हाथरस में मरने वाली निर्भया की फोरेंसिक जाँच रिपोर्ट को मीडिया से 'शेयर' करते हुए उत्तर प्रदेश के एडीजी (लॉ एंड ऑर्डर) ने बीते गुरुवार को बड़े गर्व से कहा कि ‘मृत लड़की की योनि से शुक्राणु बरामद नहीं हुए हैं। इसका निहितार्थ है-
- कि मृत्यु से पहले लड़की द्वारा लगाया गया बलत्कार का आरोप झूठा है।
- कि उसकी माँ और पिता की गाँव के 4 लड़कों पर अपनी बेटी के साथ किए गए यौन दुराचार की शिकायत ग़लत है।
- कि पूरे प्रदेश में जा रहे इस सन्देश का कोई सिर-पैर नहीं है।
- कि हाथरस में अमुक लड़की की यौन हत्या हुई है, सारे देश में किसी को यह सोचने का कोई अधिकार नहीं।
- कि आदित्यनाथ योगी के रामराज में हर दिन 11 महिलाओं के साथ यौन दुराचार होता है, इस तथ्य में कोई दम नहीं।
- कि यह एक अंधेरनगरी है, जिसका राजा चौपट है। जो राजा कहेगा, वही अंतिम सच माना जाएगा।
'भारतीय दंड संहिता' की धारा 375 में बलात्कार के जो 4 कारण बताए गए हैं उनमें से 3 में पुरुष लिंग के उपयोग में लाने/न लाने का कोई ज़िक्र नहीं है। जब ऐसा है तो दूरबीन लेकर शुक्राणुओं को ढूँढने की हिमाक़त करने के क्या मतलब? सन 2013 में बलात्कार सम्बन्धी क़ानूनों में संशोधन के बाद यह स्पष्ट हो गया है कि 'यौनाचार' जैसे आपराधिक मामलों में पुरुष या स्त्री के सिर्फ़ लिंग के उपयोग में लाए जाने की कोई अर्थवत्ता नहीं। लगता है योगी जी, उनकी सरकार, उनकी सरकार की पुलिस और उनकी सरकार की पुलिस के पढ़े-लिखे अधिकारियों ने- पढ़ना-लिखना बिलकुल छोड़ दिया है।
मानवाधिकारों के हनन पर नज़र रखने वाली न्यूयॉर्क स्थित विश्व के सबसे महत्वपूर्ण संस्था 'ह्यूमन राइट्स वॉच' ने अपने शोधकर्ताओं की बहुत बड़ी टीम की मदद से 3 वर्ष पहले भारत में बलात्कार के मुद्दे को लेकर के 4 राज्यों में एक व्यापक 'फील्ड रिसर्च' किया था। यह सन 2013 में भारतीय संसद में बलात्कार पर तमाम नए क़ानूनों के बनने के बाद देश में होने वाला इस क़िस्म का पहला और अभी तक का एकमात्र 'फील्ड रिसर्च' है।
यहाँ हम विस्तार से 'ह्यूमन राइट्स वॉच’ के अनुसंधान निष्कर्षों की चर्चा करेंगे लेकिन उससे पहले केंद्रीय ‘परिवार कल्याण एवं स्वास्थ्य मंत्रालय’ की उस गाइड लाइन पर बात कर ली जाए जो संसद में बलात्कार संबंधी नए क़ानूनों के निर्माण के बाद भेजी गई थीं ताकि इन नए क़ानूनों और बदले हुए पुराने क़ानूनों के सम्बन्ध में व्याप्त भ्रमों का निवारण किया जा सके। 6 साल बाद भी ज़्यादातर राज्यों में उनका पालन नहीं हो रहा है। इसी के चलते शायद प्रशांत कुमार जैसे वरिष्ठ आईपीएस ने इसे अभी तक पढ़ा नहीं है। गाइड लाइन साफ़-साफ़ कहती है कि-
- मेडिकल जाँच और चिकित्सा में फॉरेन्सिक जाँच शामिल है।
- फॉरेन्सिक जाँच क़ानूनी रूप से प्रासंगिक है लेकिन ज़रूरी नहीं।
- पुलिस और न्यायाधीश फॉरेन्सिक जाँच पर बहुत बल देते हैं जिसका कोई औचित्य नहीं।
- अभियोजन केवल बलात्कार की शिकार महिला के बयान और गवाही पर ही दोष सिद्ध कर सकता है।
स्वास्थ्य, मूल रूप से राज्य सरकार का विषय है लेकिन राष्ट्रीय मसलों में स्वास्थ्य मंत्रालय इस प्रकार के दिशा निर्देश जारी करने का अधिकारी है। इस गाइड लाइन को लागू करने की ज़रूरतों की प्रस्तावना के बारे में गाइड लाइन में कहा गया है-
