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'दंड' नहीं तो 'दाम' चलेगा, 'दाम' नहीं तो राम चलेगा

विज्ञापनदाता के रूप में बीजेपी का चेहरा है, वह पार्टी का एक और रूप दिखाता है। वह है दामरूप। दंड से आप किसी को बहुत दिनों तक नहीं दबा सकते। दबाते हैं तो बात खुल भी जाती है और उससे थोड़ी बदनामी भी होती है। लेकिन दामरूप के आगे तो मीडिया ख़ुशी-ख़ुशी लंबलेट हो जाएगा। जैसे ही विज्ञापन मिले, ऐड विभाग से संदेश आ जाएगा कि भैया, ध्यान रखना। नहीं भी आए तो समझदार और अनुभवी संपादक और शिफ़्ट प्रभारी जान जाते हैं कि इनसे जुड़ी खबरों का क्या करना है।
नीरेंद्र नागर
बार्क की एक रिपोर्ट से पता चला है कि पिछले सप्ताह (7-13 नवंबर) टीवी पर ऐड देने वाली कंपनियों में बीजेपी ने ऐमज़ॉन और ट्रिवागो जैसी बड़ी-बड़ी मल्टीनैशनल कंपनियों को भी पछाड़ दिया है। यानी बीजेपी टीवी पर विज्ञापन देने वाली 'नंबर वन कंपनी' हो गई है। इसमें चौंकने वाली कोई बात नहीं है। चौंकने वाली बात यह भी नहीं है कि बीजेपी के पास इतना पैसा कहाँ से आया। केंद्र सहित देश के 19 राज्यों में अकेले या मिल कर राज करने वाली पार्टी को पैसों की भला क्या कमी होगी! फिर सारा उद्योग जगत बीजेपी और मोदी की वाहवाही (पढ़ें जी-हुज़ूरी) में लगा है। उद्योगपतियों से मोदी जी की मैत्री भी ढकी-छुपी बात नहीं है।मोदी ख़ुद भी कह चुके हैं कि मैं उनमें नहीं जो उद्योगपतियों को गाली देते हैं। लेकिन मैं यहाँ दूसरी बात कर रहा था। 
तीन दशकों से एक बड़े मीडिया समूह से जुड़े रहने के कारण मुझे अच्छी तरह पता है कि अख़बार हो या टीवी चैनल या फिर वेबसाइट, वहाँ का अलिखित नियम है कि जो आपको विज्ञापन देता है, उसके बारे में नेगेटिव ख़बर नहीं देनी है।
एक समय था जब सुब्रत राय अख़बारों में बड़े-बड़े विज्ञापन दिया करते थे और हमारे यहाँ सख़्त निर्देश था कि सहारा के घपलों के बारे में एजंसी या कहीं से भी कोई भी ख़बर आए तो उसे मैनेजमेंट से पास कराने के बाद ही छापा जाए।कंपनियाँ जानती हैं कि हर मीडिया हाउस की कमज़ोर नस है विज्ञापन। इसी के बल पर उसके मालिकों की तिजोरी भरती है और इसी के लिए वे अख़बार या चैनल चलाते हैं। एक बार इसी ग्रूप के अंग्रेज़ी अख़बार ने एक बड़े बिज़नस घराने के ख़िलाफ़ कोई नेगेटिव ख़बर छाप दी। बस, उस बिज़नस घराने ने उसे विज्ञापन देना ही बंद कर दिया। बदले में अख़बार ने उसकी ख़बरें छापनी बंद कर दीं - न सकारात्मक, न नकारात्मक। बाद में दोनों में समझौता हो गया क्योंकि दोनों को एक-दूसरे की ज़रूरत थी। मगर दूध के जले ग्रूप ने उसके बाद छाछ को भी फूँक-फूँक कर पीना शुरू कर दिया। आगे चल कर बाक़ायदा एक लिस्ट आने लगी कि इन-इन कंपनियों के ख़िलाफ़ कोई नेगेटिव ख़बर न छापें।