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आरएसएस, बीजेपी के लिए बिहार से ज़्यादा अहम बंगाल चुनाव क्यों?

दिल्ली चुनाव के नतीजों पर टीवी कवरेज के दौरान ही जब बीजेपी की जीत पक्की लगने लगी थी तो साथ बैठे एक पत्रकार ने, जिनका रुझान साफ़ बीजेपी की तरफ़ रहता है, कहा कि अब दिल्ली का तो फ़ैसला हो गया, अब अगली लड़ाई बंगाल की है। तब लगा कि शायद वे इसके बाद होने वाले बिहार चुनाव को भूल रहे हैं, सो टोक दिया। लेकिन अगले दिन जब करियर और कमाई के लिए सारे धरम और विचार बेच चुके अपने पुराने सहयोगी दिलीप मंडल जी का सोशल मीडिया संदेश देखा तो लगा कि मैं ही चूक कर रहा था। संघ परिवार और बीजेपी की नज़र दिल्ली के बाद बंगाल पर ही है और जिस तरह आप और अरविन्द केजरीवाल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के लिए ‘सिरदर्द’ बने हुए थे उसी तरह ममता बनर्जी और तृणमूल कांग्रेस भी एक चुनौती बनी हुई है- संभवत: केजरीवाल से भी बड़ी। 

ममता का राज तो 2011 से चल रहा है लेकिन बीजेपी ने जितनी तैयारी से 2021 और 2016 का चुनाव लड़ा उससे बंगाल जीतने की उसकी गहरी इच्छा का पता चलता है। पर अब यह हो रहा है कि तृणमूल के वोट कम हों न हों भाजपा का वोट प्रतिशत और जीत कम होती जा रही है। ऐसा लोक सभा चुनाव में भी हुआ है और विधान सभा चुनाओं में भी।

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भाजपा भी यह हिसाब लगा ही रही होगी कि इस बार उसे क्या करना है और कैसे अपने आखिरी मजबूत विपक्षी गढ़ को फतह करना है लेकिन उससे पहले ममता की यह घोषणा आ चुकी है कि अगला चुनाव तृणमूल अकेले लड़ेगी और कांग्रेस से कोई गठबंधन नहीं होगा। उलटे उन्होंने दिल्ली में आप की पराजय के लिए कांग्रेस के सिर भी गठबंधन नहीं करके भाजपा को मदद करने का तोहमत मढ़ दिया। इंडिया गठबंधन को बनाने और उसकी परवाह न करने में ममता अगुआ हैं। अरविन्द केजरीवाल इंडिया गठबंधन बनाने से दूर रहे लेकिन लाभ घाटे के आधार पर उसका उपयोग करते और दूरी बनाते रहे। 

ममता ने अगर कांग्रेस से गठबंधन को लेकर इतना साफ़ बयान दे दिया है तो वाम दलों से गठजोड़ का सवाल ही नहीं उठता। और अगर कांग्रेस और वामदल साथ आकर ममता बनर्जी के पंद्रह साल के शासन से पैदा एंटी-इंकम्बेन्सी का लाभ लेकर अपना प्रदर्शन जरा भी सुधार लें तो फिर तृणमूल की जीत मुश्किल हो जाएगी। आख़िर दिल्ली में कांग्रेस के मतों में दो फीसदी का इजाफा और आप तथा कांग्रेस का साथ न लड़ना ही बीजेपी की जीत में सबसे बड़ा कारण बना। बीजेपी इस संभावना से खुश होगी।

