वह 2012 का समय था जब निर्भया का नृशंस बलात्कार छह लोगों ने किया था। घटना इतनी भयानक और विभत्स थी कि समाज पूरी तरह हिल गया था।  बात यह भी थी कि हमारे ही समाज के इन 'बलात्कार बाँकुरों' ने बलात्कार की ऐसी नयी प्रविधि खोज कर दिखा दी जो औरत की हत्या से कई गुणे अधिक दर्दनाक थी। तब हम कितने भयभीत हुए कि भय के मारे अथाह ग़ुस्से के हवाले हुए कि फिर नहीं याद रहा कि हम सड़कों पर निकल पड़े हैं या संसद के आसपास छा गए हैं। हमने कौन-सा क़ानून तोड़ा है या कौन-सा धर्म निभा रहे हैं। तब हम भय के मारे जाग पड़े थे और दर्द के मारे बढ़े चले जा रहे थे। हमारा डर और हमारा ग़ुस्सा जायज़ माना गया। तब कुछ नियम बने, कुछ पाबन्दियाँ लागू की गईं, इसलिये कि हम निर्भय हो जाएँ, देश की स्त्रियाँ सुरक्षा की हक़दार मानी जाएँ। बड़ी राहत हुई थी तब। लगता था कि अब कोई स्त्री अपमान नहीं होगा। दोषियों को संगीन सजाएं दी जाएँगी। मगर यह क्या हुआ कि हम देखते ही रह गए ठगे-ठगे से। सारी दिलासाएँ धरी रह गईं।