‘मैं राजनीति में इसलिए आई हूँ, ताकि उस नज़रिए को बदल सकूँ, जिस नज़रिए से यह समाज अपने लोगों और उनके अधिकारों को देखता है।’
—सना माइरेल मरीन, फ़िनलैंड की प्रधानमंत्री
क्या सना मरीन का फ़िनलैंड का प्रधानमंत्री चुना जाना दुनिया के दूसरे लोकतांत्रिक देशों के लिए किसी बदलाव का संकेत हो सकता है? पिछले हफ़्ते 10 दिसंबर को सना को वहाँ का प्रधानमंत्री चुना गया। वह सिर्फ़ 34 वर्ष की हैं। इस तरह वह विश्व में सबसे कम उम्र वाली प्रधानमंत्री हैं और उनका चुनाव आजकल पूरी दुनिया में चर्चा का विषय बना हुआ है।
इस चुनाव के कुछ बिंदुओं पर विशेष रूप से ग़ौर करने की ज़रूरत है। शुरुआत हम सना की पृष्ठभूमि से करते हैं। वह एक अत्यंत सामान्य परिवार से आती हैं, या कहें तो निम्न आय वर्ग वाले परिवार से। उनके जन्म के बाद उनकी माँ और पिता का अलगाव हो गया और उनकी माँ अपनी महिला मित्र के साथ रहने लगीं। सना की माँ समलैंगिक हैं और सना का पालन-पोषण उन दोनों महिलाओं ने ही मिल कर किया है। सना बताती हैं कि राजनीति में उतरने के बावजूद काफ़ी समय तक वह किसी अदृश्य व्यक्तित्व की तरह रहीं, क्योंकि अपने पारिवारिक पृष्ठभूमि और पालन-पोषण के बारे में बताने लायक उनके पास कुछ था ही नहीं।
सना का परिवार किराए के मकान में रहता था। अपने परिवार में कॉलेज तक पहुँचने वाली वह पहली व्यक्ति थीं। और उस समय अपनी पढ़ाई का ख़र्च उठाने के लिए वह एक बेकरी में सेल्स गर्ल का काम करती थीं। पढ़ाई पूरी करने के बाद वह एक संस्था में रिसर्च असिस्टेंट का काम करती थीं। सना 22 महीने की अपनी बेटी की अनब्याही माँ हैं। और शायद जल्दी ही अपने दोस्त मार्कस रेकोनेन से शादी का इरादा रखती हैं।
भारत में तो आज भी कई बार महिलाओं को पढ़ाई और नौकरी से रोकने के लिए कहा जाता है कि पहले घर परिवार और बच्चे देखो, यह सब बाद में कर लेना।
सना का निर्वाचन यह बताता है कि विकसित देशों के मतदाता वोट देते समय पारिवारिक विरासत, सामाजिक हैसियत, आर्थिक स्थिति, समलैंगिकता और वैवाहिक नैतिकता जैसी पुरानी वर्जनाओं को अब महत्वपूर्ण नहीं मान रहे हैं। उन्होंने अपना वोट इस आधार पर दिया कि कौन हमें कितना डेलिवर यानी हमारे लिए बेहतर काम कर सकता है। सना इससे पहले की सरकार में परिवहन और संचार मंत्री थीं और उन्होंने डाक विभाग की हड़ताल संभालने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसी हड़ताल की वजह से उनके पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री एंटी रीने को इस्तीफ़ा देना पड़ा था। सना के निर्वाचन का एक पहलू यह है।
वामपंथ की वापसी?
सना के निर्वाचन का दूसरा महत्वपूर्ण पहलू है उनके चुनावी मुद्दे। वे सोशल डेमोक्रेट्स पार्टी की सदस्य हैं, बल्कि यह कहना ज़्यादा मुफीद है कि चुनावों के पहले वही इस पार्टी की मुखिया थीं। यह वामपंथी रुझान वाली पार्टी है। उन्होंने अपना चुनावी मुद्दा जन कल्याणकारी योजनाओं, सामाजिक सुरक्षा, ढाँचागत विकास और पर्यावरण जैसे मुद्दों को बनाया था। फ़िनलैंड के राष्ट्रीय गौरव की बात करने वाली फिन्स जैसी पार्टियाँ उनसे पीछे रह गईं। इसका मतलब यह है कि भारत जैसे बड़े लोकतंत्र में जब जन कल्याण को सिर्फ़ 2 रुपये प्रति किलो चावल और क़र्ज़ माफ़ी का पर्याय समझा जाता है, फ़िनलैंड के आज के मतदाता सामाजिक सुरक्षा, ढाँचागत विकास और पर्यावरण के आपसी संबंधों को समझ रहे हैं। वे आधुनिक जीवन की वास्तविक समस्याओं को पारंपरिक भावनात्मक मुद्दों से अलग करने में हमारे समाज से ज़्यादा विवेक का इस्तेमाल कर रहे हैं। शायद उनके विकसित होने का एक कारण यह भी हो।
महिलाओं की भागीदारी: भारत सीख लेगा?