- ताकि यह मेडिकल पेशेवरों द्वारा की जाने वाली जाँच और चिकित्सा को मानकीकृत (स्टैंडरडाइज़) कर सके।
- ताकि यह शिकार महिला की गोपनीयता, गरिमा, उसे भयमुक्त वातावरण प्रदान करने, तथा महिलाओं और बच्चों के अधिकारों का सम्मान करने के लिए तैयार की गई प्रक्रियाओं को एकीकृत कर सके।
- ताकि यह 'टू फिंगर टेस्ट' के ख़ात्मे की जानकारी दे सके और पीड़िता के 'कहीं सेक्स की आदी तो नहीं' जैसे अवैज्ञानिक और अपमानजनक चारित्रिक हनन वाले चिकित्स्कीय निष्कर्ष को ख़ारिज कर सके।
- ताकि यह मेडिकल जाँच के समय महिला पुलिसकर्मी अथवा परिवार की महिला की उपस्थिति को सुनिश्चित कर सके।
- ताकि यह स्पष्ट हो सके कि यौन हमलों का अर्थ केवल लिंग प्रविष्टि नहीं है।
- ताकि डॉक्टर लोग यह समझ सकें कि 16 पृष्ठों का लम्बा चौड़ा फ़ॉर्म भरना क्यों ज़रूरी है। ‘शार्टकट’ से काम न चलाया जाए।
इस गाइड लाइन में पीड़ित महिलाओं-लड़कियों के लिए मनोसामाजिक देखभाल का ख़ाक़ा खींचते हुए कहा गया है कि -
1. स्वास्थ्यकर्मियों को 'फर्स्ट लाइन 'इलाज देना चाहिये या यह सुनिश्चित करना चाहिए कि ऐसे में कोई अन्य प्रशिक्षित व्यक्ति भी केंद्र में मौजूद रहे।
2. पीड़ित के कल्याण पर ध्यान देना चाहिए। उन्हें अपनी भावनाओं को व्यक्त करने और संकटकालीन परामर्श लेने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।
3. उनका सुरक्षा मूल्याँकन होना चाहिए।
4. उनके लिए सुरक्षा योजना बनाई जानी चाहिए।
5. पीड़ित महिलाओं की इलाज प्रक्रिया में उनके परिजाओं और दोस्तों को शामिल किया जाना चाहिए।
गाइड लाइन लागू होने के 4 साल बाद 4 राज्यों में किये गए 'ह्यूमन राइट्स वॉच' के इस अनुसन्धान में पाया गया कि इनमें से ज़्यादातर गाइड लाइन का पालन नहीं किया जाता है।
'वॉच' के अनुसन्धान में पाया गया कि बलात्कार को अब भी महिलाओं की शर्मिंदगी के बतौर पेश किया जाता है और इस पर बात करने में उनके सामने कई प्रकार की सामाजिक बाधाएँ खड़ी की जाती हैं।
इसके अतिरिक्त -
- भारत में लड़कियों और महिलाओं को 'कलंकित होने के डर से’ बलात्कार की रिपोर्ट दर्ज़ करने में हिचकिचाहट होती है। पीड़ित या गवाहों को सुरक्षा प्रदान करने वाली एजेंसी के अभाव के चलते वे 'आपराधिक न्याय प्रणाली' में व्याप्त संस्थागत बाधाओं को पार करने में ख़ुद को असमर्थ महसूस करती हैं।
- यौन हिंसा और बलात्कार की शिकार (विशेषकर सामाजिक-आर्थिक रूप से हाशिये पर या इसके बाहर खड़े समुदायों की स्त्रियाँ या लोगों) को शिकायत दर्ज़ करने में ख़ासी दिक़्क़त महसूस होती है।
- अक्सर उन्हें पुलिस थानों या अस्पतालों में अपमान का सामना करना पड़ जाता है।
- नए क़ानूनों के बन जाने के बावजूद उन्हें चिकित्सकों द्वारा अपमानजनक परीक्षणों के लिए मजबूर किया जाता है।
अंतरराष्ट्रीय संगठन की इस सघन रिसर्च में जो परिणाम निकले उनके मुताबिक़ :
-यद्यपि एफ़आईआर दायर करना पहला क़दम है। पीड़ित की शिकायत दर्ज़ करने में विफलता या अड़चन डालना सीआरपीसी की धारा 66A के तहत क़ानूनन जुर्म है।
