पूरी दुनिया की तरह भारत भी कोरोना वायरस की महामारी से लड़ रहा है। पर एक अंतर है। पिछले एक सप्ताह से यहाँ के लोग इस महामारी के बारे में सिर्फ़ एक ही बात की अनावश्यक चर्चा कर रहे हैं– मुसलमानों के धार्मिक समूह तब्लीग़ी जमात से इसके जुड़ाव की।
तब्लीग़ी जमात का एक कार्यक्रम इस वर्ष मार्च के शुरू में दिल्ली में आयोजित हुआ। दक्षिण पूर्व एशिया के अलावा देश भर से आए जमात के सदस्यों ने इसमें शिरकत की। बाद में यह पता चला कि इसमें शामिल होने वाले कुछ लोग कोरोना वायरस से संक्रमित थे। जब यह कार्यक्रम समाप्त हुआ तो वे लोग जो अलग-अलग राज्यों से इसमें शामिल होने आए थे, अपने घर लौट गए और ज़ाहिर है कि वे संक्रमण के साथ लौटे।
इस बात में कोई संदेह नहीं कि इस आयोजन से संक्रमण फैला लेकिन इस बारे में समाचार माध्यमों में जो रिपोर्टिंग हुई उसमें इसको कुछ इस तरह से पेश किया गया कि भारत में इसी कार्यक्रम ने मुख्य रूप से कोरोना का संक्रमण फैलाया है। सवाल उठता है कि यह कितना सही है। विशेषज्ञ मानते हैं कि ऐसा कहना क़तई सही नहीं है।
आधा सच!
अब उदाहरण के लिए, ज़रा ‘इंडिया टुडे’ के इस आँकड़े पर ग़ौर करें।
वैसे तो इसलाम के प्रति ख़ौफ़ पैदा करने वाले कोरोना के इस ग्राफ़िक की काफ़ी आलोचना हुई, पर इसमें जो आँकड़े दिए गए हैं, उसमें भी कई गड़बड़ियाँ हैं। ‘इंडिया टुडे’ हमें तब्लीग़ से जुड़े संक्रमण के अनुपात के बारे में बताता है, पर ग्राफ़िक हमें यह नहीं बताता कि उन तब्लीग़ के मामलों का अनुपात क्या था जिसकी जाँच हुई और जिसके आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया।
भारतीय मीडिया में हर जगह इस तथ्य को नज़रअंदाज़ किया गया। उदाहरण के लिए, ‘द इकोनॉमिक टाइम्स’, ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि ‘पिछले दो दिनों में जितने भी कोरोना के मामले हुए हैं उसमें 95% का संबंध तब्लीग़ी जमात के कार्यक्रम से रहा है’ लेकिन इस अख़बार ने अपने पाठकों को यह नहीं बताया कि पिछले दो दिनों में कितने लोगों की जाँच हुई।
अगर यह नहीं बताया जाता है कि कुल कितने लोगों की जाँच की गई तो तब्लीग़ी जमात कार्यक्रम के प्रभाव के बारे में दिए गए पहले के आँकड़े का कोई मतलब नहीं है।
उदाहरण के लिए, अगर 1 से 3 अप्रैल के बीच जिन भारी संख्या में लोगों की जाँच हुई वे सब तब्लीग़ी सदस्य थे, तब तो यह कहा जा सकता है कि कोरोना के जितने मामले की पुष्टि हुई वे सब के सब इस समूह से जुड़े थे।
सैम्प्लिंग पूर्वग्रह
बिहेव्यरल एंड डिवेलप्मेंट अर्थशास्त्री सौगतो दत्ता बताते हैं कि कुल पुष्ट मामले जिनको दिल्ली के कार्यक्रम से जोड़ा जा रहा है, भ्रामक हैं क्योंकि अथॉरिटीज़ ने दूसरे कार्यक्रमों में शिरकत करनेवालों की जाँच और उसका पता इतनी ही शिद्दत से नहीं लगाया है। दत्ता ने कहा कि यह मूल रूप से सैंपलिंग पूर्वाग्रह है : चूँकि इस विशेष समूह के ज़्यादा लोगों की जाँच की गई है और देश में कुल जाँच कम हुई है, इस बात में कोई आश्चर्य नहीं कि भारी संख्या में पुष्ट मामलों का दोष इस समूह के मत्थे मढ़ दिया गया है।
चूँकि अन्य सभी दूसरे मामलों में सिर्फ़ ऐसे लोगों की जाँच की गई है जिनमें इसके लक्षण थे लेकिन तब्लीग़ के कार्यक्रम में भाग लेने वाले उन लोगों की भी जाँच की गई है जिनमें यह लक्षण नहीं थे। यह अपने आप में पक्षपात का सबसे बड़ा स्रोत है क्योंकि कोरोना वायरस से संक्रमण वाले लोगों में एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा होता है जिसमें इसका लक्षण कभी प्रकट ही नहीं होता।
