सुप्रीम कोर्ट द्वारा मराठा आरक्षण ख़ारिज किये जाने के बाद महाराष्ट्र में घमासान मचा हुआ है। राजनीतिक बयानबाज़ी जोरों पर है। सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों एक-दूसरे पर इस निर्णय के लिए दोषारोपण कर रहे हैं। दरअसल, हमारे संविधान में आरक्षण सामाजिक पिछड़ेपन को आधार बनाकर दिया गया था। लेकिन केंद्र सरकार ने संविधान में 103वाँ संशोधन किया जिसमें आरक्षण के लिए आर्थिक पिछड़ेपन की बात कही गयी। केंद्र सरकार ने 8 जनवरी 2019 को इसी आधार पर आर्थिक रूप से पिछड़ों को आरक्षण देने का प्रस्ताव लोकसभा में लाया। यह प्रस्ताव लोकसभा और राज्य सभा दोनों में पास हुआ और 14 जनवरी 2019 को इस पर राष्ट्रपति के दस्तख़त हुए तथा यह क़ानून बन गया। महाराष्ट्र में तत्कालीन मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने केंद्र सरकार की तरह महाराष्ट्र में भी इसी आधार पर आरक्षण देने के लिए प्रस्ताव लाया और सर्व सम्मति से उस पर मुहर भी लग गयी। लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट का मराठा समाज के आरक्षण पर फ़ैसला आ गया है।
प्रदेश में पक्ष विपक्ष के आरोप-प्रत्यारोपों की बाढ़ सी आ गयी है, जबकि मराठा समाज के सामाजिक संगठन पशोपेश में हैं कि इन नेताओं के बयानों पर जाएँ या आगे की नयी रणनीति निर्धारित करें। मुद्दा बहुत संवेदनशील है और कोरोना महामारी के दौरान यह कहीं भड़क नहीं जाए, इसको लेकर सरकार चिंतित भी है। मुख्यमंत्री से लेकर सरकार के तमाम मंत्री, मराठा समाज से धैर्य रखने की गुज़ारिश कर रहे हैं, तथा आश्वासन दे रहे हैं कि अभी भी लड़ाई शेष है और समाज को उसका हक़ दिलाकर ही रहेंगे। मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने सोशल मीडिया के माध्यम से प्रदेश की जनता से संवाद साधा और यह भरोसा दिलाया कि राज्य सरकार राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से इस मामले में दखल देने की अपील करेगी। उन्होंने कहा कि जब धारा 370 और एट्रोसिटी मामले में प्रधानमंत्री बदलाव कर सकते हैं तो मराठा आरक्षण के मामले में क्यों नहीं! यही नहीं, उद्धव ठाकरे ने तो सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय को ही एक नयी उम्मीद बताया। उन्होंने कहा कि इस निर्णय ने आगे की दिशा दिखा दी है कि हमें क्या करना है।
महाराष्ट्र सरकार इस मामले में उन बिंदुओं को आधार बनाकर फिर से क़ानूनी लड़ाई लड़ने की तैयारी कर रही है जिन पर कोर्ट ने आरक्षण रद्द करने का फ़ैसला सुनाया। दरअसल, इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में अंतिम सुनवाई 15 मार्च, 2021 को शुरू हुई थी और अदालत ने 26 मार्च को अपना फ़ैसला सुरक्षित रखने से पहले दस दिनों तक सुनवाई की थी।
इस सुनवाई के दौरान अदालत ने कई पहलुओं पर पक्ष-विपक्ष के तर्क सुने। अदालत ने मराठा आरक्षण के मामले में अग्र लिखित बातों पर विशेष रूप से सुनवाई की-
- क्या इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ के मामले में पूर्व में हुए निर्णय [1992 (३) एससीसी 217] की समीक्षा करने या उक्त निर्णय के बाद हुए संवैधानिक संशोधनों, निर्णयों और समाज की बदली हुई सामाजिक परिस्थितियों आदि पर बड़ी बेंच द्वारा फिर से देखने या विचार करने की आवश्यकता है?
- क्या 2018 में एसईबीसी अधिनियम के अनुसार महाराष्ट्र में 2019 में संशोधन किया गया है? 50 प्रतिशत सामाजिक आरक्षण के अतिरिक्त मराठा समाज के लिए 12 प्रतिशत और 13 प्रतिशत आरक्षण देते समय इंदिरा साहनी के मामले में संविधान पीठ ने विचार किया है?
- क्या महाराष्ट्र राज्य पिछड़ा आयोग की रिपोर्ट के आधार पर राज्य सरकार द्वारा बनायी गयी एम.सी. गायकवाड़ समिति ने इंदिरा साहनी के फ़ैसले में राज्य में असाधारण स्थिति और परिस्थितियों के अस्तित्व का मामला बनाया है?