-पुलिस अधिकारी लेकिन इसमें अमूमन अड़चन डालते हैं। यह जानने के बावजूद कि ऐसा करने पर उन्हें 2 साल की सज़ा हो सकती है, वे रत्ती भर नहीं डरते क्योंकि अभी तक कहीं भी किसी अधिकारी को इस मामले में सज़ा होने के प्रमाण नहीं हैं।
-अदालती सुनवाई की प्रक्रिया पीड़ित के लिए भयभीत करने वाली हो सकती है क्योंकि पीड़ित को शर्मिंदा करने की कोशिशें अदालतों में ख़ूब होती हैं।
-अक्सर पाया गया है कि न केवल बचाव पक्ष के वकील बल्कि कई बार तो न्यायाधीश भी पीड़ित के प्रति पक्षपातपूर्ण और अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल करते हैं।
-ग़रीब और उपेक्षित महिलाओं के लिए अपर्याप्त क़ानूनी मदद एक गंभीर चिंता का विषय है।
-बलात्कार के मामलों को निबटाने के लिए देश में कुल 524 'फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट' गठित किए गए हैं लेकिन इनकी प्रभावशीलता को निर्धारित करने की ख़ातिर कोई अध्ययन नहीं हुआ है।
इन अनुसंधानों से ज्ञात हुआ है कि केवल इस प्रकार के 'कोर्ट' गठित करने से काम नहीं चलने वाला। पीड़ितों के लिए 'क़ानूनी सहायता' जैसे अन्य मसलों पर भी गंभीरता से विचार होना चाहिए। इन राज्यों में किसी प्रकार की ‘समन्वित सहायता सेवा’ की उपस्थिति दर्ज़ नहीं है, कारण कि इस दिशा में कोई 'समग्र राष्ट्रीय कार्यक्रम' नहीं है। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि यह संकट अकेले इन 4 राज्यों तक सीमित नहीं है, बाक़ी देश की भी कमोबेश ऐसी ही दशा है।
कई साल की कोशिशों के बाद जाकर 'निर्भया कोष' की स्थापना हो सकी जिसमें हर पीड़ित के लिए के लिए 3 लाख रुपये की सहायता राशि का प्रावधान है। हालाँकि ज़्यादातर लोगों को यह मिल नहीं पाती क्योंकि उन्हें इसकी बाबत कोई जानकारी नहीं होती। जिन्हें जानकारी हो भी जाती है, उनके लिए इसे प्राप्त करना बड़ी टेढ़ी खीर है।
इसी प्रकार 'वन स्टॉप सेंटर' जैसी योजना भी पूर्णतः फेल है क्योंकि या तो पीड़ित अथवा उसके परिजनों को इसकी जानकारी का अभाव भी है या इसको लेकर कोई विभागीय 'कोऑर्डिनेशन' नहीं है।
यौन पीड़ितों की रक्षा
अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों के तहत भारत ‘मानवाधिकार संधियों’ का साझीदार है जिसके तहत वह यौन पीड़ितों की रक्षा करने के लिए बाध्य है। अधिकतर मामलों में 'राज्य' इसमें असफल रहता है और ‘राज्य' की इस असफ़लता का अर्थ है अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकारों का उल्लंघन। सन 2017 में 'संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद्' ने तीसरी व्यापक सामुदायिक समीक्षा की। इस समीक्षा के पीछे भारत सहित 3 दर्जन देशों में होने वाली महिला विरोधी हिंसा और भेदभाव को लेकर यूएन की चिंता थी। 'परिषद' ने माँग की कि भारत महिलाओं के विरुद्ध होने वाली सभी प्रकार की हिंसा और भेदभाव के उन्मूलन पर 'यूएन कन्वेंशन' के वैकल्पिक मसविदे को मंज़ूरी दे ताकि 'संधि' की निगरानी रखने वाली समिति को भारत में व्यक्तियों या समूहों से शिकायत प्राप्त करने और उन पर विचार करने में सुविधा मिल सके। भारत ने अभी तक इसे मंज़ूरी नहीं दी है और कोई न कोई टालममटोल किए हुए है।
स्थिति क्यों नहीं सुधरी?
