पिछले कुछ साल में कृषि नीति के नाम पर जिस तरह से हथेली पर सरसों उगाने की कोशिश कर रही है उसका सबसे ज्यादा असर अब सरसों किसानों पर दिख रहा है। सरकार ने सरसों की खरीद का न्यूनतम समर्थन मूल्य इस साल 5,450 रुपये प्रति क्विंटल तय किया था। पिछले साल के मुकाबले 400 रुपये प्रति क्विंटल ज्यादा। लेकिन अब खुले बाजार में किसानों को इससे बहुत कम कीमत मिल रही है।
पिछले साल खाद्य तेलों के बढ़ते दाम और उसकी वजह से महंगाई पर पड़ने वाले असर को कम करने के लिए सरकार ने इनका रिकार्ड उत्पादन किया था। देश की खाद्य तेल की जरूरत का 56 फीसदी आयात से ही पूरा किया था। इस आयात में कोई बाधा न आए इसलिए आयात ड्यूटी में भी भारी कटौती कर दी गई थी। जिससे सूरजमुखी, सोयाबीन और रिफाइंड पान आयल सभी का आयात काफी बढ़ा। इन सब की वजह से बाजार में खाद्य तेल की जो भरमार हुई उसकी खामियाजा अब सरसों उपजाने वाले किसानों को झेलना पड़ रहा है।
आमतौर पर फरवरी के आखिर में जब सरसों की आवक शुरू होती है तो बाजार भी उसके स्वागत के लिए तैयार होता है। लेकिन इस बार खाद्य तेलों के कारोबारियों को आयात में ही ज्यादा फायदा दिख रहा है, इसलिए वे सरसों के तेल में ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखा रहे। सरकार को उम्मीद थी कि इस बार खुले बाजार में किसानों को ज्यादा दाम मिल सकते हैं इसलिए सरसों की सरकारी खरीद के लिए 10 मार्च की तारीख तय की गई। सरसों की खरीद के लिए नेफेड ने सारी सरकारी व्यवस्थाएं भी इसी तारीख के हिसाब से की हैं। उम्मीद यही थी कि जो किसान इस तारीख से पहले बाजार में सरसों लाएंगे वे ज्यादा फायदे में रहेंगे और इससे सरकार पर खरीद का दबाव भी कम हो जाएगा। लेकिन हुआ इसका उल्टा।
देश के सरसों किसान जिस समय अधिक उत्पादन के कारण परेशानी झेल रहे हैं ठीक उसी समय महाराष्ट्र के प्याज किसान अधिक उपज के कारण परेशानी में फंसे हैं। तो दूसरी तरफ टमाटर की बुआई करने वाले किसानों को तो कम कीमत के कारण अपनी फसल खेतों में ही नष्ट करनी पड़ रही है। फसल की कटाई के बाद उसे बाजार तक ले जाने का खर्चा है बाजार में उससे भी कम कीमत मिल रही है। यह हाल उन किसानों का है जिनसे वादा किया गया था कि साल 2022 तक उनकी आमदनी दुगनी हो जाएगी।
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