भारत समेत दुनिया भर में इस समय पैगम्बर मोहम्मद साहब को लेकर हुई बदबयानी से आक्रोश का माहौल उबल रहा है। इस माहौल को शांत करने की जरूरत है। सरकार ने विभिन्न मुस्लिम देशों की नाराजगी को गंभीरता से लेते हुए पार्टीगत निर्णय में दोनों प्रवक्ताओं को निलंबित और निष्कासित कर दिया है। लेकिन भारत ही नहीं पूरे विश्व को इस फैसले से तब भी राहत नहीं मिली है।
दरअसल बीजेपी सरकार के केंद्र में इन आठ सालों के दरम्यान मुसलमानों पर बहुत तंज हुए। उन्हें तरह-तरह से दोयम दर्जे के नागरिक के नजरिए से देखा गया। ऐसा लगने लगा कि शायद मुसलमान होना कोई बड़ा गुनाह हो। इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़े जाने लगे। आस्था के नाम पर बाबरी मस्जिद को अदालत ने हिंदू संगठनों को सौंप दिया। मुसलमानों ने इसे पूर्ण न्याय की तरह ही लिया। कहीं से कोई विद्रोह या नाखुशी का इजहार सामने नहीं आया। फिर क्या था। मस्जिदों की लंबी लिस्ट सामने आने लगी। कुतुब मीनार से लेकर ज्ञानवापी मस्जिद तक का मामला तूल पकड़कर अदालत की चौखट तक पहुंच गया। और पूरे देश में एक ऐसा मिजाज बना दिया गया कि मानों देश की जितनी भी मस्जिदें हैं, वे सब की सब मंदिरों को तोड़कर बनाई गई हैं। लिहाजा जनमानस के मन में जहर इतनी फैल गई कि मुसलमान अपने ही मुल्क में घुटन महसूस करने लगे।
ताजा ख़बरें
मुसलमानों में अंदरखाने एक आक्रोश था। उस आक्रोश को नूपुर शर्मा और नवीन ने हवा दे दी। यह जंगल की आग की तरह फैल गई। इस आग का धुआं देश तक ही महदूद नहीं रहा। अनियंत्रित होकर विदेशों और खास तौर पर मुस्लिम देशों तक में कोहराम मचा दिया। नतीजे में मुस्लिम देशों की भारत सरकार और भारत से नाराजगी का प्रदर्शन सबके सामने है।
सवाल है कि इस देश को भी समझना होगा कि इस देश से मुसलमानों को निकाला नहीं जा सकता है। जब देश से निकाला नहीं जा सकता है तो फिर आप अपने समान नागरिकों के साथ ऐसे बर्ताव क्यों करें, जिससे उनके मन आहत हो जाएं?
मुसलमाम अपने पैगम्बर को लेकर पूर्ण आस्थावान है। वह अपने ऊपर हो रहे हर जुल्म को तो बर्दाश्त कर सकता है लेकिन जज्बाती तौर पर वह अपने पैगम्बर के साथ किसी भी गुस्ताखी और बदतमीजी को स्वीकार नहीं कर सकता है। उस पर खामोश नहीं रह सकता है। सरकार और सरकार से जुड़े संस्थाओं और संगठनों को शायद इस बात का एहसास नहीं था। नतीजे में जो परिलक्षित होना था, वह होकर रहा। दरअसल बीजेपी और संघ को यह समझना होगा कि यह देश आस्था का देश है। और आस्था के साथ खिलवाड़ किसी भी हाल में नहीं होना चाहिए। लेकिन आप दूसरों की आस्था का अपमान भी न करें।
दूसरी बात ये है कि नूपुर और नवीन को एक वीडियो जारी करके मुसलमानों से माफी मांग लेनी चाहिए। और अगर उन्होंने पूरी ईमानदारी और दयानतदारी के साथ माफी मांग ली है तो फिर मुसलमानों को भी माफ कर देना चाहिए। क्योंकि मुसलमान जिस गुस्ताखी की सजा चाहते हैं, वह इस्लाम के नुक्ते नजर से माफी के हकदार हो जाते हैं।