- क्या संविधान का 102वाँ संशोधन सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों का निर्धारण करने वाले क़ानून को अधिनियमित करने की अपनी शक्ति से राज्य विधानमंडल को वंचित करता है?
- क्या संविधान का अनुच्छेद 342ए किसी पिछड़े वर्ग के नागरिकों के संबंध में क़ानून बनाने या वर्गीकृत करने के लिए राज्यों की शक्ति का हनन करता है और जिससे भारत के संविधान की संघीय नीति/संरचना प्रभावित होती है?
सुप्रीम कोर्ट में उठाये गए इन बिंदुओं पर महाराष्ट्र सरकार बहुत आशान्वित है। विशेष तौर पर वह यह मान रही है कि गायकवाड़ समिति की अनुशंसाओं को यदि सुप्रीम कोर्ट द्वारा उठाये गए सवालों के अनुरूप दुरुस्त कर फिर से लड़ी जाएगी तो वह जीत सकती है। यही नहीं, संविधान के 102वें संशोधन के तहत वह केंद्र सरकार की शक्तियों के आधार पर भी यह लड़ाई जीतने की आशा कर रही है।
दरअसल, मराठा आरक्षण के बारे में सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला केवल महाराष्ट्र तक ही सीमित नहीं रहने वाला है। दरअसल, इस फ़ैसले से पहले सुप्रीम कोर्ट को संविधान के 103वें संशोधन के बारे में भी अपनी स्थिति स्पष्ट कर देनी चाहिए थी। जबकि आर्थिक आधार पर आरक्षण की एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन भी पड़ी है।
लेकिन मराठा समाज के आरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला दे दिया। अब यह मामला यहीं थमता नज़र नहीं आ रहा। सुप्रीम कोर्ट ने मराठा आरक्षण को यह कहते हुए रद्द कर दिया, क्योंकि वह इंदिरा साहनी की याचिका पर निर्धारित पचास फ़ीसदी आरक्षण की सीमा को पार कर जाता है। लेकिन तमिलनाडु सरकार या केंद्र सरकार ने पहले ही इस सीमा को पार कर रखा है। अनेक प्रदेशों में राज्य सरकारें अपने-अपने राज्यों में स्थानीय लोगों के हिसाब से आरक्षण के निर्णय ले चुकी हैं या ले रही हैं। चुनाव के ठीक पहले हमारी सरकारें इस तरह के आरक्षण की घोषणा करती रहती हैं। साल 2019 में महाराष्ट्र में मराठा समाज का आरक्षण और केंद्र सरकार द्वारा आर्थिक रूप से पिछड़ों का आरक्षण भी इसी तरह से घोषित हुआ था।
राजस्थान में गुर्जर व मीणा समाज को दिया गया आरक्षण, हरियाणा में जाट समाज का आरक्षण, गुजरात में पटेल समाज को आरक्षण, ये सभी आरक्षण आने वाले दिनों में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले की कसौटी पर कसे जाएँगे।
वैसे, यह बात मराठा आरक्षण की सुनवाई के दौरान अदालत में उठी भी थी। 8 मार्च, 2021 को शीर्ष अदालत ने इस मामले में सभी राज्यों को सुनने का फ़ैसला भी किया। वरिष्ठ वकील मुकुल रोहतगी, कपिल सिब्बल और डॉ. ए एम सिंघवी ने कहा था कि मराठा आरक्षण के मामले में वह मुद्दा भी शामिल है जो सभी राज्यों को प्रभावित करता है क्योंकि मामले में कोई भी निर्णय सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने के लिए राज्य की शक्तियों को प्रभावित कर सकता है। केंद्र सरकार द्वारा घोषित आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के आरक्षण का मामला भी इस फ़ैसले से प्रभावित हो सकता है। उल्लेखनीय है कि केंद्र सरकार द्वारा आर्थिक आधार पर दिए गए आरक्षण के ख़िलाफ़ भी सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर है। 8 फ़रवरी 2019 को तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश गोगोई ने ‘आर्थिक आधार पर आरक्षण’ वाली याचिका को सुनवाई के लिए स्वीकार किया था।
गोगोई के बाद जब शरद बोबडे मुख्य न्यायाधीश बने तो उन्होंने भी केंद्र सरकार के आर्थिक आधार पर दिए गए आरक्षण के निर्णय पर रोक लगाने की बजाय यह निर्णय किया कि संविधान पीठ इस पर फ़ैसला करेगी। लेकिन इस याचिका पर अभी तक फ़ैसला नहीं आया। असल में केंद्र सरकार द्वारा आर्थिक आधार पर दिए गए आरक्षण ने आरक्षण की सीमा को बढ़ाकर 9.5 पहुँचा दिया है।
अब इस याचिका पर सुप्रीम कोर्ट का क्या नजरिया रहेगा?
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