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नीतीश में विलीन हो जाएगा तेजस्वी का तेज?

नीतीश और बीजेपी का साथ अब असहज लग रहा है। अभी दोनों का अलग होना आसान नहीं दिखायी देता, तब भी बीजेपी एक कड़वी दवा की तरह नीतीश को स्वीकार कर रही है। एक बात तय है कि अगर आरजेडी और तेजस्वी अपने अवसाद के इस दौर से बाहर नहीं आते तो उसका बड़ा फ़ायदा नीतीश को होगा।
शैलेश

बिहार में राजनीति एक नयी करवट लेने की तैयारी में दिखायी दे रही है। एक तरफ़ बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) एक नयी ज़मीन की तलाश में जुटे दिखायी दे रहे हैं तो दूसरी तरफ़ बिहार की राजनीति की दूसरी धुरी राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) पर नेतृत्व विहीन होने का ख़तरा मंडरा रहा है। आरजेडी के संस्थापक लालू यादव के जेल जाने के बाद ऐसा लग रहा था कि उनके छोटे बेटे तेजस्वी यादव ने पार्टी की कमान को पूरी तरह से संभाल लिया है। लेकिन लोकसभा चुनाव में अप्रत्याशित हार के बाद तेजस्वी का तेज धूमिल दिखायी दे रहा है। लोकसभा चुनाव का नतीजा सामने आने के बाद से ही तेजस्वी बिहार की राजनीति और पार्टी के क्षितिज से लगभग ग़ायब दिखायी दे रहे हैं।

कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गाँधी की तरह तेजस्वी ने अपना पद छोड़ने की घोषणा तो नहीं की है, लेकिन पार्टी के कार्यक्रमों से पूरी तरह से ग़ायब हो गए हैं। कुछ सप्ताह पहले जब पार्टी ने सदस्यता अभियान की शुरुआत की तो तेजस्वी उस कार्यक्रम में नहीं पहुँचे। पार्टी के विधायकों की बैठक में उनके नहीं आने की ख़बर आयी तो बैठक रद्द कर दी गयी। कांग्रेस की डगमगाती नाव को संभालने के लिए सोनिया गाँधी पार्टी में दोबारा सक्रिय हो गई हैं। तेजस्वी की माँ और बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी पर्दे के पीछे से पार्टी को संभालने की कोशिश कर रही हैं। आख़िरकार तेजस्वी अचानक कोप भवन में क्यों पहुँच गए हैं?

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इसका जवाब तो किसी के पास नहीं है लेकिन राजनीतिक हलकों में चर्चा है कि लोकसभा चुनाव में पार्टी की हार से तेजस्वी घोर निराशा में हैं। राजनीति में हार-जीत होती रहती है। देश में इस समय मोदी लहर है। हिंदुत्व उफान पर है। हिंदू राष्ट्रवाद किसी विशाल तूफ़ान की तरह राजनीति के पुराने ताना-बाना को क्षत-विक्षत करने के लिए उतावला दिखायी दे रहा है। ऐसे में दूसरी पार्टियों और विचारधाराओं का हासिये पर पटका जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। लेकिन लगभग हर विपक्षी पार्टी के नेता हताश और भ्रमित दिखायी दे रहे हैं।

जातिवाद के सामियाने में दुबके बिहार की राजनीति में नए ध्रुवीकरण की कोशिश तेजस्वी ने लोकसभा चुनावों से पहले बड़ी शिद्दत के साथ की थी। उन्होंने उपेंद्र कुशवाला, मुकेश सहनी और जीतनराम मांझी को अपने खेमें में लाकर पिछड़ों, अति पिछड़ों और अति दलितों के साथ मुसलमानों को जोड़कर हिंदू राष्ट्रवाद के रथ पर सवार मोदी लहर को रोकने की ज़बरदस्त कोशिश की। लेकिन हिंदू राष्ट्रवाद का आवेग इतना तेज था कि तेजस्वी धाराशायी हो गए। राजनीति में यह कोई अनहोनी नहीं है। जो बीजेपी आज 303 सीटें जीत कर अट्ठाहास की मुद्रा में है वही बीजेपी 1984 में इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद राजीव गाँधी के प्रति सहानुभूति लहर में महज दो सीटों तक सिमट गयी थी। बीजेपी का पुर्नउत्थान हुआ। तेजस्वी सिर्फ़ एक बड़ी हार से हताश नज़र आ रहे हैं।

