वैसे तो आम तौर पर मेरी फ़ेसबुक पोस्ट पर लिखी टिप्पणियों पर मैं बाद में टीका नहीं करता हूँ परन्तु इस बार एक ‘आलेख’ लिखकर किन्हीं पत्रकार महोदय ने पूरे विस्तार से मेरी पोस्ट पर जो लिखा उसमें वर्णित कुछ तथ्यात्मक बातों पर कहने की विवशता हो रही है खास तौर पर ‘आलेख’ के अंत में लिखे वाक्यों और समझ के बाबत जिसे पहले ही मैं उद्धृत कर रहा हूँ। न जाने किस मंतव्य से बेहद आपत्तिजनक और असत्य बातें कही गई हैं:-
कांग्रेस ने समाजवादियों का सम्मान नहीं किया, सांप्रदायिक बीज बोया?
- बहसतलब
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- 18 Oct, 2024

समाजवादियों पर कांग्रेस के रवैये को लेकर एक पुराने समाजवादी रमाशंकर सिंह द्वारा टिप्पणी के विरोध में अनिल सिन्हा ने भी तर्क रखे। अब जानिए, अनिल सिन्हा के तर्कों के विरोध में रमाशंकर सिंह ने क्या दलीलें रखी हैं।
“समाजवादियों को इस पर भी सोचना होगा कि संघ परिवार नेहरू को देखना नहीं चाहता है, लेकिन लोहिया और जे.पी. को छीन लेना संभव मानता है। क्या जे.पी. और लोहिया के विचारों में कहीं कोई कोमलता है जो उन्हें ऐसे सोचने को प्रेरित करती है? अगर ऐसी कोमलता है तो समाजवादियों को इससे मुक्ति पानी होगी। लोकतंत्र, समता, सेकुलरिज़्म के सवालों पर कठोर बनना होगा। यह एक मौक़ा भी है जिसका इस्तेमाल हम आरएसएस से सहयोग की अपने पुरखों की भूल सुधारने के लिए कर सकते हैं। समाजवादियों की काल्पनिक स्वायत्तता तथा कांग्रेस और भाजपा से समान दूरी के सिद्धांत के पीछे मोदी को बनाए रखने की अप्रत्यक्ष कोशिश है। समाजवाद, लोकतंत्र और सेकुलरिज्म के सवाल सतही और अवसरवादी चिंतन से नहीं सुलझ सकते। बेचैनी कांग्रेस से नजदीकी को लेकर नहीं, मोदी के विरोध से है।यह एक मौका भी है जिसका इस्तेमाल हम आर.एस.एस. से सहयोग की अपने पुरखों की भूल सुधारने के लिऐ कर सकते हैं। इसके पीछे के व्यक्तिगत कारणों में जाना मर्यादा के अनुकूल नहीं होगा। अपने अवसरवाद को वैचारिक जामा पहनाने में समाजवादियों से मुक़ाबला कौन कर सकता है? लेकिन इसमें भी एक मर्यादा होनी चाहिए।” (संदर्भित पोस्ट से उद्धृत)
मैं भी वायदा करता हूँ कि प्रतिक्रिया स्वरूप कहीं भी व्यक्तिगत मामले चर्चा में नहीं आयेंगे (जो कि वैसे भी हैं नहीं) लेकिन इसके पहले मेरी उस पोस्ट में आखिरी एक पैरा में यह ज़रूर लिखा था- “बुनियादी सामाजिक मूल्य जिन पर पूरा जीवन काम किये हैं खपायें है: उसके लिये वचनबद्ध होकर क्यों संगठित लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती सरकारों के खिलाफ। जीवन के संध्याकाल में तो वैसे ही आ चुके हैं तो इस संघर्ष में भी अधिकतम क्या होगा- जेल या मौत! सत्ताओं के खिलाफ एक बहादुर सोशलिस्ट की भाँति अंत हो! कायर मरघिल्ले याचक की तरह नहीं!”