जाँच, चिकित्सा, अभियोजन और अदालती प्रक्रिया तथा अंतरराष्ट्रीय मसलों पर 'वॉच' का उक्त 'गहन अनुसन्धान' अपने समय में होने वाली तमाम अनियमितताओं को जस का तस खोल कर रख देता है। इसके बावजूद यह नहीं मानना चाहिए कि ऐसा होने या इसके बाद की स्थितियों में स्वतः संज्ञान लेकर, कोई रद्दोबदल की गई है। 3 साल बाद भी स्थितियाँ वैसी की वैसी हैं बल्कि और ज़्यादा भयावह हुई हैं। अनुसंधान के समय तक उसके समक्ष समूची राजसत्ता की मशीनरी के पूरी ताक़त लगाकर किसी बलात्कार को झुठलाने का कोई उदाहरण नहीं था, अन्यथा वह उसे भी अपने निष्कर्षों में शामिल कर लेता। इस अनुसन्धान में पीड़ित मृतक के शव को रात के बीते प्रहर में माता-पिता और घरवालों की अनुपस्थिति में आग के हवाले कर देने का भी कोई अनुसन्धान नहीं है क्योंकि ग़ुलामी के दिनों की बात छोड़ दें (जो अंग्रेज़ अपने विरोधी राजनीतिक अपराधियों के साथ करते थे), स्वतंत्र भारत के इतिहास में राजसत्ता की तरफ़ से सच्चाई को झुठलाने की तब तक ऐसी शर्मनाक कार्रवाई कभी नहीं हुई थी।
अलबत्ता इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा बीते गुरुवार उक्त मामले को स्वतः संज्ञान के ज़रिये लिया गया है। जस्टिस रंजन रॉय और जसप्रीत सिंह की बेंच ने माना है कि यदि जबरन संस्कार कर दिए जाने की बात सच साबित होती है तो यह संविधान की धारा 21 और 25 के अंतर्गत प्रदत्त मूल मानवाधिकार और मौलिक अधिकारों का गंभीर हनन है।
कोर्ट ने कहा कि "हम यह भी देखेंगे कि क्या मृतक की आर्थिक और सामाजिक पृस्ठभूमि के चलते ही प्रशासन को परिजनों का दमन करने और उन्हें उनके संवैधानिक अधिकारों से वंचित की हिम्मत हुई।”
अदालत ने कहा है कि यह मुद्दा अभी खुला हुआ है कि क्या हमारा इस मामले को मॉनिटर करना ज़रूरी है अथवा क़ानूनन कोई स्वतंत्र एजेंसी इसकी जाँच करे। इस मामले में कोर्ट ने अगली तारीख़ 12 अक्टूबर की निर्धारित की है जिसमें परिजनों को उपस्थित होने और उनको अपना बयान दर्ज़ करने को कहा गया है। इस मामले में अतिरिक्त मुख्य सचिव (गृह), डीजी पुलिस, एडीजी (लॉ एंड ऑर्डर), ज़िलाधिकारी हाथरस, पुलिस अधीक्षक हाथरस को निर्धारित तिथि पर अपना पक्ष प्रस्तुत करने हेतु सामान जारी किया गया है। कोर्ट ने राज्य सरकार को साफ़-साफ़ निर्देशित किया है कि वह इस मामले में सुनिश्चित करे कि मृतक के परिवार पर किसी भी प्रकार की ज़ोर ज़बरदस्ती और दबाव नहीं डाला जाएगा।
इससे भला कौन इंकार करेगा कि मृतक यदि आर्थिक और सामाजिक रूप से सम्पन्न पृष्ठभूमि वाली होती तो कोई हुकूमत ऐसा करने की हिमाक़त नहीं कर पाती।
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