करतारपुर साहिब गलियारा खोलने के मुद्दे पर भारत-पाकिस्तान के बीच बातचीत 14 मार्च को अटारी-वाघा सीमा पर भारतीय इलाक़े में होगी। केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने इसमें भाग लेने का एलान कर दिया है। जिस दिन सरकार ने यह एलान किया, उसी दिन जम्मू में बस पड़ाव पर खड़ी एक बस पर ग्रेनेड हमला हुआ, जिसमें एक आदमी मारा गया और 32 घायल हो गए।
दहशत फैलाने की यह पहली वारदात नहीं है। पुलवामा में सीआरपीएफ़ के 40 जवानों की शहादत के दो दिन बाद ही आतंकवादी गुट जैश-ए-मुहम्मद ने अर्द्धसैनिक बलों पर हमला कर दिया, उसके बाद हुई मुठभेड़ में सुरक्षा बलों के छह और जैश के 3 लोग मारे गए थे। उसके बाद लगभग एक हफ़्ते बाद फिर एक मुठभेड़ हुई और उसमें भी दोनों पक्षों के लोग मारे गए।
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पुलवामा हमले के बाद समझा जाता था कि करतारपुर साहिब गलियारे पर बातचीत नहीं होगी। पर पुलवामा हमला हुआ, उसके बाद भी हमले हुए, अर्द्धसैनिक बलों के लोग मारे गए और अब बातचीत भी होगी।
युद्धोन्माद
इस पर कई सवाल खड़े होते हैं। पुलवामा हमले के बाद एक सोची समझी रणनीति के तहत पूरे देश में युद्धोन्माद भड़काया गया था। इसमें सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े लोग तो थे ही, सबसे अहम भूमिका सरकार समर्थक मीडिया और सेना से रिटायर हो चुके कुछ वरिष्ठ सैनिक अधिकारी और रक्षा विशेषज्ञों की थी।मीडिया के एक वर्ग के कुछ नामी-गिरामी न्यूज़ एंकर चीख-चीख कर पाकिस्तान पर हमला करने और युद्ध छेड़ने की बात कर रहे थे। कुछ चैनल तो युद्ध का पूरा खाका खींच रहे थे और रिटायर्ड अफ़सरों की मदद से बता रहे थे कि युद्ध छिड़ा तो कहाँ, कैसे, कब और किस हथियार से पाकिस्तान पर हमला कर देना चाहिए।
युद्धोन्माद अकारण नहीं था। यह धीरे-धीरे एक किस्म के उग्र और छद्म राष्ट्रवाद गढ़े जाने का नतीजा था। साल 2014 से ही बीजेपी ने बार-बार कहा था कि पाकिस्तान से किसी तरह की बातचीत नहीं की जा सकती है। उसका तर्क था कि आतंकवाद और बातचीत एक साथ नहीं चल सकते। बग़ैर बुलाए पाकिस्तान पहुँच कर नरेंद्र मोदी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ समेत पूरी दुनिया को चौंका दिया और इसके कई अर्थ निकाले जाने लगे थे। एक बार ऐसा लगा कि दोनों देशोें के बीच बर्फ़ पिघलेगी, पर उसके कुछ दिन बाद ही मोदी सरकार ने अपना रवैया फिर सख़्त कर लिया।
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आतंकवाद बदस्तूर जारी रहा
मोदी के प्रधानमंत्री रहते ही पठानकोट एअर बेस पर आतंकवादी हमला हुआ, जिसमें 9 लोग मारे गए। जम्मू-कश्मीर के ही उरी में सीआरपीएफ़ कैम्प पर हमला हुआ, उसमें 19 लोग मारे गए। इसके बाद भारत ने पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में आतंकवादी कैंपों पर हमले किए और इसे सर्जिकल स्ट्राइक कह कर खूब प्रचारित किया। पाकिस्तान ने सिरे से खारिज करते हुए कहा था कि उसे कोई नुक़सान नहीं हुआ। उसके बाद जम्मू-कश्मीर में छिटपुट आतंकवादी हमले और सेना के साथ आतंकवादियों की मुठभेड़ होती रहीं। यानी, आतंकवाद बदस्तूर जारी रहा। इससे मोदी और सत्तारूढ़ दल के इस तर्क को बल मिला कि पाकिस्तान एक ‘रोग स्टेट’ यानी 'दुष्ट राष्ट्र' है और इससे बातचीत का कोई मतलब नहीं है। पुलवामा हमले ने एक तरह से इस 'नैरेटिव' को पुख़्ता कर दिया।राष्ट्रवाद के इस नैरेटिव को और ज़ोरदार तरीके से पेश करने के लिए भारत ने पाकिस्तान के ख़ैबर पख़्तूनख्व़ा में आतंकवादी संगठन जैश-ए-मुहम्मद के ठिकानों पर हमला किया और बडी संख्या में आतंकवादियों को मार गिराने का दावा किया। हालाँकि अंतरराष्ट्रीय समाचार एजेंसियों की राय अलग है। उनका कहना है कि हमला तो हुआ, पर उसमें किसी के मारे जाने की ख़बर नहीं है।
भारतीय मीडिया के एक वर्ग ने इसके बाद पाकिस्तान पर हमले को एक मात्र विकल्प के नैरेटिव को ज़ोरशोर से पेश किया। हालत यह हो गई कि पाकिस्तान से बातचीत या हमला नहीं करने के किसी तर्क को देशद्रोह समझा जाने लगा और ऐसे लोगों को पाकिस्तान का समर्थक।
इस स्थिति की भयावहता इससे समझी जा सकती है कि जब पुलवामा हमले के एक शहीद की विधवा ने कहा कि वह युद्ध नहीं चाहती हैं, तो बीजेपी की साइबर सेना ने उसे बुरी तरह ट्रोल किया, उसके ख़िलाफ़ अपशब्दों का इस्तेमाल तक किया गया। करगिल में शहीद हुए अफ़सर की बेटी गुरमेहर कौर को सिर्फ़ इसलिए ट्रोल किया गया कि उन्होंने कहा कि वह पाकिस्तान से युद्ध नहीं चाहती हैं।
लेकिन उसके तुरन्त बाद ख़ुद को राष्ट्रवादी कहने वाली मोदी सरकार ने पाकिस्तान से बातचीत को हरी झंडी दे दी। अब इतने दिन तक तलवार भाँजने वाले राष्ट्रवादी क्या करें, यह सवाल है। सवाल यह भी है कि सरकार ने यह फ़ैसला क्यों किया। क्या पाकिस्तान ने आतंकवाद को समर्थन देना बंद कर दिया है और पाकिस्तानी ज़मीन पर अब कोई प्रशिक्षण शिविर नहीं चल रहा है? क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आतंकवाद और बातचीत एक साथ नहीं चलने देने के अपने पुराने फै़सले को उलट दिया है?
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