फिर, भारत के विभिन्न राज्यों का प्रशासन उन लोगों के पीछे पड़ा हुआ है जो जमात के इस कार्यक्रम में शामिल हुए और उन्हें जाँच से गुज़रने का आदेश दिया जा रहा है। कई राज्यों ने तो धमकी दे दी है कि अगर कोई व्यक्ति जिसने जमात के कार्यक्रम में हिस्सा लिया है और वह सामने नहीं आता है, तो उसके ख़िलाफ़ कड़ी क़ानूनी कार्रवाई की जाएगी। पर अन्य समूहों के बारे में इस तरह के आदेश नहीं दिए गए हैं।
इन दोनों बातों की वजह से बड़ी संख्या में तब्लीग़ के लोगों की जाँच हुई और जिसके कारण उनमें पुष्ट मामलों का अनुपात बहुत ही अधिक रहा है।
दत्ता का कहना है कि ‘अगर ज़्यादा जाँच की जाएगी तो तसवीर स्पष्ट हो जाएगी : इस बारे में जो अधिकांश रिपोर्टिंग हुई है उसमें इस एक समूह के पुष्ट मामलों को बढ़ा-चढ़ाकर बताने की प्रवृत्ति देखी गई है। जब एक से अधिक समूह की जाँच उसी तरह होगी जिस तरह तब्लीग़ी जमात की हुई है तो यह सनसनीख़ेज़ आँकड़ा नीचे आ जाएगा’।
जोयोजीत पाल मिशिगन के स्कूल ऑफ़ इन्फ़ॉर्मेशन में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं। वह भी इस बात से सहमत हैं : ‘जमात के लोगों में पुष्ट मामले का जो आँकड़ा दिया जा रहा है उसका मतलब तभी है जब सैंपलिंग के बारे में भी सूचना दी जाए। अगर प्रेस यह कह रहा है कि 60% मामले जमात से जुड़े हैं, तो उन्हें हमें यह भी बताना चाहिए कि जिन लोगों की जाँच हुई है उनमें से जमात से जुड़े लोगों का अनुपात क्या रहा है।’ पाल ने बताया, ‘आँकड़ों के बारे में रिपोर्टिंग करते हुए प्रेस के एक बड़े हिस्से ने इससे जुड़े आधारभूत सिद्धांत को नज़रअंदाज़ किया है, और मामले को सनसनीख़ेज़ बनाया है और इससे भी ज़्यादा, आँकड़ों की ग़लत रिपोर्टिंग की है’।
इसे विडंबना ही कहेंगे कि तब्लीग़ से जुड़े कोरोना वायरस के जो मामले सामने आए हैं और इसको जिस तरह से सनसनीख़ेज़ बनाकर पेश किया गया है, वह इस कार्यक्रम के आयोजन की प्रकृति की वजह से संभव हो पाया क्योंकि इससे अथॉरिटीज़ के लिए सम्पर्कों का पता लगाना आसान हो गया।
‘अथॉरिटीज़ सम्पर्कों का पता लगा पाए और शीघ्रता से उन्होंने भारी संख्या में इस कार्यक्रम से जुड़े लोगों की जाँच भी कर ली जो सिर्फ इस कार्यक्रम के आयोजन के तरीक़े के कारण संभव हो पाया’, ऐसा कहना था सौगतो दत्ता का। ‘हमें नहीं पता कि धार्मिक या किसी और तरह के दूसरे समूह कोरोना वायरस का संक्रमण कैसे फैलाते क्योंकि जमात के विपरीत, उनकी इतनी सघन तरीक़े से जाँच नहीं की गई है’।
आरोपों की झड़ी
इसे दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि इस सांख्यिकीय ग़लती ने कई बड़े पत्रकारों और यहाँ तक कि केंद्र सरकार को भी यह विश्वास दिला दिया कि इस देश में कोरोना को मुख्य रूप से तब्लीग़ ने फैलाया है। एक पत्रकार ने तो इस संगठन पर “कोविड-19 के ख़िलाफ़ देश की लड़ाई को अकेले कमज़ोर कर देने’ का आरोप भी लगा दिया।
इतना ही नहीं, इसकी वजह से कोविड-19 पर सांप्रदायिक रंग चढ़ा दिया गया और भारतीय जनता पार्टी के आईटी सेल और कुछ समाचार संगठनों ने तो मुसलमानों पर यह महामारी फैलाने के बेतुके आरोप भी लगा दिए।
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