मान तो कुछ ऐसा ही लिया गया है कि स्त्रियाँ जो कुछ और जैसा कुछ लिखती हैं, वह स्त्री-विमर्श में शामिल होता है। क्या यह मान लेने वाली बात है? हमें तो ऐसा महसूस होता है कि पुरुषों की क़लम से भी स्त्री को लेकर बहुत कुछ लिखा गया है, वरन ‘दिव्या’ क्यों लिखी जाती, जो वेश्या होने का अधिकार पाने को स्वीकार करने में हिचकती नहीं। रेणु क्यों महंतों की जागीर रहे मठ को लछमी के हवाले करते, जो मठ पर महज़ दासिन थी या कमली को जाति प्रथा तोड़ने के लिए दुस्साहसी क्यों बनाते? ऐसे और भी उदाहरण मिल जाएँगे, जिनमें स्त्री के अधिकार केवल दया, तरस या पूजा और महिमा भर अर्जित करने तक सीमित न थे, उन सीमाओं को तोड़ा गया।