मोदी सरकार और रिज़र्व बैंक के बीच रस्साकशी में जीत किसकी हुई? ताली कौन बजाए? 19 नवम्बर को रिज़र्व बैंक बोर्ड के नौ घंटे तक चले महामंथन से अन्तत: क्या निकला, विष या अमृत? सबको यह सवाल मथ रहा है।
रिज़र्व बैंक-मोदी सरकार की रस्साकशी में संस्थान की चढ़ी बलि
- विश्लेषण
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- 21 Nov, 2018
रिज़र्व बैंक और केंद्र सरकार के बीच तनातनी पहली बार नहीं हुई। पर इस बार ख़ास बात यह थी कि यह सब कुछ ठीक चुनाव के पहले हुआ। इसका क्या मतलब है?

क्या थी असली मंशा?
इसका सही जवाब तभी मिल पाएगा, जब हम पहले ईमानदारी से एक और सवाल का जवाब अपने आप से पूछेंगे। वह यह कि जो हुआ, वह किस परिप्रेक्ष्य में हुआ? इसके पीछे असली मंशा क्या थी? क्या कुछ सैद्धांतिक और नीतिगत विषयों को लेकर सरकार और रिज़र्व बैंक के दृष्टिकोण अलग-अलग थे या सरकार की अपनी कुछ तात्कालिक राजनीतिक चुनौतियाँ और मजबूरियाँ थीं?
हाल बेहाल, चुनावी साल
यह इसलिए कि मक़सद ही यह तय करता है कि मंज़िल क्या होगी! तो आइए देखते हैं कि हमें क्या जवाब मिलते हैं।
हाल बेहाल, चुनावी साल
पहली बात कि यह चुनावी साल है। लोकसभा चुनाव होने में सिर्फ़ पाँच महीने रह गए हैं। देश के बैंकों की हालत ख़स्ता है। पुराने डूबे हुए क़र्ज़ों के बोझ से वे बुरी तरह दबे हुए हैं। पिछले तीन साल से रिज़र्व बैंक ने उनके कान उमेठे हैं। एनपीए की पहचान करने और उन्हें बैंकों की बैलेन्स शीट पर लाने के लिए नये दिशा-निर्देश आए। तब पता चला कि क़रीब दस लाख करोड़ रुपये का क़र्ज़ डूबा पड़ा है, जिसकी वसूली की कोई ख़ास उम्मीद नहीं है। रिज़र्व बैंक के निर्देशों के तहत बैंकों को एक निश्चित सीमा में नक़दी अपने पास जमा रखनी ही पड़ती है।