वैसे भी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बीजेपी के साथ कभी सहज नहीं रहे हैं। बीजेपी और जेडीयू का साथ सत्ता में बने रहने की राजनीतिक मजबूरी है। नीतीश कुमार अपनी धर्मनिरपेक्ष और मुसलमानों को सम्मान के साथ अपना बनाए रखने की छवि कायम रखना चाहते हैं। दूसरी तरफ़, बीजेपी के कई नेता मुसलमानों के ख़िलाफ़ खुला अभियान चलाते रहते हैं। इस मुद्दे पर दोनों असहज दिखाई देते हैं। इसके चलते जेडीयू और बीजेपी के बीच टकराव की ख़बरें अक्सर आती रहती हैं।
सवाल यह है कि क्या बिहार विधानसभा के चुनाव (नवंबर 2020) से पहले बीजेपी और जेडीयू का गठबंधन टूट जाएगा। इसके बाद दोनों पार्टियों की अगली रणनीति क्या होगी? क्या नीतीश कुमार फिर से राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के साथ जाएँगे? क्या बीजेपी कोई नया समीकरण तैयार करेगी? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो बिहार के राजनीतिक क्षितिज पर लगातार बने हुए हैं।
नीतीश कुमार और उनकी पार्टी अकेले दम पर चुनाव जीतने की स्थिति में कभी नहीं रही। 2014 से पहले जेडीयू और बीजेपी साथ थे लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में जेडीयू अकेले उतरी और बुरी तरह पराजित हुई। 2015 के विधानसभा चुनाव में नीतीश और आरजेडी साथ आए और जीते लेकिन 2017 में नीतीश ने आरजेडी का साथ छोड़ दिया और बीजेपी के ख़ेमे में पहुँच गए।
2019 के लोकसभा चुनाव में नीतीश और बीजेपी गठबंधन ने कमाल का प्रदर्शन किया। बीजेपी के कुछ नेताओं को छोड़ दें तो पार्टी में कोई नीतीश विरोधी अभियान नहीं दिखाई देता। इसके बावजूद नीतीश और जेडीयू के दूसरे नेता अक्सर आशंकित दिखाई देते हैं।
बिहार और उत्तर प्रदेश सहित हिंदी पट्टी के लगभग सभी राज्यों में सामान्य जातियाँ बीजेपी के पाले में आ चुकी हैं लेकिन जीत के आंकड़े तक पहुँचने के लिए अति पिछड़ों और अति दलितों का साथ ज़रूरी है। जेडीयू और बीजेपी में टकराव का एक बड़ा कारण यह भी है। हाल में बिहार के राज्यपाल के रूप में फागू चौहान की नियुक्ति को बीजेपी की इसी रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है। चौहान बिहार से सटे पूर्वी उत्तर प्रदेश के घोसी क्षेत्र से हैं और वह अति पिछड़ा जाति से आते हैं।
अति पिछड़ों के बीच सक्रिय है संघ
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) पिछले कुछ समय से अति पिछड़ों के बीच सक्रिय है। संघ प्रमुख मोहन भागवत लगातार तीन बार बिहार का दौरा कर चुके हैं। भागवत बिहार में प्रांत प्रचारक भी रह चुके हैं। उत्तर प्रदेश का किला फतह करने के बाद हिंदी पट्टी में बिहार संघ के एजेंडे में सबसे ऊपर है। संघ अच्छी तरह समझता है कि बिहार की सबसे समृद्ध पिछड़ी जाति यानी यादवों के बीच उसकी पैठ सीमित ही रहेगी। लालू यादव के राजनीतिक क्षेत्र से बाहर होने के बाद यादवों पर उनके बेटे तेजस्वी यादव की पकड़ ठीक-ठाक होती जा रही है। यादव-मुसलमान समीकरण अभी भी बिहार में जिताऊ गठबंधन माना जाता है। हालाँकि 2019 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर ने तेजस्वी को धो डाला परंतु उनकी वापसी की संभावना भी बनी हुई है।
ताज़ा बयानबाजियों को भी 2020 में सीटों के बंटवारे से जोड़कर देखा जा रहा है। लोकसभा की तरह का फ़ॉर्मूला भी बनता है तो क़रीब 100 सीटें बीजेपी और जेडीयू तथा 40 एलजेपी को मिल सकती हैं। इसके बाद भी नीतीश की मुख्यमंत्री की कुर्सी ख़तरे में पड़ सकती है।
2015 में 100 सीटों पर लड़कर नीतीश की पार्टी 70 सीटें जीत पायी। जरा भी उतार-चढ़ाव की स्थिति में एलजेपी का महत्व बढ़ सकता है। राजनीतिक हलकों में माना जाता है कि पासवान की पहली पसंद बीजेपी से कोई नया मुख्यमंत्री होगा। नीतीश और पासवान राजनीति में एक-दूसरे की पसंद नहीं हैं।
बिहार के मुसलमान नीतीश कुमार के विरोधी नहीं हैं। इसका एक बड़ा कारण यह है कि नीतीश ने सांप्रदायिक दंगा या धार्मिक भेदभाव का कभी साथ नहीं दिया। अब्दुल बारी सिद्धिकी से उनकी मुलाक़ात को भी कई राजनीतिक रंगों के चश्मे से देखा जा रहा है। पहला तो यह कि आरजेडी के साथ जाने का विकल्प भी नीतीश खोल कर रखना चाहते हैं। चाहे ना चाहे आरजेडी की मजबूरी होगी नीतीश के साथ रहना। इससे कम से कम चुनाव में जीत की स्थिति बेहतर हो सकती है।
लालू यादव के जेल जाने और मीसा यादव के ख़िलाफ़ इनकम टैक्स और सीबीआई की कार्रवाई से परेशान आरजेडी के पास ज़्यादा विकल्प भी नहीं हैं। हाल ही में लालू यादव से मुलाक़ात के बाद आरजेडी के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी ने कहा कि एनडीए की हलचलों पर उनकी नज़र है। इसे भी एक संकेत माना जा रहा है कि आरजेडी एक बार फिर से नीतीश विरोध की नीति को छोड़ सकती है।
बिहार में बीजेपी का वोट शेयर लगातार बढ़ा है। 2015 में भी बीजेपी को सबसे ज़्यादा क़रीब 24% वोट मिले थे। आरजेडी को 18 और जेडीयू को लगभग 17 फ़ीसदी वोट से संतोष करना पड़ा था। लोकसभा चुनाव में तो मोदी लहर ने इतिहास ही बना डाला। बीजेपी के लिए ज़मीन तो तैयार है लेकिन नीतीश से अलग होना एक बड़े ख़तरे को मोल लेने की तरह होगा। इसलिए इस वक़्त बीजेपी और संघ के नेताओं का ज़्यादा ध्यान अति पिछड़ी जातियों में अपनी पैठ बढ़ाने पर है।
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