क्या बीजेपी-शिवसेना गठबंधन के बाद भी पार्टी के शीर्ष नेताओं में अभी भी कोई कसक या गाँठ रह गयी है? एक दिन पहले ‘सामना’ में छपे संपादकीय को पढ़कर तो ऐसा ही लगता है। बीजेपी से गठबंधन के बाद पहली बार सामना के संपादकीय में शिवसेना ने बीजेपी नेताओं को निशाना बनाया। यह निशाना कांग्रेस व राष्ट्रवादी कांग्रेस के नेताओं के बेटों का भारतीय जनता पार्टी में शामिल करने को लेकर है।
शिवसेना ने सवाल दागा है कि क्या इन दलबदलुओं के दम पर आने वाले कुछ समय में बीजेपी प्रदेश की सबसे बड़ी पार्टी होने का गौरव हासिल करने जा रही है? अब सवाल यह उठता है कि क्या शिवसेना दल-बदल के ख़िलाफ़ है या चुनावों के समय होने वाली इस भगदड़ को उचित नहीं मानती?
शिवसेना इस दल-बदल की तुलना पालनाघर से कर रही है। शिवसेना का मुखपत्र इस दल-बदल को लेकर कह रहा है कि बीजेपी या शिवसेना को कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेताओं के बच्चों के पालनाघर नहीं बनना चाहिए।
साथ ही इसने यह भी कहा कि हम इन हिन्दू विरोधी पार्टियों के ख़िलाफ़ वर्षों से लड़ रहे हैं और ये नेताओं के बेटे चुनाव पूर्व हमारी पार्टियों में शामिल होते हैं और इनका मक़सद मात्र चुनाव जीतना होता है। बाद में नेता पुत्र अपने-अपने अजेंडे पर लग जाते हैं। यदि हिंदूवादी पार्टियाँ इन नेताओं के बेटों या कांग्रेस -राष्ट्रवादी कांग्रेस से आने वाले नेताओं से ही मज़बूत होना है तो हमारे उन कार्यकर्ताओं का क्या जो हिंदुत्व की विचारधारा को मज़बूत बनाने के लिए सालों पहले भगवा झंडे को उठाया था। शिवसेना ने यह टिप्पणी कांग्रेस के विरोधी पक्ष नेता राधाकृष्ण विखे पाटिल के बेटे सुजय पाटिल के बीजेपी में प्रवेश को लेकर की।
शिवसेना की बीजेपी के ख़िलाफ़ यह प्रतिक्रिया का कारण अभी की किसी घटना मात्र से नहीं है। इसकी जड़ें साल 2014 के विधानसभा चुनावों के समय से जुड़ी हुई दिखाई देती हैं।
लोकसभा चुनावों में जीत हासिल कर भारतीय जनता पार्टी ने महाराष्ट्र फ़तह का अभियान शुरू किया। मोदी लहर की हवा में भारतीय जनता पार्टी ने शिवसेना पर शिकंजा कसने का प्रयास किया लेकिन गठबंधन टूट गया। भारतीय जनता पार्टी को शिवसेना के हिस्से में जाने वाली सीटों से चुनाव लड़ने के लिए वर्चस्व वाले नेताओं की ज़रूरत पड़ी और उसके नेताओं ने कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस से बड़े पैमाने पर नेताओं को अपनी पार्टी में शामिल करने की मुहिम शुरू की। इस मुहिम में बीजेपी को बड़ी सफलता भी मिली। दोनों, कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस के दर्जनों विधायक बीजेपी में शामिल हुए।
बीजेपी इतनी सफल कैसे हुई?
चुनाव परिणाम आये तो इन दलबदलुओं में से क़रीब 40 विधायक बन कर विधानसभा पहुँच गए। विधान सभा में बीजेपी को 122 सीटें मिलीं जबकि शिवसेना 60 पर सिमट गयी। अगर बीजेपी में इतने बड़े पैमाने पर दलबदलू विधायक नहीं आये होते तो शायद बीजेपी इतने बड़े दल के रूप में नहीं उभरी होती। कांग्रेस के नेताओं के भाजपाई करण के इस खेल को लेकर शिवसेना ने नसीहत दी है कि यह खेल विचारधारा की राजनीति के हिसाब से ग़लत है। शिवसेना ने सवाल उठाया है कि क्या फिर से इन दलबदलुओं के दम पर प्रदेश में सबसे बड़ी पार्टी होने का गर्व करेगी?
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