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डॉ मनमोहन सिंह

काश! मनमोहन जैसी विद्वान और शालीन होती राजनीति

यह नहीं कहा जा सकता कि डॉ मनमोहन सिंह अचानक इस दुनिया से चले गए। उन्होंने 92 साल की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कहा। भरपूर आयु पाई और अपने जीवन को सार्थक और श्रेष्ठतम बनाकर बेहतरीन पारी खेली। उनके जीवन के सामने यह आकांक्षा निठल्ली ही लगती है कि काश! वे अपनी आयु का शतक जड़ पाते। हालांकि दुनिया में मृत्यु को पीछे ठेलने के प्रयास चल रहे हैं और उनको नाते अगर खुशी है तो आशंका भी है कि अगर युवाओं की संख्या कम होगी तो वृद्धों को पालेगा कौन।
लेकिन डॉक्टर साहब बाथरूम में रेनकोट पहनकर नहाने वाले राजनेता नहीं थे। न ही वे हार्डवर्क छोड़कर हार्वर्ड में मौजमस्ती करने वाले नेता थे। वे भारतीय संस्कृति की विद्वता और शालीनता की श्रेष्ठ परंपरा के प्रतीक थे और इस बात के प्रमाण थे कि भारतीय लोकतंत्र में विद्वान और सज्जन व्यक्ति के लिए शीर्षस्थ संभावनाएं हैं। जब उनके बाद के युग पर निगाह दौड़ाएं तो कहा जा सकता है कि किसी देश को ऐसे सज्जन और विद्वान शासक सदियों में नसीब होते हैं।
भले ही अर्थशास्त्री मोहम्मद यूनुस बांग्लादेश के प्रमुख सलाहकार हैं और उन्हें नोबल भी मिल चुका है लेकिन वे अपने देश को न तो आर्थिक मोर्चे पर संभाल पा रहे हैं और न ही सांप्रदायिक सौहार्द के। वे फिर अपने देश को उसी कट्टरपंथ के रास्ते पर ले जा रहे हैं जहां हर तरह के जाहिल ले जाना चाहते हैं और जहां भारत जा रहा है।
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यह लेखक डॉ मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों का शुरू से ही आलोचक रहा है। बल्कि दिल्ली के वैकल्पिक आर्थिक समूह का एक सहयोगी सदस्य भी रहा है जो आर्थिक मोर्चे पर डॉ मनमोहन सिंह की नीतियों की मौलिक आलोचना करने वाला समूह रहा है। लेकिन दो ऐसे तथ्य हैं जो यह बताते हैं कि डॉ मनमोहनसिंह न तो अपने जीवन में शुरू से ही पूंजीवाद के समर्थक थे और न ही उदारीकरण के कट्टर योजनाकार। 
अपने मित्र और देश के जाने माने पत्रकार अनिल चमड़िया ने एक लेख लिखकर बताया था कि जब डॉ मनमोहन सिंह चंडीगढ़ में अध्यापक थे तो उनका रुझान अति वामपंथी समूहों की ओर था। फिर धीरे धीरे वे उन समूहों से बाहर निकले और सरकार की आर्थिक नौकरशाही के सदस्य बने। आज अगर उनके जैसा कोई अर्थशास्त्री कहीं होता तो मौजूदा सरकार उसे अर्बन नक्सल घोषित करके कब का जेल में डाल चुकी होती।
लेकिन यह कांग्रेस पार्टी की कार्यशैली, विशाल हृदयता और नेहरू गांधी परिवार के विदेशी `परिवारवाद’ की मजबूरियां थीं जिसने डॉ मनमोहन सिंह जैसी प्रतिभा का सम्मान करते हुए उन्हें देश के सर्वोच्च पद पर पहुंचाया। वामपंथी रुझान या जनपक्षीय रुझान वाला अर्थशास्त्र का यह अध्यापक बाद में भले नवउदारवाद का वैश्विक प्रतीक बन गया लेकिन उसके कारण नवउदारवाद के चेहरे पर कालिख नहीं पुती बल्कि उसने अपना चेहरा चमकाया। डॉ मनमोहन सिंह का नवउदारवाद भारत में मानवीय चेहरे के साथ लागू हो रहा था और अगर भारत इस मोर्चे पर चीन की तरह कामयाबी का एक मॉडल बन रहा था तो उसकी बड़ी वजह डॉ मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी की मिलकर काम करके की शैली थी। 
