगी। तेजस्वी को इस बात का एहसास बेलागंज के चुनाव परिणाम से भी हुआ होगा क्योंकि वहां उनके आधार वोट के जदयू की तरफ जाने की बात सामने आई है।
तेजस्वी यादव के लिए राहत की बात यह है कि प्रशांत किशोर ने सिर्फ उनके उम्मीदवार को नहीं बल्कि एनडीए के उम्मीदवार को भी नुकसान पहुंचाया है। उपचुनाव के जो नतीजे सामने आए हैं उससे तो यही लगता है। इस बात को बेलागंज और इमामगंज के चुनाव परिणाम से समझा जा सकता है।
बेलागंज से आरजेडी की हार का अंतर लगभग उतना ही रहा जितना जनसुराज और एआईएमआईएम के उम्मीदवारों को मिलाकर वोट मिले। जन सुराज के मोहम्मद अमजद को 17285 वोट मिले। आम समझ यह है कि इनमें अधिकतर वोट मुसलमानों के थे जो आरजेडी को नहीं मिल सके।
राजद के लिए बक्सर जिले के रामगढ़ विधानसभा क्षेत्र उपचुनाव का परिणाम ज़रूर परेशान करने वाला है। इस सीट को भी उसका गढ़ माना जाता था और उसके प्रदेश अध्यक्ष जगदानंद सिंह यहां से 1985 में लोकदल से और फिर 2005 तक आरजेडी के टिकट पर जीते। उनके बाद उनकी ही पार्टी के अम्बिका यादव ने 2010 तक यहां कब्जा बरकरार रखा। 2015 में अशोक कुमार सिंह ने भाजपा के टिकट पर जीत हासिल की लेकिन फिर 2020 में जगदानंद के बड़े पुत्र सुधाकर सिंह यहां से आरजेडी के टिकट पर जीते।
वैसे पिछले दो बार से इस सीट की खास बात यह रही कि बहुजन समाज पार्टी ने उम्मीद से कहीं बेहतर प्रदर्शन किया। 2020 में बहुजन समाज पार्टी के टिकट पर लड़े राजद के बागी उम्मीदवार अंबिका यादव महज 189 वोट से हारे थे और सुधाकर सिंह ने जीत हासिल की थी। इस बार बहुजन समाज पार्टी लगभग 1362 वोटों से हारी है जबकि जगदानंद परिवार को तीसरे स्थान पर संतोष करना पड़ा है। भारतीय जनता पार्टी के अशोक कुमार सिंह ने 62257 वोट लाए जबकि बहुजन समाज पार्टी के सतीश कुमार सिंह यादव को 60895 वोट मिले। तीसरे स्थान पर रहे राजद के अजीत कुमार सिंह केवल 35825 वोट ला सके। यहां जनसुरज पार्टी को केवल 6513 वोट मिले और उसके उम्मीदवार सुशील कुमार सिंह की जमानत भी नहीं बच सकी।
महागठबंधन जिस चौथी सीट पर हारा वह भोजपुर जिले की तरारी सीट थी जो भाकपा माले की सीट थी। इस बार भाकपा माले के उम्मीदवार राजू यादव 10612 वोटों से हार गए।
2020 में भाकपा माले ने लगभग इतने ही वोट से जीत हासिल की थी। इस उपचुनाव में भारतीय जनता पार्टी के विशाल प्रशांत ने 78755 वोट लाए जबकि राजू यादव को 68143 वोट मिले। यहां से जनसुरज की उम्मीदवार किरण सिंह ने केवल 5622 वोट लाए। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि जनसुरज की वजह से माले और महागठबंधन को नुकसान हुआ लेकिन यह जरूर है कि जातीय समीकरण बदलने का घाटा माले को उठाना पड़ा।
इन चार विधानसभा सीटों के परिणाम का विश्लेषण करने पर यह बात पता चलती है कि महागठबंधन और तेजस्वी यादव को समर्थन तो अच्छा मिल रहा है लेकिन वह जीत के करीब पहुंचकर भी दूर रह जा रहे हैं। तेजस्वी यादव ने उपचुनाव में पार्टी की हार पर कहा कि चुनाव में हार जीत होती रहती है और वह निराश नहीं हैं। लेकिन ऐसा लगता है कि उन्हें इन चुनाव परिणामों को और गंभीरता से लेना होगा। आरजेडी इस बात पर खुश है कि झारखंड में उसकी सीटों की संख्या बढ़ी है लेकिन उससे बिहार के गैप को खत्म या कम करना मुश्किल है।
अगले विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी और आक्रामकता के साथ मैदान में उतरेगी हालांकि नीतीश कुमार इसके बावजूद कि उनकी पार्टी को जीत मिली है एक कमजोर मुख्यमंत्री के रूप में जाने जाएंगे। सवाल यह है कि महागठबंधन और तेजस्वी यादव एक कमजोर होते हुए नीतीश कुमार का लाभ कैसे उठा सकते हैं। इसके लिए उन्हें जहां यह कोशिश करनी होगी कि अपने आधार वोटों को एकजुट बनाए रखें वहीं बिहार को उसी तरह ध्रुवीकरण से बचाना होगा जैसे हेमंत सोरेन ने झारखंड में बचाया है।
बिहार में महागठबंधन का सारा दारोमदार तेजस्वी यादव पर है और उन्हें न केवल अपने सहयोगी दलों को साथ लेकर चलना होगा बल्कि उनके दबाव को भी कम करना होगा। पिछली बार यह शिकायत आई थी कि कांग्रेस को सीटें ज्यादा मिल गईं और उसके उम्मीदवार कम जीते। अक्सर राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि अगर तेजस्वी यादव 2025 में सरकार बनाने के अपने दावे को सच करना चाहते हैं तो इसके लिए लिए उन्हें राजनीतिक समीकरण साधने के साथ-साथ मैदान में लगातार बने रहना होगा।
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