इस्लाम धर्म के संस्थापक ने अपने जीवन काल में बड़े-बड़े गुस्ताख और बदतमीजी करने वालों को माफ किया है। माफी देना इस्लाम और पैगम्बर की बुनियादी चीज है। हमें खुद इसपर अमल करके सच्चे मुसलमान होने का पैगाम देश और दुनिया के सामने पेश करना चाहिए।
नूपुर या नवीन को कानून के शिकंजे में जकड़ देने से उनकी मानसिकता में कोई बदलाव नहीं आ सकता है। उनमें तभी बदलाव आएगा, जब मुसलमान उन्हें माफ कर देंगे।
मोहम्मद साहब की जीवनी ऐसे उदाहरणों से भरी पड़ी है। देश के मुसलमानों के साथ दिक्कत यही है कि वो इस्लाम को सही तरीके से न खुद समझ पाए हैं और न ही दूसरों को समझा पाए हैं। इस्लाम बहुत ही लाजवाब मजहब है। इस्लाम बहुत ही लचीला मजहब है। इस्लाम बहुत ही आदर्श मजहब है। लेकिन मुसलमानों ने ही इस्लाम को नासमझी में दूसरे को अंगुली उठाने पर मजबूर कर दिया है।
दरअसल वास्तविक मजहबी लीडर के हाथ से मुसलमान निकल, राजनीतिक लीडर के हाथों का जब से खिलौना बना है, तब से मुसलमान न तो इस्लाम को समझ सका, और न ही इस्लाम को दूसरे लोगों को समझा सका। यही वजह है आज मुसलमानों के चरित्र को देखकर इस्लाम के चरित्र की व्याख्या की जाने लगी है, जो सरासर गलत है। गलत मुसलमान तो हो सकता है, इस्लाम नहीं। ठीक वैसे ही जैसे गलत हिंदू हो सकता है लेकिन हिंदू धर्म नहीं। धर्म कोई भी हो गलत हो ही नहीं सकता। उसके मानने वाले सही और गलत होते हैं।
मुसलमानों को संजीदा होकर इसपर सोचना चाहिए। और इसे अब तूल देने से बचना चाहिए। हम हुजूर के खिलाफ गुस्ताखी करने वालों को सजा देने के लिए प्रदर्शन करते-करते इस्लाम और पैगम्बर के संदेश को ही तार-तार कर रहे हैं। इस्लाम के संदेश को सच्चे और सही रूप में पेश करना हर एक मुसलमान का कर्तव्य है। अगर आप अपने इस फर्ज से गाफिल होकर अनैतिकता की तरफ कदम बढ़ाते हैं तो फिर आप इस्लाम का हिस्सा हो ही नहीं सकते हैं।
पूरे मामले को संजीदगी के साथ सरकार और कानून पर छोड़ देना चाहिए। आप कानून को हाथ में नहीं ले सकते? इसकी इजाजत इस्लाम नहीं देता है। इस्लाम इतना भर इजाजत देता है कि आप अपनी बात शराफत और सलीके के साथ शासक और प्रशासक तक पहुंचाएं।
विचार से और खबरें
उम्मीद की जानी चाहिए कि देश के दानिश्वर मुस्लमान और आलीम व मुफ्ती इस पूरे मामले को संजीदगी से लेते हुए मुसलमानों से अपील करें कि वो उग्रता से बचें। और अपने पैगम्बर की माफ करने की सीख को अपनी जिंदगी में उताकर समाज के विभिन्न वर्गों और मजहबों के बीच एक बेमिसाल नजीर पेश करने की कोशिश करें। (ए.आर. आजाद प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया के वरिष्ठ पत्रकार हैं)
अपनी राय बतायें