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तेजस्वी परिवार में कलह

एक चर्चा यह भी है कि तेजस्वी अपने परिवार की कलह से भी हतोत्साहित हैं। बड़े भाई तेज प्रताप अपने अजीबोगरीब हरकतों से तेजस्वी के लिए मुसीबत बने हुए हैं। तेज प्रताप की पत्नी ऐश्वर्या अलग से तेज प्रताप पर खुला आरोप लगा रही हैं। पिछले छह-आठ महीनों में तेज प्रताप के व्यवहार ने साबित कर दिया है कि वह राजनीति के लिए बने ही नहीं हैं। तेज प्रताप में राजनीतिक संयम और दृष्टि दोनों दिखायी नहीं देती। इसलिए तेज प्रताप किसी भी तरह से तेजस्वी के लिए चुनौती नहीं हो सकते। परिवार में राजनीतिक महत्वाकांक्षा उनकी बहन मीसा भारती में भी है। चर्चा है कि तेजस्वी इसको लेकर भी परेशान रहते हैं। तो क्या क़रीब तीन दशक पहले लालू ने सवर्ण वर्चस्व को चुनौती देकर पिछड़ों को राजनीति का झंडाबरदार बनाने का जो महाअभियान शुरू किया था उसके अवसान का वक़्त आ गया है। क्या हिंदू राष्ट्रवाद अब लालू यादव के 'जाति आधारित समाजवाद' को हासिये पर धकेल देगा? 

तेजस्वी के लिए एक अच्छी ख़बर यह है कि उनकी पार्टी में अभी भगदड़ की स्थिति नहीं है। रघुवंश प्रसाद सिंह जैसे पुराने नेता अब भी पार्टी की टूटी कड़ियों को जोड़ने में तेजस्वी के साथ खड़े दिखायी दे रहे हैं। लेकिन महागठबंधन की कुछ पार्टियों और नेताओं का आत्मविश्वास ज़रूर टूटता दिखायी दे रहा है।

बिहार विधानसभा का चुनाव 2020 के आख़िर में होना है। 2014 में लोकसभा चुनावों के दौरान मोदी लहर का पहला झटका मिलने के बाद बिहार की राजनीति में एक नयी धुरी बनी थी। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार आरजेडी के साथ आ गए थे। 2015 के विधानसभा चुनावों में इस गठबंधन को शानदार सफलता मिली। तब यह मान लिया गया था कि इस गठबंधन ने मोदी लहर को थाम लिया है। बाद में नीतीश फिर से बीजेपी खेमा में लौट गए। लोकसभा चुनावों तक बीजेपी और नीतीश का गठबंधन ठीक चला। मोदी सरकार के नए एजेंडे से नीतीश ज़रूर निराश लग रहे हैं। जेडीयू ने तीन तलाक़ बिल और कश्मीर के विशेष अधिकारों को ख़त्म करने के लिए अनुच्छेद 370 में फेरबदल पर बीजेपी का साथ नहीं दिया। राम जन्म भूमि मुद्दे पर भी जेडीयू और बीजेपी की सोच अब भी अलग दिखायी दे रही है। ये सब ऐसे मुद्दे हैं जो मुसलमानों को सीधे प्रभावित करते हैं। 

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क्या मुसलमान आएँगे नीतीश के साथ?

चर्चा है कि नीतीश के नए रूख से मुसलमानों का एक तबक़ा उनकी तरफ़ उम्मीद से देख रहा है। संभव है कि मुसलमान नीतीश की तरफ़ मुड़ जाएँ। इसका साफ़ मतलब होगा कि आरजेडी का एम-वाई यानी मुसलिम यादव फ़ैक्टर टूट सकता है। क़रीब 15 सालों तक लालू परिवार के सिर पर बिहार का ताज उसी फ़ैक्टर के बूते पर कायम रहा था। नीतीश ने अति पिछड़ों, अति दलितों और सवर्णों को साथ लेकर लालू के वर्चस्व को तोड़ डाला। नीतीश और बीजेपी का साथ अब असहज लग रहा है। अभी दोनों का अलग होना आसान दिखायी नहीं देता, तब भी बीजेपी एक कड़वी दवा की तरह नीतीश को स्वीकार कर रही है। एक बात तय है कि अगर आरजेडी और तेजस्वी अपने अवसाद के इस दौर से बाहर नहीं आते तो उसका बड़ा फ़ायदा नीतीश को होगा। पर तब बिहार की राजनीति का सामाजिक समीकरण पूरी तरह बदल जाएगा। यादवों का एक बड़ा हिस्सा बीजेपी की तरफ़ रूख कर सकता है। अति पिछड़ों और अति दलितों का एक वर्ग भी बीजेपी के साथ स्थायी रूप से जा सकता है। फ़िलहाल बिहार में कांग्रेस हासिये पर पड़ी है। विधानसभा चुनावों तक बीजेपी बनाम नीतीश की नयी लामबंदी भी सामने आ सकती है।

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