पर तय मानिए कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह वाली बीजेपी की बंगाल विजय की रणनीति में अकेले यही दांव नहीं होगा। और यह भी मत मानिए कि एक बार बंगाली मुसलमानों को पटाने तो दुबारा मटुआ समुदाय को ज्यादा जोर-शोर से अपनाने (तथा घुसपैठी बांग्लादेशी हिंदुओं को नागरिकता दिलाने का कानून लाने) जैसे कदमों की असफलता के बाद बीजेपी के तरकश के तीर समाप्त हो गए होंगे। पिछले दिनों एक डॉक्टर के साथ बलात्कार और हत्या के मामले पर उसने पश्चिम बंगाल के साथ देशव्यापी स्तर पर जिस तरह ममता सरकार की घेराबंदी की थी उसमें यह लगने लगा था कि अगर राज्य सरकार बर्खास्त भी हो जाए तो कोई आश्चर्य की बात न होगी। खैर, इस प्रकरण में राज्य सरकार बच निकली और हत्यारे के साथ ममता या तृणमूल का कोई न्यस्त स्वार्थ साबित नहीं हुआ। उलटे ममता बनर्जी भी इस कांड के दोषियों को सजा दिलाने में तत्पर लगीं और एक सीमा के बाद हड़ताली डॉक्टरों का विरोध राजनैतिक लगने लगा। 
देश भर से दबाव बनाने की भाजपाई रणनीति अभी भी बनी हुई है और केजरीवाल की तरह ममता को भी बंगाल के विकास का दोषी, परिवारवादी और भ्रष्टाचारियों का संरक्षक बताने की मुहिम जारी है।
ममता की लड़ने-भिड़ने की ताक़त भी कम नहीं है पर उनकी ईमानदारी और सादगी ऐसे गुण हैं जिन पर बंगाल ही नहीं देश का काफी बड़ा वर्ग फिदा है। ममता और नीतीश जैसे नेता आज की राजनीति में कम हैं और अगर भाजपाई जमात बिहार की जगह बंगाल के चुनाव की चर्चा शुरू करने लगा है तो उसकी वजह उसकी अपनी ताक़त से ज़्यादा नीतीश कुमार का साथ ही है। वैसे, बीजेपी के अंदर एक समूह नीतीश को ‘निपटाने’ की रणनीति वाला है क्योंकि उनके रहते भाजपा के लिए बिहार में जीत हासिल करना कठिन होगा। 
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ममता बनर्जी आज इस बात का भी काफी प्रचार कर रही हैं कि उनके शासनकाल में बंगाल में साढ़े चार लाख करोड़ के निवेश के प्रस्ताव आये हैं। पर बंगाल पुराने दिनों की तरह देश की आर्थिक राजधानी बनने से तो कोसों दूर हो चुका है। इतने लंबे शासन से उम्मीदें न पूरी होने की नाराजगी भी बढ़ती ही गई है जिसे मैनेज करना भी एक चुनौती होगी। ममता के लिए एक चुनौती अपनी जिद पर अकेले राजनीति करने की भी है। वे देश स्तर पर तो मोदी विरोधियों की एकजुटता चाहती हैं लेकिन बंगाल को अपने लिए रखना चाहती हैं। कांग्रेस और राहुल गांधी के खिलाफ उन्होंने इधर काफी कुछ कहा है। और इस बीच बीचबचाव करने वाले प्रणब मुखर्जी भी नहीं हैं।

पर जो धमक अभी से सुनाई दे रही है उससे साफ़ लगता है कि बंगाल का घमासान दिलचस्प होगा। जाहिर तौर पर इस पर उससे पहले हुए बिहार चुनाव का प्रभाव भी रहेगा। और तब तक और घटनाक्रम भी अपना स्वतंत्र रुख भी रखेंगे। लेकिन बीजेपी किस तरह की तैयारी करती है इसे नहीं भूलना चाहिए। ओडिसा में जब उसने पाइका विद्रोह का मसला उठाकर खंडायतों को साथ करने की रणनीति अपनाई तब बहुतों को लगता था कि यह व्यर्थ की कवायद है क्योंकि खुद खंडायत भी गोलबंद नहीं हैं। वे एक साथ क्षत्रिय से लेकर शूद्र होने के दावे करते हैं। 

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पर बंगाल में मटुआ अर्थात नामशूद्रों का मसला ज्यादा लाभ नहीं पहुंचा सका। इसकी एक वजह तो उनका भारत और बंगाल में कम होना है। फिर सामने ममता बनर्जी थीं जिन्होंने भाजपा का रुख भाँपते ही अपनी सरकार और पार्टी में मटुआ लोगों की कदर बढ़ा दी। फिर बंगाल की मुसलमान आबादी का ऊंचा अनुपात भी भाजपा ओवैसी या फुरफुरा साहिब के कुछ धर्मगुरुओं के सहारे पार करने लायक नहीं है। बंगाल का पढ़ा लिखा समाज भाजपाई राजनैतिक हथकंडों से खुश नहीं रहता। और बंगाल में जातिगत गोलबंदियां बहुत कम हैं। पर लड़ाई लगभग सीधी होने से भाजपा को आसानी हो गई है। और इसमें अगर दिल्ली की तरह कांग्रेस और वाम दल कुछ ज्यादा वोट पाते हैं तो भाजपा की राह आसान हो सकती है।

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अरविंद मोहन
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