फ़िनलैंड के इस चुनाव का तीसरा महत्वपूर्ण पहलू है, इसमें बड़े पैमाने पर महिलाओं की भागीदारी। वहाँ हर चार साल पर संसदीय चुनाव होते हैं। इस बार के चुनावों में 1991 के बाद सबसे ज़्यादा मतदान हुआ था, लगभग 72 प्रतिशत। और उसमें 47 प्रतिशत सांसद महिलाएँ चुनी गई हैं। उनकी संख्या 93 है। वहाँ की ग्रीन्स पार्टी की तो 85 प्रतिशत उम्मीदवार महिलाएँ ही थीं। इसका प्रतिबिंब सना की नई सरकार में भी नज़र आ रहा है। उनकी कैबिनेट में 12 महिलाएँ हैं और सिर्फ़ 7 पुरुष हैं। यह भी एक रिकॉर्ड है। यह पाँच पार्टियों के गठबंधन की सरकार है और इस गठबंधन की सभी पार्टियों की प्रमुख महिलाएँ हैं। लेफ़्ट एलायंस की ली एंडरसन, सेंटर पार्टी की कत्री कुलमुनी, ग्रीन लीग की मारिया और स्वीडिश पीपुल्स पार्टी की आना हेनरिक्सन। पहले सोशल डेमोक्रेट्स की मुखिया भी सना ही थीं, लेकिन उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद उनके पूर्ववर्ती रीने पार्टी का नेतृत्व संभाल रहे हैं। फ़िनलैंड को महिलाओं की क्षमता पर भरोसा करने और उनके हाथों में कमान सौंप देने में कोई परेशानी नहीं हुई। और मतदाताओं के निर्णय का यह पक्ष इस धारणा को भी ग़लत साबित करता है कि महिलाएँ गठबंधन की सरकारें नहीं चला सकतीं।
शायद यह दुनिया के दूसरे देशों के मतदाताओं की मानसिकता में आ रहे बदलाव का भी सूचक है, क्योंकि सना कोई एकमात्र महिला शासन प्रमुख नहीं हैं।
उनके पड़ोस में अर्ना सोलबर्ग नार्वे और जेसिंडा आर्डर्न न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री हैं। एंजिला मरकेल जर्मनी की चांसलर हैं। भारत के पड़ोस में बांग्लादेश और नेपाल की शासन प्रमुख महिलाएँ हैं। स्लोवाकिया, इथियोपिया, नामीबिया, लिथुवानिया, सर्बिया, क्रोएशिया, ताइवान और मार्शल आइलैंड, इन सब जगहों पर शासन की बागडोर महिलाओं के हाथों में है।
समय के साथ अन्य देशों की सरकारों में भी महिलाओं की भागीदारी तेज़ी से बढ़ रही है। इंटर पार्लियामेंट्री यूनियन के आँकड़ों के अनुसार युगांडा के निचले सदन में 61 प्रतिशत महिलाएँ हैं। और ब्रिटेन में पिछले दिनों हुए चुनावों में 220 महिलाएँ सांसद चुनी गई हैं। नार्डिक देशों में औसतन 40 प्रतिशत महिलाएँ जन प्रतिनिधि हैं। भारतीय संसद में अभी महिला भागीदारी 11 प्रतिशत है।
और सना के निर्वाचन का एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू है उनका इतनी कम उम्र में प्रधानमंत्री बनना, जिसकी अंतरराष्ट्रीय मीडिया में सबसे ज़्यादा चर्चा हुई है। लेकिन युवा शासनाध्यक्षों की कतार में वे अकेले नहीं हैं। यूक्रेन के प्रधानमंत्री ऑलेक्सी होंचारुक उनसे सिर्फ़ एक वर्ष बड़े हैं। नयीब बुकेल अल सलवाडोर के राष्ट्रपति हैं, उनकी उम्र भी मात्र 38 साल है। और न्यूज़ीलैंड की प्रधानमंत्री जेसिंडा आर्डर्न अभी 40 की लकीर नहीं छू पाई हैं।
फ़िनलैंड की नई सरकार के बारे में जिन पहलुओं का ऊपर ज़िक्र किया गया है, वे सिर्फ़ स्थानीय नहीं हैं। चाहे वे बेहद शुरुआती लगते हों, लेकिन उनसे मिलती-जुलती प्रवृत्तियाँ दुनिया के दूसरे देशों में भी नज़र आ रही हैं। राष्ट्रवाद और नस्ली गौरव की जगह सामाजिक सुरक्षा और पर्यावरण जैसे मुद्दों का निर्णायक होना, पारंपरिक नैतिकता का नेपथ्य में जाना, राजनीतिक पृष्ठभूमि से वंचित युवाओं, महिलाओं और मामूली लोगों का चुनावों में जीत कर सत्ता में आना क्या लोकतंत्र में किसी नए बदलाव का सूचक हो सकता है? हमें भी विकसित देशों से सिर्फ़ ब्रांडेड ट्राउजर्स, शूज और स्मार्ट फोन्स आयात करने के बदले यहाँ कुछ नई सोच, नई मानसिकता और नए लोकतांत्रिक मूल्य लाने के बारे में सोचना चाहिए।
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