भले ही संजय बारू जैसे पत्रकारों ने डॉ सिंह की निकटता से विश्वासघात करते हुए `द ऐक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ जैसी किताब लिखी और उसने उन्हें बदनाम करने और संघ भाजपा के बड़बोले प्रवक्ताओं को यूपीए सरकार पर दागने के लिए बारूद और कारतूस मुहैया कराया, लेकिन अगर गंभीरता से विवेचन किया जाएगा तो वास्तव में हरीश खरे के शब्दों में(और द टेलीग्राफ के हेडलाइन के मुताबिक) डॉ मनमोहन सिंह `पोस्ट माडर्न इंडिया के निर्माता’ ही कहे जाएंगे।
लेकिन जो लोग यह अफवाह फैलाते रहे हैं कि डॉ मनमोहन सिंह का रिमोट कंट्रोल सोनिया गांधी के हाथ में था वे यह भूल जाते हैं कि जब किसी प्रधानमंत्री का रिमोट कंट्रोल अडानी और अंबानी जैसे पूंजीपतियों के हाथ में होता है तो वह देश के साथ कैसा बर्ताव करता है। या अगर किसी प्रधानमंत्री  या मुख्यमंत्री का रिमोट कंट्रोल किसी बाबा या धर्मगुरु के हाथ में होता है तो देश और राजनीति का क्या हाल होता है। वास्तव में एक निरंकुश शासक के मुकाबले वह शासक बहुत अच्छा होता है जिस पर नैतिकता, लोकतंत्र और संवैधानिक मूल्यों का अंकुश काम करता हो और जो अपने निर्णय अपने दल से पूछ कर ले। यूपीए सरकार की यही व्यवस्था थी और आज वैसी व्यवस्था न होने के कारण यह देश रोजाना फासीवादी राजनीति का कड़वा घूंट पी रहा है।
किसान आत्महत्याओं, आदिवासियों के विरुद्ध आपरेशन ग्रीन हंट जैसे विवादास्पद प्रभावों और निर्णयों के बावजूद अगर में डॉ मनमोहन सिंह के कार्यकाल में सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, भोजन का अधिकार, मनरेगा जैसी योजनाएं लागू हो सकीं और जिसे लाख कोशिश के बावजूद मोदी सरकार खत्म करने का साहस नहीं कर पा रही है तो यह डॉ मनमोहन सिंह के उदारीकरण का मानवीय चेहरा है। उस समय की एक व्यवस्था जिसे आदर्श कहा जा सकता है वह थी ईएसी बनाम पीएसी की व्यवस्था।
ईएसी यानी इकॉनमिक एडवाइजरी कमेटी और पीएसी माने पालिटिकल एडवाइजरी कमेटी। प्रधानमंत्री की ईएसी अगर आर्थिक सुधारों के कठोर कदम का सुझाव देती थी तो सोनिया गांधी को सलाह देने वाली पीएसी उसे रुकवा देती थी। दूसरी ओर पीएसी अगर जनकल्याण संबंधी कोई कार्यक्रम सुझाती थी तो नाक भौं सिकोड़ने के बावजूद ईएसी को उसे मानना पड़ता था। उससे भी बड़ी बात यह थी कि डॉ मनमोहन सिंह एक गठबंधन की सरकार चला रहे थे और उन्हें गठबंधन धर्म को मानना पड़ता था। एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम को लेकर वे चल रहे थे और उसके निर्माण में वामपंथी दलों का बड़ा योगदान था। 
शायद यह वामपंथी दलों का दबाव ही था कि उस समय सार्वजनिक क्षेत्रों के बैंकों का निजीकरण नहीं हो सका। हालांकि आखिर में न्यूक्लियर डील के सवाल पर उनकी वामपंथी दलों से ठन गई और कम्युनिस्टों ने यूपीए सरकार से समर्थन वापस ही ले लिया। निश्चित तौर पर तब डॉ मनमोहन सिंह ने साबित कर दिया कि वे एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर नहीं हैं। वे इस देश की मिट्टी में पैदा हुए और अपनी प्रतिभा से शीर्ष तक पहुंचे एक स्वाभाविक प्रधानमंत्री हैं और वे जब डट कर खड़े होते हैं तो सिंह इज किंग बन ही जाते हैं। गौर करने लायक है कि 2009 में उनके कम बोलने और शालीनता से वर्ताव करने का जब लालकृष्ण आडवाणी ने मजाक उड़ाया तो भाजपा को यह मजाक भारी पड़ा।
लेकिन डॉ मनमोहन सिंह की एक चेतावनी जिसकी उपेक्षा हुई या गठबंधन की मजबूरियों के कारण जिसे वे नहीं लागू कर सके वह थी उदारीकरण में कठोर निगरानी की आवश्यकता। यह बात उन्होंने बार बार कही थी यह आर्थिक नीतियां ऐसी हैं जिनके लिए निगरानी संस्थाएं मजबूत होनी चाहिए। यानी पहले के दौर की जो संस्थाएं हैं उनकी जगह पर नई संस्थाएं बननी चाहिए। जो वे कर नहीं सके। बल्कि उनकी अपनी सरकार की संस्थाओं ने ही कुछ ज्यादा स्वायत्तता बल्कि शत्रुता से काम किया और उन्हीं को बदनाम कर दिया।