ख़ैर, हम बात कर रहे थे बीजेपी की। अब मीडिया के लिए बीजेपी के दो रूप हैं। एक, सरकार के रूप में; दूसरे, विज्ञापनदाता के रूप में। सरकार के रूप में बीजेपी क्या कर सकती है और कहाँ तक जा सकती है, यह हम एबीपी के मामले में देख चुके हैं जब पुण्य प्रसून के कार्यक्रम के कारण बीजेपी ने उस चैनल में अपने प्रतिनिधियों को भेजना बंद कर दिया और स्थिति ऐसी बन गई कि पुण्य प्रसून को वह चैनल छोड़ने पर बाध्य होना पड़ा। साथ में दो और बड़े पत्रकारों की बलि चढ़ गई। उससे भी पहले मोदी जी ने एक बिज़नेस टीवी चैनल के कार्यक्रम में आना इसलिए रद्द कर दिया कि उस ग्रूप के एक और अख़बार ने पार्टी के बारे में नकारात्मक ख़बर छाप दी थी। मोदी जी जानते थे कि उनके आयोजन में शिरकत करने से से ग्रूप को कई करोड़ का अतिरिक्त विज्ञापन और एक मोटा स्पॉन्सर मिलने वाला था। उनके नहीं आने से ग्रूप को पैसों का नुक़सान हुआ, साथ ही स्पॉन्सर के सामने साख भी गई।यह मोदी जी का तरीक़ा था बताने का कि मेरे कारण तुम मोटी रक़म काटोगे और मेरे ही ख़िलाफ़ लिखोगे, यह नहीं चलेगा। यह पार्टी का दंडरूप है। मोदी का यह रवैया ऊपर चर्चित उस कंपनी के क़दम से कितना मिलता-जुलता है जिसने नकारात्मक ख़बर छपने के कारण अख़बार को विज्ञापन देना बंद कर दिया था। बाद में जिस तरह मीडिया हाउस का उस कंपनी से समझौता हो गया, वैसा ही मोदी और बीजेपी से भी हो गया। आख़िर यहाँ भी दोनों को एक-दूसरे की ज़रूरत है। पिछले कुछ सालों से आप इस समूह की ख़बरों में बहुत मुश्किल से ऐसी कोई ख़बर देखेंगे जो साहब और अध्यक्ष जी के विरुद्ध हो। यह सरकार के दंडरूप का चमत्कार है।लेकिन विज्ञापनदाता के रूप में बीजेपी का चेहरा है, वह पार्टी का एक और रूप दिखाता है। वह है दामरूप। दंड से आप किसी को बहुत दिनों तक नहीं दबा सकते। दबाते हैं तो बात खुल भी जाती है और उससे थोड़ी बदनामी भी होती है। लेकिन दामरूप के आगे तो मीडिया ख़ुशी-ख़ुशी लंबलेट हो जाएगा। जैसे ही विज्ञापन मिले, ऐड विभाग से संदेश आ जाएगा कि भैया, ध्यान रखना। नहीं भी आए तो समझदार और अनुभवी संपादक और शिफ़्ट प्रभारी जान जाते हैं कि विज्ञापनदाता से जुड़ी खबरों का क्या करना है।
यानी विज्ञापन देने से बीजेपी के दोनों हित सधते हैं। एक तो टीवी और अख़बारों में पार्टी का धुआँधार और एकतरफ़ा प्रचार हो जाता हैं और दूसरे, चैनलों-अख़बारों की ख़रीदी गई चुप्पी से वोटरों तक कोई नकारात्मक संदेश भी नहीं पहुँच पाता है।
यह अलग बात है कि देश में अब भी एक बड़ा तबक़ा है जो अख़बार नहीं पढ़ता और टीवी पर दिखाए गए विज्ञापनों से प्रभावित नहीं होता। वह नाराज़ हो जाए तो न दंडावतार का हंटर काम करता है, न विज्ञापनदाता नंबर 1 बनने से बात बनती है। लेकिन पार्टी के पास उसका भी उपाय है। जब दाम नहीं चलता, तो राम को चल जाते हैं। सो राम नाम का जाप फिर से शुरू हो गया है। अयोध्या में झंडे और नारे लग रहे हैं। वह भी मध्य प्रदेश में मतदान होने से ठीक दो दिन पहले। पार्टी को चैनलों, अख़बारों और वेबसाइटों से पूरी उम्मीद है कि वे नमकहलाली का परिचय देते हुए स्क्रीन पर भगवा रंग को पूरा और सहानुभभूतिपूर्वक कवरेज देंगे और ऐसी कोई बात नहीं कहेंगे जिससे साहेब के माथे पर बल पड़ें।साहेब के माथे पर बल पड़ने का मतलब जानते हैं ना? या याद दिलाना होगा?
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