इसके बावजूद भूमि अधिग्रहण कानून में तकरीबन 120 साल बाद संशोधन करने और लोकपाल बिल पारित करने का श्रेय तो डॉ मनमोहन सिंह को ही दिया जाना चाहिए। निश्चित तौर पर मनमोहन सिंह का ध्यान देश और दुनिया के आर्थिक विकास पर था और जिन आर्थिक नीतियों को लेकर नोबल पुरस्कार विजेता जोसेफ स्टिग्लिट्ज `ग्लोबलाइजेशन एंड इट्स डिस्कंटेंट’, `मेकिंग ग्लोबलाइजेशन सक्सेस’ जैसी किताबें लिखकर सुझाव दे रहे थे और तमाम सैद्धांतिक सवाल उठा रहे थे उन्हें डॉ मनमोहन सिंह ने कम से कम भारत में विफल नहीं होने दिया।
उन्होंने जान राल्स्टन साल के उस सिद्धांत को भी भारत में नहीं चलने दिया जिसे उन्होंने कोलैप्स आफ ग्लोबलिज्म में व्यक्त किया था। वे नीतियां जो दक्षिण पूर्व एशिया में भयानक संकट खड़ा कर चुकी थीं, जिनके कारण ब्राजील में अस्थिरता आ गई थी और जिनके नाते अमेरिका में सब-प्राइम संकट खड़ा हो गया था, उन्हें दो बार बाइपास सर्जरी करा चुके दुबले पतले डॉ सिंह कुशलता पूर्वक हांक रहे थे।
उनकी विफलता आतंकवाद के मोर्चे पर जरूर कही जाएगी। क्योंकि कश्मीर में आतंकी घटनाएं हो रही थीं और इस कड़ी में सबसे बड़ी घटना मुंबई में 26/11 के आतंकी हमले की थी। उनकी अर्थनीति भले आक्रामक रही हो लेकिन विदेश नीति न तो आक्रामक थी और न ही पड़ोसी को गाली देने की थी। लेकिन उनकी सरकार ने 26/11 का जबरदस्त राजनयिक प्रतिकार किया और पाकिस्तान को रक्षात्मक कर दिया। फिलहाल उनके कार्यकाल में चीन ने गलबान जैसी घटना तो नहीं ही की।
डॉ मनमोहन सिंह एक शालीन राजनेता के तौर पर भारत में लोकतंत्र की जड़ों को गहरा करने के लिए और फासीवाद को भारत में कम से दस साल पीछे ठेलने के याद किए जाएंगे। उन्हें देखकर यही लगता है कि वे प्रधानमंत्री के तौर पर वैसे ही काम कर रहे थे जैसे एक प्रोफेसर के तौर पर या रिजर्व बैंक के गवर्नर के तौर पर करते रहे हों। लगता है उन्होंने चौधरी चरण सिंह की `शिष्टाचार’ वाली किताब पढ़कर राजनीति में कदम रखा था। वास्तव में डॉ मनमोहन सिंह का कार्यकाल पिछले दस साल के मोदी के कार्यकाल को आइना दिखाने वाला लगता है। 
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उनकी राजनीति वास्तव में महात्मा गांधी, विनोबा और जयप्रकाश की लोकनीति का ही एक अंश लगती है। खासकर जब इस दौर में राजनीति की प्रेरणा झूठ, मक्कारी, क्रूरता और हिंसा से ली जाती हो तो यकीन नहीं होता भारत जैसे देश का कभी मनमोहन सिंह जैसा प्रधानमंत्री हुआ था। राजनीति को साम, दाम, दंड, भेद के चार खंभों पर टिकी हुई एक ऐसी इमारत बताया जाता है जिसके भीतर से अल्पसंख्यकों, निर्बलों और सच्चे लोगों के दमन की चीखें सुनाई पड़ती हैं और हेराफेरी करने वाले, नफरत फैलाने वाले झूठे लोगों, देश के संसाधनों को लूटने वालों के अट्टहास सुनाई पड़ते हैं।
हालांकि इस बात पर भी विचार किया जाना जरूरी है कि क्या भारतीय लोकतंत्र के मौजूदा संकट के लिए वे नीतियां नहीं जिम्मेदार हैं जिनके प्रणेता डॉ मनमोहन सिंह माने जाते हैं। यह अलग विचार का विषय है लेकिन डॉ सिंह भारत के इतिहास में एक सक्षम, उदार, सज्जन, विद्वान और ईमानदार शासक के रूप सदैव याद किए जाएंगे।     
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अरुण कुमार त्रिपाठी
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